कुछ बोल पंछी
किस पिपासा को लिए ओ बावरा
दर्द जब इंसान हर पाता नहीं
क्या हरेंगे फिर ये चंचल धवल बादल?... स्व. सरस्वती प्रसाद
लेकिन बावरा मन सपनाता ही है, और सपने बहुत अपने होते हैं - एक मोह,जो छुटता नहीं
ख़्वाब देखा था, ख़्वाब ही होगा शायद. अक्सर ख़्वाबों में कई दफ़े देखा है उनको अपने पास. बेहद क़रीब. इतना जैसे कि हाथ बढ़ाओ और उन्हें छू लो.
वो आये और आकर चले गए. ऐसे जैसे आये ही ना हों. मगर वो आये थे, इसका गवाह मेरे घर में बसे उनकी खुश्बू दे रहा है. ढेर सारे आशीर्वाद और ममत्व की खुश्बू. कुछ जूठे बर्तन, कुछ चाय के लिए लाया दूध, चायपत्ती कि एक डिब्बी जो अमूमन मेरे घर में नहीं रहती है, उनकी लायी कुछ मिठाइयाँ, चंद तस्वीरें जो मेरे कैमरे में बंद है, जाते समय उनके चेहरे कि मायूसी, जाते वक्त कि उनकी डबडबाई आँखें, पापा का लाल वाला चप्पल जो मेरे लिए छोड़ गए, उनके बिस्तर कि सिलवटें, घर में मौजूद मम्मी के कुछ लम्बे बाल....
कुछ कहते हुए पापा के चेहरे पर ख़ुशी बेसुमार थी. मुझे नहीं पता कि क्या कह रहे थे, मैं तो सिर्फ उनके चेहरे पर चढ़ते-उतरते भाव को ही देख रहा था. उनकी आँखें कभी छोटी, कभी बड़ी हो रही थी. हल्के झुर्रियों वाले चेहरे पर कई भाव आ जा रहे थे. अकचका कर अचानक वो मुझसे पूछते हैं, क्या देख रहे हो? मुझे खुद नहीं पता कि मैं क्या देख रहा था. बस मुस्कुरा भर दिया. होली का पर्व तो बीत चुका था, उल्लास का पर्व अब मनाया जा रहा था. देखा कि उनके गले के पास वाला वो काला मस्सा अभी भी वैसा ही है.
मम्मी के बालों को देखा, जो सामने से अब लम्बे हो गए थे. चेहरे पर कि मांसपेशियां जो पहले तनी रहती थी, अब ढुलक चुकी हैं. पहले तनाव में हमेशा दिखने वाले चेहरे पर अब हमेशा सौम्य सी मुस्कान दिखती रही. अभी बीते कुछ दिनों में अपने कुछ करीबी मित्रों की माँओं से मिलने का मौका मिला था, उन सबके बारे में सोचता हूँ. सब एक सी ही लगती प्रतीत होती हैं. लगता है जैसे एक उम्र के बाद सभी माँओं कि शक्लें एक सी ही हो जाती है. वही वात्सल्य भाव से सराबोर.
पहली रात खाना खाने के बाद पापा/मम्मी को किचेन के सिंक कि ओर बढ़ते देख चिल्लाता हूँ, ऐसे ही रख दीजिये, मैं साफ़ कर दूंगा. वे भी सिर्फ "हूँ" कहकर सिंक में छोड़ दिए. अगली सुबह उनसे थोड़ी देर से जगा तो पाया कि सारे बर्तन साफ़ हैं. अगली रात सारे बर्तन साफ़ करके सोया.
पहली सुबह पापा के फोन से नींद खुली, पता चला कि कहीं गए थे सुबह-सुबह और रास्ता भटक गए. मैं और मम्मी देर तक इस पर हँसते रहे. वापस घर आकर पापा भी हँसते रहे. लगा जैसे पूरा घर खुश है, दीवार और खिड़की पर टंगे परदे भी हंस रहे थे. लगा जैसे घर मुझे घूर रहा है, इतने कहकहे उसने अभी तक एक साथ नहीं देखे थे कभी.
शाम में पापा को लेकर बैंगलोर कि कुछ गलियाँ, कुछ मौसम, कुछ फैशन दिखलाता रहा. उन्हें मेरी बाईक पर बैठने में डर लगता है, पीछे का सीट कुछ ऊंचा है किसी भी स्पोर्ट्स बाईक की तरह इसलिए. फिर भी बिना ना-नुकुर किये मेरे साथ भटकते रहे, इस भरोसे के साथ कि बेटे के साथ हूँ तो क्या डर? और मैं सोच रहा था बचपन से लेकर अभी तक मैं भी तो अपने हर डर पर उनके साथ इसी तरह काबू पाना सीखा हूँ. घर आया तो देखा घर कुछ अधिक व्यवस्थित है, मम्मी काफी कुछ ठीक कर रखी थी.
सोमवार कि सुबह साढ़े आठ बजे तब वे जा चुके थे. पीछे छोड़ गए थे ढेर साडी हिदायतें. ऐसी हिदायतें जिनकी या तो जरूरत नहीं थी, या फिर वे भी जानते थे कि मैं वे सब चीजें पहले से ही करता हूँ, और जो नहीं करता वो आगे भी नहीं करूँगा. मैं उन्हें टैक्सी में बिठा कर वापस आकर घर के हॉल में लगे कुर्सी पर बैठ निर्वात में ताकता रहा. साढ़े नौ बजे अपने तक उसी अवस्था में बैठा सोचता रहा कि क्या वे वाकई यहाँ थे? फिर उठा बेमन से और वापस किसी यांत्रिक मानव कि तरह सारे कार्य करने लगा.
PD
आओ आज की रात
हम दरवाजों को खुला छोड़ दें
खिड़कियों को बंद मत करें
हमारी अधीरता वह भांप ले
और लौट आए.............स्व. सरस्वती प्रसाद
आजकल मेरा समय काटे नहीं कटता है
सारा दिन तुम्हारे ख्यालों में खोया रहता है
सारे विचार तुम तक जाकर लौट आते हैं
मेरे सारे सपने तुम में ही ठौर पाते हैं
तुम और तुम्हारे एहसास से लिपटी रहती हूँ
अपने इस हाल पर विस्मित रहती हूँ .
यहाँ,मेरा यह हाल है ....
पर,
पता नहीं तुम वहाँ क्या करते हो ?
क्या कभी तुम्हें मेरा ख्याल आता है
क्या तुम मुझे अपने पास पाते हो
कभी मेरी कमी का एहसास होता है
इन सभी सवालों के जवाब पाने के लिए ..
पर,तुम तो फिर तुम हो न
मैं आँखों से जब कहती हूँ
तुम अनदेखा कर जाते हो
जो मैं तुमसे कुछ पूछूँ
तुम अनसुना कर जाते हो
किस तरह तुमसे सब जान लूँ
दिल का तुम्हारे हाल पा सकूँ
समझ नहीं पाती हूँ .
इंतज़ार में हूँ.....
तुम कुछ कहो
जिसे मैं समझ सकूँ .
निधि टंडन
'मैं' का अरण्य अर्गला है
जिसमें तुम फँसे तो शोर है
विचरण किया
तो मुक्ति के गूढ़ अर्थ ……. (मैं यानि रश्मि)
"मैं "
एक शब्द रूप हूँ ......
प्रतिनिधि हूँ उसका
जो अलौकिक है
परलौकिक है
अदृश्य है
अस्पर्शनीय है
किन्तु श्रब्य है
चेतन है
गतिमान है
वह उत्पत्ति का केंद्र है |
भौतिक दृश्य जगत से परे
कौन हैं वहाँ?
मैं कहता हूँ - "मैं हूँ "
तुम कहते हो ---"मैं हूँ "
वह कहता है ......"मैं हूँ "
"मैं " अर्थात अहम् म् म् म् .........म्म्म्म्मम्म्म्म्म् है यह ब्रह्मनाद
"हूँ " अर्थात हुम् .....म् म् म्-------म्म्म्म्म्म्म्म्म् यह भी है ब्रह्मनाद
मैं मैं मैं ................
सब "मैं' मिलकर बनते हैं "हम "
हम अर्थात -हम् म् म्..........म्म्म्म्म्म्म्म्+अ .......अन्तहीन अह्नाद ..
अह्नाद समाहित है ब्रह्नाद में
सबकी उत्पत्ति के मूल में |
ब्रह्म नाद अदृश्य है
यह अस्पर्शनीय है
यह अलौकिक है
यह परलौकिक है
किन्तु यह श्रब्य है
यह चेतन है
यह गतिमान है |
सुन सकते हो, तो सुनो निर्जन में
रखो अंगुली अपने कर्ण मुल में
आँख मुंदकर आजाओ ध्यान मुद्रा में
स्थिर कर चंचल मन को
सुनो ध्यान से " हूँ.... "कार को
यही है "मैं' "हूँ " " अहम् " " हम ' का अन्तिम रूप
यही है हर शब्द का ब्रह्मरूप ,
यह अनन्त है
यह अदृश्य है
यह अविनाशी है
यह सर्वव्यापी -सर्वत्र है
स्वयंभू है
ब्रह्मनाद है ,
सृष्टि का मूल है | अंत भी है |
अहम् आदि है -सृष्टि है
अहम् मध्य है -स्थिति है
अहम् अन्त है -संहार है
अहम् ब्रह्मा विष्णु महेश है
यही है अ -उ -म अर्थात ॐ
सृष्टि स्थिति और शेष
"मैं" में विलीन हैं
ब्रह्मा विष्णु महेश|...... कालीपद "प्रसाद"
परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना हिन, मिलती हूँ कल फिर सुबह 10 बजे परिकल्पना पर.....
ek alag hi sansaar me le jati rachnayein.
जवाब देंहटाएंकल्पनाओं के संसार की माला में एक और खूबसूरत मोती जड़ा गया आज बहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंपटना बरौनी के चक्कर में पढना सोचना नहीं हो रहा। ..
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