ब्लॉग के समकक्ष बड़ी तेजी से उभरा फेसबुक - अभिव्यक्तियों का इंस्टैंट रूप ! इंस्टैंट कॉफ़ी की तरह - ब्रह्मुहूर्त से रात गए तक यह फेसबुक का शहर सोता नहीं, एक LIKE का कमाल लिखने की,कुछ कर दिखाने की प्रेरणा देता है . ब्लॉग को भी हम आसानी से अपने मित्रों तक पहुंचा लेते हैं ....
आईये - इस शहर से तीन एहसास मैं समेट लाई हूँ - आपके लिए
(किशोर कुमार खोरेन्द्र)
किसी शब्द के माथे पर
बिंदु सी बिंदी लगाना
भूल जाता हूँ
तो बिंदु नाराज हो जाती हैं
अक्षर कहते हैं हमें जोड़ो
शब्द कहते हैं हमें बोलो
वाक्य कहते हैं हमें पढ़ों
छंद कहते है हमें गाओ
शरीर रूपी बोगी में
बैठकर मेरा एकाकी मन
अपनी आत्मकथा लिख रहा हैं
जो कभी खत्म नहीं होगी
इस कथा में
न अल्प विराम हैं न पूर्ण विराम हैं
बिना पटरियों के ही
मानों ख्यालों की रेल
अबाध गति से दौड़ रही हैं
लेकिन
तुम्हारी मुस्कराहट को
तुम्हारी आंखों में समाये
मौन को
मेरा मन नहीं लिख पाता हैं
सौभग्य की लहरों के आँचल की तरह
तुम मेरे करीब आकर लौट जाती हो
जाते हुए आँचल के छोर को मैं
कहाँ पकड़ पाता हूँ
असहाय सा बेबस सा
निर्मम वक्त के समक्ष
निरुत्तर हो जाता हूँ
अपने मन से भी ऊपर
परे
उसका नियंत्रक
"मैं "जो हूँ
इसलिए मेरी तरह
वे सारे अक्षर
वे सभी शब्द
वे लंबे वाक्य
वे मधुर छंद
समुद्र की तरह हाहाकार करता
हुआ सा मेरा एकाकी मन
सब चुप हो जाते हैं
नि:शब्द हो जाते हैं
स्तब्ध हो जाते हैं
कविता : मरे हुए जूतों की शक्लें - संजय शेफर्ड http://facebook.com/ Sanjaishepherd
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आओ आज बीनते हैं
रक्त के उन टुकड़ों को जो अनायास गिरे
कभी सड़क, कभी चौराहों पर
कभी अपने ही घर के चौकट के नीचे
* * *
उन घावों को जो अपने थे और पराये भी
जो स्वय उपजे, जिन्हें हम उपजाए भी
कभी तलवार तो कभी खंजर के नीचे
* * *
आओ आज बीनते हैं
मांस के उन टुकड़ों को
जो बिखरे और बिखराए गए
आओ ढूंढे खोई हुई लाशों को
निहारें मरे हुए जूतों की शक्लें
* * *
कोई बात नहीं, कोई फ़रियाद नहीं
हम मरने वालों में थे या मरने वालों में
हम सबको कुछ भी याद नहीं
बस मारना था, मारते रहें
बस काटना था काटते रहे
* * *
उनको भी काटे खुद भी कटे
बहन, बेटियो की कब्रे पाटे
साम्रदायिकता की वह आंधी थी
जो मारी काटी चली गई
* * *
कुछ याद है तो बस खोई शक्लें
कुछ अपने कुछ गैर, कुछ मिलकर बिछुड़े
चौका चूल्हा उदास पड़ा है
घर में छाएं हैं कब्रों के से सन्नाटे ?
जीवन को वीरान किया तो क्या
आओ अब हम सब मिलकर मौत को बांटे।
आओ हमारे साथ rekha.chamoli.3@facebook.com
परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना ही, मिलती हूँ कल फिर सुबह 10 बजे परिकल्पना पर।
(-रेखा चमोली — )
हम पहाड़ की महिलाएँ हैं
पहाड़ की ही तरह मजबूत और नाजुक
नसें हैं हम इस धरती की
हम हरियाली हैं जंगल है
चरागाह हैं हम
हम ध्वनियाँ हैं
हमने थामा है पहाड़ को
अपनी हथेलियों पर
अपनी पीठ पर ढोया है इसे
पीढ़ी दर पीढ़ी
इसके सीने को चीरकर
निकाली हैं ठंडी ठंडी धारायें
हमारे कदमों की थाप को पहचानता है ये
तभी तो रास्ता दे देता है अपने सीने पर
हमने चेहरे की रौनक
बिछाई है इसके खेतों में
हमीं से बचे है लोक गित
पढ़ी लिखी नहीं तो क्या
संस्कृति की वाहक हैं हम
ओ कवि, मत लिखो हम पर
कोई प्रेम कविता, खुदेड़ गीत
मैतियों को याद करती चिट्ठियाँ
ये सब सुलगती हुई लकड़ियों की तरह
धीमे धीमे जलाती हैं हमारे हाथों में थमाओ कलमें
पकड़ाओ मशालें
आओ हमारे साथ
हम बनेंगे क्रान्ति की वाहक
हमारी ओर दया से नहीं
बराबरी सम्मान से देखो
दो को जानती हूँ …।
जवाब देंहटाएंतीसरी मेरी अनजानी थी ....
मिलवाने के लिए शुक्रिया .....।
बहुत सुन्दर रचनाएं.....रेखा जी को पहली बार पढ़ा....
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएं.
सादर
अनु
एक से बढकर एक खज़ाना बटोरा है ।
जवाब देंहटाएंnaye log ka parichay dekhne ko milega is shirinkhala mein ............. shubhkamnaaye aap sabko FB ka sitara ban ne ka
जवाब देंहटाएंवाह दी ! एक से बढ़कर एक ....शुक्रिया
जवाब देंहटाएंनये-पुराने रचनाकारों से मुलाक़ात .....आनंद आ रहा है
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सुंदर ये भी एक अलग अंदाज है !
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचनायें चुनीं हैं आपने ..वाकई मज़ा आ गया
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