रात रोज एक कविता लिखती है
कभी पूरे चाँद की रौशनी में
कभी अमावस्या के स्याह पन्नों पर
वृक्ष की शाखाओं पर
पत्तों को देखना कभी
सूखे हों या हरे
ओस सी थरथराती कविता उन पर सिहरती रहती है …
विजय कुमार सप्पति
मुझे मेरी तलाश है .मैं वक़्त के जंगलो में भटकता एक साया हूँ ,
जिसे एक ऐसे बरगद की तलाश है जहाँ वो कुछ सांस ले सके..ज़िन्दगी की.......!!!!
सिलसिला कुछ इस तरह बना..........!
कि मैं लम्हों को ढूंढता था खुली हुई नींद के तले |
क्योंकि मुझे सपने देखना पसंद थे - जागते हुए भी ;
और चूंकि मैं उकता गया था ज़िन्दगी की हकीक़त से !
इसलिए मैं लम्हों को ढूंढता था ||
फिर एक दिन कायनात रुक गयी ;
दरवेश मुझे देख कर मुस्कराये
और ज़िन्दगी के एक लम्हे में तुम दिखी ;
लम्हा उस वक़्त मुझे बड़ा अपना सा लगा ,
जबकि वो था अजनबी - हमेशा की तरह ||
देवताओ ;
मैंने उस लम्हे को कैद किया है ..
अक्सर अपने अल्फाजो में ,
अपने नज्मो में ...
अपने ख्वाबो में ..
अपने आप में ....||
एक ज़माना सा गुजर गया है ;
कि अब सिर्फ तुम हो और वो लम्हा है ||
ये अलग बात है कि तुम हकीक़त में कहीं भी नहीं हो .
बस एक ख्याल का साया बन कर जी रही हो मेरे संग .
हाँ , ये जरुर सोचता हूँ कि तुम ज़िन्दगी की धडकनों में होती
तो ये ज़िन्दगी कुछ जुदा सी जरुर होती……||
पर उस ज़िन्दगी का उम्र से क्या रिश्ता .
जिस लम्हे में तुम थी, उसी में ज़िन्दगी बसर हो गयी .
और ये सिलसिला अब तलक जारी है …….|||
(गीत चतुर्वेदी)
आज एक नि:शब्द का उच्चारण करो
जिस शब्द से बनी थी यह सृष्टि
उसे बो दो अपने बग़ीचे में
उसे तुम अपनी दृष्टि से सींचना
मैं मेहनतकश विद्यार्थी हूं तुम्हारे प्रेम का
हर वक़्त इम्तहानों की तैयारी में लगा हुआ
तुम्हारी ख़ामोशी के सीने पर
तिल की तरह उगे हैं मेरे कान
जिन पंक्तियों की मैंने प्रतीक्षा की
वे जमा हैं तुम्हारे होंठों की दरारों में
तुम्हारी मुस्कान
तुम्हारे होंठों में छिपी
अनकही बातों की दरबान है
किसी किताब के पन्ने पर
कोई बहुत धीरे-धीरे खेता है नाव
आधी रात तुम्हारे कमरे में गूंजता है
पानी का कोरस
तुम्हारी आंख के भीतर एक मछली
तैरना स्थगित करती है
तलहटी को घूरते हुए गाती है बेआवाज़
पानी कभी नया नहीं होता और प्रेम भी
फिर भी कुछ बूंदों को हम हमेशा ताज़ा कहते हैं
जब मन पर क़ाबू न हो
तो याद करना
कैसे तेज़ बारिश के बीच अपनी छतरी संभालती थी
कभी-कभी चिडि़या हवा में ऐसे उड़ती है
जैसे करामाती नटों के खेत से चुरा ले गई हो
अदृश्य डोर पर चलने का हुनर
जोगनों की तरह साधना करती हो
तुम पर आ-आ बैठती हैं तितलियां
जो दीमक तुम पर मिट्टी का ढूह बनाती है
उन्हें तुम सितारों-सा सम्मान देती हो
तुम्हारे कमरे में एक बल्ब
दिन-रात जलता है
इस वक़्त तुम्हारे कमरे में होता
तो तुम्हारी आंखों के भीतर झांकता
आंखें आत्मा की खिड़की हैं
इच्छा, देह की सबसे ईमानदार कृति है
देह इस जीवन का सबसे बड़ा संकट है
ऐसे चूमूंगा तुम्हें कि
तुम्हारा हर अनकहा पढ़ लूंगा
होंठ दरअसल मन की आंखें हैं
पढ़ते हुए इन कवियों को मुझे स्व.सरस्वती प्रसाद की पंक्तियाँ याद आ गयीं -
"ले अभाव का घाव
ह्रदय का तेज मोम सा गला
अश्रु बन ढला
सुबह जो हुई
सभी ने देख कहा - शबनम है।।
रात रोज एक कविता लिखती है
जवाब देंहटाएंकभी पूरे चाँद की रौशनी में
कभी अमावस्या के स्याह पन्नों पर
वाह .... बहुत खूब
दोनो ही रचनायें उत्तम रचनाकारों को बहुत-बहुत बधाई
आभार
sundar
जवाब देंहटाएंरश्मि दीदी ,
जवाब देंहटाएंआपका दिल से शुक्रिया . ये कविता तो मुझे भी बहुत पसंद है जी .
धन्यवाद .
विजय
हमें भी बहुत अच्छी लगी लगनी ही है आप ने चुनी है धन्यवाद :) नाराज मत होना जी !
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन लिंक्स रश्मिजी ....वाकई मोती......!!!!!!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कवितायेँ.....दोनों ही नायब कवि हैं!!
जवाब देंहटाएंआभार
अनु
लिखकर के आलेख को, अनुच्छेद में बाँट।
जवाब देंहटाएंहींग लगे ना फिटकरी, कविता बने विराट।।
भूल गये अपनी विधा, चमक-दमक में आज।
पड़ा विदेशी मोह में, आज प्रबुद्ध समाज।।
- सपने सी .....बिना किसी 'अगर-मगर' के साथ जीवन का एक हिस्सा सी ये रचना मन को बहुत भायी . ऐसा लगा जैसे हमने भी इस सपने को जी लिया ...साधुवाद
जवाब देंहटाएं- जाने कितना समझी मैं ....जाने कितनी समझनी अभी बाकी है . हाँ भली सी लगी एक रचना जो गुप-चुप मन को गुदगुदाती है
- दोनों रचनायें सीधे मन में घर बना कर बैठ गयीं ......रचनाकारों और रश्मि जी आपको प्रणाम