जो हम जीते नहीं,उसे लिख पाना कठिन है !
कवि - कविता लिखने से नहीं होता कोई
यूँ ही नहीं कहा प्रकृति कवि पन्त ने
"वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान"
…
जो गिरा नहीं - वह उठने की शर्मनाक स्थिति
लगी चोट के दर्द से कहाँ वाकिफ़ होता है
जिसे घर की परिधि से बाहर नहीं किया गया
वह अपमान के गरल का स्वाद क्या जानेगा !
जो तूफानों में ना भटका हो
वह सूखे हलक की व्याख्या क्या करेगा !!!
….
यह कोई ४ मीटर,100 मीटर की दौड़ नहीं
जो दौड़ गए और जीत गए
इसमें प्रतिद्वंदी अपनी ही आत्मा होती है
झूठ लिखने पर घूरती है
शब्द शब्द को परीक्षक की तरह जाँचती है
चुटकी बजाते कवि नहीं बनाती दिमाग को …. !!!(मैं)
(वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान। निकलकर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान..।)
सुमित्रानंदन पंत
मिलते हैं भावों से निकलते भावों से -
बस्तर की अभिव्यक्ति -जैसे कोई झरना....: कविता
(डॉ कौशलेन्द्र मिश्रा)
कविता है
लावा .... जो बहता है
आंतरिक हलचल और बेचैनी से विस्फोटित हो कर
बहता है ....
अपने आसपास के सारे परिवेश को प्रभावित करते हुये ।
कविता है
बेचैनी की स्थिति में
कोरामीन का इंजेक्शन ।
कविता है
एक सुगन्ध
जो प्रस्फुटित होती है
हृदय की अतल गहराइयों से
कविता
एक चीख है
जो गूँजती है सतत .....
पूरे विश्व में ।
कविता है
एक विवश शब्दावली
जिसके प्रभामण्डल में समाकर
कोई रचनाकार बचा पाता है
स्वयं को पागल होने से ।
कविता है
एक अज़ूबा
जिसके चाहने वाले तो हैं
पर
नहीं रखना चाहता उसे
कोई अपने घर में ।
कविता है
सड़क के किनारे पड़ी हुयी
एक ख़ूबसूरत भिखारिन
जिसे ताकते हैं मुसाफ़िर
मुस्कराते हुये
फिर निकल जाते हैं ..बिना उसकी ओर फेके
रोटी का एक भी टुकड़ा ।
कविता है
एक बेहोशी
जो बहती है पूरे होश-ओ-हवास में ।
कविता है
एक जागरण
जो झकझोरती है सुप्तों को ।
कविता
एक मूल्यवान औषधि है
जिसके अभाव में
जी नहीं सकता कोई रचनाकार ।
कविता से
हमें इश्क़ हो गया है
इतना इश्क ....
कि न हम कविता को छोड़ सकते हैं
और न कविता हमें ।
इसलिये
एक इल्तिज़ा है आपसे
जब हम मरें
तो हम दोनो को
एक साथ दफ़न कर देना ।
त्रिवेणी के संगम में ।
...................................और अंत में मेरी ओर से
यह सागर पूरित गागर
" कविता है कवि की आहट
उसके जिंदा रहने की सुगबुगाहट
उसके सपने
उसके आँसू
उसकी उम्मीदें
उसके जीने के शाब्दिक मायने ..."
(मुकेश कुमारतिवारी)
आज सुबह ही लौटा हूँ पिछले तीन दिनों से भटक रहा था कोयम्बटूर फिर बेंगलुरू। इस सफर में सिर्फ कोयम्बटूर में ही दिखे मंदिर में सिर झुकाते लोग, सड़क पर देवी की शोभा यात्रा निकालते हुए लोग यह सब देखते हुए न जाने किन ख्यालों में खो गया...........
मैं
आजतक नही समझ पाया हूँ
कि लोग
कैसे बचा लेते हैं
परपराओं को
और जीवित रखते हैं
अपने विश्वास को
जिंदगी से लड़ते हुए
वो
लोग
जिनके लिए
जिंदगी के मायने कई हद तक तो
सिर्फ एक सुबह को
एक दूसरी सुबह में बदल पाने की कोशिश के
अतिरिक्त और कुछ नही है
कैसे
वो समय निकाल पाते हैं
साँस लेने अलावा
अपनी परंपराओं के सहेजने के लिए
और भूल जाते हैं
अपने हिस्से का दुःख
भले ही कुछ पलों के लिए ही सही
ये लोग
जिनके अपने कोई वुज़ूद नही होते
राशनकार्ड से लगाकर वोटर लिस्ट तक में
न कोई नाम होता है
उन्हें कोई भी कुछ भी बुला सकता है
किसी भी नाम से
एक महानगर होने के स्थाईभाव की तरह
ये बगैर वुज़ूदवाले लोग जमे होते हैं
शहर के चेहरे के इर्द-गिर्द
पोषते हैं संस्कृति को
शहर को उसकी पहचान देते हुए
बदल जाते हैं
पॅवमैंट में किसी जन्म लेती मॉल के किनारे
और खो जाते हैं कहीं
किसी दिन
------------------
आज इतना ही, मिलती हूँ कल फिर सुबह 10 बजे परिकल्पना पर....
मोती चुनती
जवाब देंहटाएंनायाब हीरे होते
समुन्दर से
तिवारी जी! ये परम्परायें ही हैं जो बिना वुज़ूद वाले लोगों को ज़िन्दा रखती हैं और हर सुबह ज़िन्दगी के अगले सफ़े को खोलने की ऊर्जा देती हैं। अनचीन्हे लोगों के लिये लिखी गयी यह रचना आपकी संवेदनशीलता को प्रकाशित करती है । साधुवाद! इस रचना के लिये। और रश्मि जी के लिये क्या कहूँ, उनका अगाध स्नेह है मेरे प्रति। मैं जब कक्षा सातवीं का छात्र था तब सबसे पहले पंत जी से ही प्रभावित हुआ था। साहित्य के प्रति अनुराग के सूत्रधार हैं पंत जी। रश्मि जी भाग्यशाली हैं जो उन्हें पंत जी का विशेष आशीर्वाद प्राप्त हो सका।
जवाब देंहटाएंखूबसूरत संकलन !
हटाएंवाह !
जवाब देंहटाएंहर तरफ लिख रहा है
पता कहाँ चल पा रहा है
बहुत बहुत गजब लिख रहा है !
गहरा एहसास ... जीवन से जुड़े रहने का विश्वास ...
जवाब देंहटाएंकविता भी तभी कविता बनती है जब वो सांस लेती है शब्दों के बीच ...
दोनों रचनाएं बहुत ही संवेदनशील ...