सत्य का साथ दिया विभीषण ने
विकट परिस्थिति में
रक्त सम्बन्ध के खिलाफ कदम उठा
वह कोई उदाहरण नहीं बना
रावण की मृत्यु का भेदी बन
अपने राज्याभिषेक के साथ
प्रश्नों के घेरे में 'स्वार्थी' कहलाया
रावण ने क्या कहा, क्या व्यवहार किया
सब गौण हुआ !!!
....
समय से पूर्व जागकर
कुम्भकर्ण ने भी स्तब्द्धता दिखाई थी
साक्षात दुर्गा को उठा लाने के गलत कार्य को इंगित भी किया
पर उसने रक्त सम्बन्ध निभाया
मृत्यु अवश्यम्भावी है - यह सहज ज्ञात था
पर उसे उसने सहर्ष स्वीकार किया
भाई हो तो ऐसा - सबकी ज़ुबान पर आया
तो सहज प्रश्न उठता है - विरोध कैसे और किस अनुपात में ! ………
Pragyan Vigyan Paricharcha: चौखट: (दो सहेलियों का नारी ...
(जयप्रकाश तिवारी)
अंजू –
सुनो सखि !
हम भूत से सीखकर, भविष्य रचते हैं
मूर्ख थी सूर्पनखा, नाम ग्राम बता दिया
सच बोल के नाक कान कटा लिया
हम तो इसीलिए पहचान बचा के रखते हैं
सब कुछ छिपा के रखते हैं
हम भूत से सीखकर, भविष्य रचते हैं.
जानते हैं इस रेखा को, उस रेखा को
और लक्षमण रेखा को भी;
इसलिए कोई रेखा खिंची नहीं हमने
न खींचने दी आवास में अपने
चाहो तो जी भर के देख लो
दरवाजे तो हैं यहाँ, पर चौखट नहीं रखते हैं
हम भूत से सीखकर, भविष्य रचते हैं
यह चौखट हमें रोकता है, बार-बार टोकता है
चौखट की चाहत थी बन जाने की सीमा रेखा
समय रहते पहचान लिया, तत्काल निर्णय ले लिया
बोलो! सारा घर तो छानमारा, कहीं कोई चौखट दिखा?
हम कोई चौखट नहीं रखते हैं –
हम भूत से सीखकर, भविष्य रचते हैं.
संजू -
तूने कह ली अपने मन की,
अब मेरी भी तो सुन!
नाहक डरती है लक्ष्मण रेखा से तू!
अब जब लक्ष्मण ही नहीं
तो लक्षमण रेखा कैसी?
आज का लक्षमण
सूर्पनखा का नाक-कान नहीं काटता,
उसके तलवे चाटता है,
वह उसे जीवन-संगिनी भले न बना सके,
बन के ब्वायफ्रेंड दंडक का ही नहीं
लंकापुरी का भी ऐश्वर्य भोगता है.
लेकिन एक खतरा है इसमें –
बहना मेरी! जरा सोचो इस तरह
उर्मिला का घर तो फिर भी बस गया,
बसना ही था क्योकि चौखट था
इसलिए लक्ष्मण लौट गया,
अपना लक्ष्मण यदि लंकापुरी गया तो क्या होगा?
क्या इस चौखट की आवशयकता नहीं आज भी?
इस चौखट से आखिर क्यों भाग रहीं हम-आप?
इस चौखट के भीतर सुरक्षित तो हैं
लक्ष्मण रेखा से पूरीतरह संरक्षित तो हैं
क्योकि, न पार किया होता सीता ने रेखा,
तो देनी न पड़ती उन्हें अग्नि परीक्षा
यह परिक्षा भी आखिर किसी काम न आई
संदेह के भूत ने उनकी चौखट छुड़ाई
मिला सहारा उन्हें जिस तपोवन में
था चौखट वहां भी, जप और तप का
इस चौखट ने ही उनकी मर्यादा बचाई
सूत के पाँव चौखट के अन्दर तक आई.
आई स्वयं भी वो चौखट के अन्दर
लेकिन वो भूत, रह रह कर उभरता
उबकर सीता फिर धरती में समाई
पुरुष भी नहीं लाँघ सकता यह चौखट
यदि चौखट किसी लक्ष्मण ने बनाई
यदि हारा है पराक्रम, रावण का भी इससे
तो समझो वह चौखट बना होगा किससे
सेवा की शक्ति और ब्रह्मचर्य बल से
निष्ठां की चाप से निर्मित था वह चौखट
सुधारना होगा स्वयम को, सुधारना भी होगा
है चौखट जरूरी, उसे रखना ही होगा
था कल भी जरूरी, है वह आज भी जरूरी
होगा कल भी जरूरी, यह कहना ही होगा,
हाँ रखना ही होगा, उसे रखना ही होगा.
अंजू –
लेकिन सखि!
यह चौखट क्यों होता इतना कठोर?
संजू –
क्योंकि चौखट एक व्यवस्था है
कभी सामाजिक, राजनितिक
और .. सांप्रदायिक भी... ,
धार्मिक व्यवस्था में चौखट नहीं
लेकिन बना दिया गया है वहां भी.
तो सखि! समझो इसे अब ऐसे –
चौखट है सामूहिक निर्धारण
और अपना आँचल यह,
वैयक्तिक एक प्रतीक है जैसे.
यह व्यवस्था यदि नारी के लिए
तो है व्यवस्था पुरुष के लिए भी.
नारी बाँध के रखती है
अपने जीवन का सारा प्यार
उल्लास, उमंग और मधुर स्मृतियाँ
अपने इसी आँचल के पल्लू में,
और मान-सम्मान इतना कि
सर पर बैठा रखती हैं.
आश्वस्त करती हैं प्रियतम को
यह सारा प्यार तुम्हारा
मैंने बाँध लिया इस आँचल में,
सारी प्रेम तपस्या तेरी
अब सिमट गया इस आँचल में.
इस आँचल में अब वह
केवल प्यार ही नहीं बांधती
व्रत-पूजन का, मंदिर, मजार का
प्रसाद, आशीष, शुभकामनये भी
रखतीं है इसी पल्लू में संभालकर.
आँचल यह सुहाग है, मर्यादा है
तो पयस्वनी का पय भी यही.
अब वह अबला जीवन नहीं,
सबला सदस्य है परिवार की,
कभी चखो यह स्वाद !
जब वह जीतती है ट्राफियां
लती हैं पदक, बटोरती है डिग्रियां.
आँचल में प्रकृतिप्रदत्त ऊर्जस्वी
दूध तो है आज भी, उसी से तो
पालती है वह, भावी पीढ़ी को
मानव को, मानवता के सूत्र को.
उसके गोदी का शिशु अब
होता है विकसित इसी आँचल से
छलक रहे पय का पान कर,
होकर पोषित जब होता है बड़ा,
तो माँ कहती है –
मेरा आँचल यह, अब तू संभाल!
स्थानांतरित होते हैं अब दायित्व
वही आँचल अब बन जाती है–‘पगड़ी’.
इस पगड़ी को बालक ढोता है
जवानी से बुढ़ापे तक, मृत्यु तक.
अब उसे रखनी है मान पगड़ी की
माँ के दूध की, विश्वास और वचन की,
क्योकि पगड़ी यह माँ ने दिया है
पवित्र विरासत है यह, प्यारी माँ की.
अब बन जाता यह– ‘त्रिक और त्रिकोण’,
चौखट – आँचल और पगड़ी का.
मिलकर तीनों मिलकर रचते हैं
एक सामाजिक, सास्कृतिक सोच,
व्यवस्था का सम्यक ताना–बाना.
इस त्रिक की बुनावट
सरल भी होती है, जटिल भी
उलझन-आह्लाद, उल्लास-उमंग भी,
यह बंधन भी है और मुक्ति भी.
इसमें गूढता बस इतनी भर है कि
हमने इस त्रिक को समझा कितना?
जाना कितना? माना-अपनाया कितना?
जितना अपनाया उतना ही तो पाओगे
फिर तुलना किसी अन्य से क्यों?
करना हो तो करो स्वमूल्यांकन
अपने व्यवहार का, अपने आचरण का
सामाजिक, पारिवारिक, मानवीयमूल्यों में
स्वयम के अवदान, योगदान, प्रतिदान का.
और सुनो! जरा ध्यान देकर सुनो!!
समाज में जब जब...
चौखट, आँचल और पगड़ी की
त्रिक के मूल्यों में कमी आई है
या लायी गयी है बलपूर्वक और
आँचल खीचकर नंगा किया गया गया
अथवा उछाली गयी किसी की पगड़ी
तब तब हुवा है– संग्राम, घोरसंग्राम.
प्रत्येक समाज में किसी न किसी रूप में
अब भी व्यवस्था है इस त्रिक की.
हां, आज यह त्रिक टूट रहा
आज न घरों में रहे चौखट,
न सर पर आँचल और पगड़ी.
नतीजा देख रही हो चारोंओर भ्रष्टाचार
कुत्सित व्यभिचार, घृणित दुराचार..
सारांश कवि स्वयं आत्मालाप में देता है -
यदि सच यह नहीं
जो दीखता है आगे,
तो नहीं दीखता जो
वह सच है कैसे?
समस्या तो है यही मूल
अस्तित्व-सार के बीच का.
कौन है इसमें पूर्ववर्ती?
और कौन है पश्चात का?
बिना सार अस्त्तित्व कहाँ?
अस्तित्व वहीँ, है सार जहाँ.
सार है मूल, अस्तित्व परिणाम,
यही अस्तित्व, सार का प्रमाण.
- बहुत भिन्न सोच ....विचारों में बवंडर ला देने वाली .
जवाब देंहटाएं- आखिर सही कौन था ....विभीषण या कुम्भकर्ण
इंसानियत पहले है या कुल और देश .....प्रश्न बहुत सरल हैं पर उत्तर उतने ही जटिल
- चौखट सबके लिये समान है ...इसका सम्मान करना ज़रूरी है . साथ ही रखना भी कि ये चौखट सुरक्षा का घेरा तो हो पर कैद न बने .....वरना चौखट तोड़ी जाती हैं और कैद से मुक्ति तो मिलती है सुरक्षा की भावना फिर भी कोसो दूर रहती है
अलग अलग प्रश्न खडे करती रचना
जवाब देंहटाएंसग्रहणीय आलेख
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचनाऐं !
जवाब देंहटाएं