जीवन में सत्य की जीत होती है 
पर बिना साम दाम दंड भेद के नहीं  … 
गीता को आत्मसात करते हुए 
इस मन्त्र को आत्मसात नहीं किया 
तो सत्य की जड़ें सिंचित नहीं होंगी  … 


अच्छा होने की कठिनाईयाँ
प्रवीण पाण्डेय 



पहले यह स्पष्ट कर दूँ कि इस विषय में लिखने की योग्यता और अधिकार, दोनों ही मेरे पास नहीं है, योग्यता इसलिये क्योंकि इस विषय पर अब भी मैं भ्रम लिये जीता हूँ, अधिकार इसलिये क्योंकि मैं इतना अच्छा भी नहीं हूँ कि अच्छाई पर साधिकार लिख सकूँ। मेरे पास भी मेरे हिस्से की बुराईयाँ हैं, सहेजे हूँ, चुप रहता हूँ, उनसे लड़ता नहीं हूँ, संभवतः उतनी शक्ति नहीं है या संभवतः उतनी ऊर्जा नहीं है जो उन पर व्यर्थ की जा सके। कुछ तो इस उपेक्षा से दुखी होकर चली गयी हैं, कुछ धीरे धीरे चली जायेंगी। जो रहेंगी, वो रहें, पर उन्हें अपने पूरे जीवन पर अधिकार नहीं करने दूँगा।

प्रश्न पर स्वाभाविक है, क्या अच्छा होने से कठिनाईयाँ कम हो जाती है, क्या है जो आपको अच्छा होने पर मिल जाता है, क्या अच्छा होना सच में इतना आवश्यक है? जब हम प्रश्नों का उत्तर स्वयं से नहीं पाते हैं तो उसका उत्तर बाहर ढूढ़ते हैं, वर्तमान में, भूतकाल में, घटनाओं में, ग्रन्थों में। भले ही ऐसे प्रश्न जीवन भर अनुत्तरित रहें पर अतार्किक और भ्रामक उत्तरों से संतुष्ट न हो बैठें।


अच्छा होने की कठिनाईयाँ
इन प्रश्नों को समझने और उसका उत्तर ढूढ़ने में गुरचरनदास ने महाभारत का आधार लिया है। बड़े ही चिन्तनशील लेखक हैं, उन्होंने महाभारत का न केवल विधिवत अध्ययन किया है वरन उसके पहले के ३० वर्षों में अपने कार्यक्षेत्र में उस महाभारत को जिया है। व्यावसायिक युद्ध में निरत किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के शीर्ष तक पहुँचने के क्रम में ये प्रश्न नित ही आते होंगे। उन्होंने महाभारत क्यों चुनी, इसका स्पष्ट उत्तर उन्होंने अपनी पुस्तक 'द डिफ्कल्टी ऑफ बीईंग गुड' में नहीं दिया है, पर महाभारत में ऐसे उदाहरणों की बहुतायत है जिससे यह द्वन्द्व गहनता से समझा जा सकता है। पोस्ट का शीर्षक उनकी पुस्तक के नाम का हिन्दी अनुवाद भर है।

बड़ा ही मूल प्रश्न है, सबको दिखता भी है, कि जहाँ एक ओर बुरे लोग आनन्द में रहते हैं अच्छे लोगों को सारी कठिनाईयाँ झेलनी पड़ती हैं। तिकड़मियों का गुणवानों की तुलना में विश्व पर अधिक अधिकार है, अनुपात से बहुत अधिक। ऐसा नहीं कि यह स्थिति आज ही उत्पन्न हो गयी, महाभारत के समय भी दुर्योधन और शकुनि अपनी धूर्तता से सारे राज्य पर अधिकार किये बैठे थे। अच्छों के किये कार्यों का फल जब निठल्ले उठाते हैं तो कोफ्त होना स्वाभाविक है। अच्छे लोगों का व्यवस्था से विश्वास संभवतः यही देख कर डगमगाता होगा, उनकी तटस्थता का यही एकमेव कारण होगा।

कई वर्ष पहले 'ऐन रैण्ड' नामक लेखिका की बहुचर्चित पुस्तक पढ़ी थी, 'द एटलस श्रग्ड'। उसकी भी मूल की अवधारणा में यही बात थी कि किस तरह अच्छे कर्मों के फल को असहाय रिसने से रोका जा सके, किस तरह एक अलग विश्व बनाया जा सके जिसमें अच्छे लोगों को अपने श्रम और बुद्धि के अनुसार मान मिल सके, सुविधायें मिल सकें, धन मिल सके। मानवता और समाज के नाम पर लगा ब्याज अच्छे लोगों से उनका मूल भी छीन लेता है, कठिनाई में जीते हैं अच्छे लोग। वहीं बुरे लोग संसाधनों के बँटवारे में सदा विजयी होते हैं।


कैसे भला क्रोध न आये
कहने को तो अन्ततः महाभारत में भी पाण्डवों की विजय हुयी, धर्म की विजय हुयी, सत्यमेव जयते। पर क्या वह सत्य जीत पाता यदि कृष्ण पाण्डवों का साथ न देते? क्या युधिष्ठिर की नीतिप्रियता और धर्मनिष्ठता अपने आप में पर्याप्त थी, महाभारत का युद्ध जीतने के लिये? संभवतः नहीं, कौरवों को जिताने के लिये भीष्म स्वयं ही पर्याप्त थे, यदि वह एक या दो दिन और जीवित रहते। कृष्ण ने युद्ध जीतने को जिन उपायों का सहारा लिया, उसे धर्मयुद्ध से अधिक छलयुद्ध की संज्ञा दी जा सकती है। भीष्म, द्रोण, कर्ण और अन्ततः दुर्योधन, सबका अन्त छल से ही किया गया।

अच्छाई धारण करने के लिये अत्यधिक सहन शक्ति चाहिये, जो अच्छे लोगों में होती भी है, युधिष्ठिर में थी। जब यही सहनशक्ति अन्याय सहन करने में लगायी जाती है, तो अच्छाई की मात्रा हर ओर से सिकुड़ने लगती है, बुराई अनियन्त्रित सी फैल जाती है, दुर्योधन की तरह। कोई कृष्ण तब बताता है कि क्या किया जाये और कैसे किया जाये, जिससे अच्छाई बची रहे।

सत्य अपने आप अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रहता है, कोई सत्यमेव जयते का उद्घोष करने वाला होना चाहिये। तभी वह बचा रहता है और अन्ततः जीतता भी है। अच्छाई की कठिनाईयों को समझने के लिये महाभारत की समझ हो और साथ ही हो समझ कृष्ण-प्रदत्त-हल की जिसके कारण सत्य टिक सका। जीवन भी किसी महाभारत से कम नहीं है, पर यह निश्चय भी नहीं कि हर महाभारत में धर्म और सत्य की विजय ही हो।


कैसे बनूँ शायर / जेन्नी शबनम
मेरा फोटो




मैं नहीं हूँ शायर
जो शब्दों को पिरोकर 
कोई ख्वाब सजाऊँ
नज्मों और गज़लों में 
दुनिया बसाऊँ,
मुझको नहीं दिखता 
चाँद में महबूब
चाँद दीखता है यूँ 
जैसे रोटी हो गोल 
मैं नहीं हूँ शायर 
जो बस गीत रचूँ 
सारी दुनिया को भूल 
प्रियतम की बाहों को जन्नत कहूँ.

मुझको दिखती है 
जिंदगी की लाचारियाँ 
पंक्तिबद्ध खड़ी दुश्वारियाँ 
क़त्ल होती कोख की बेटियाँ
सरे आम बिक जाती 
मिट जाती 
किसी माँ की दुलारियाँ
खुद को महफूज़ रखने में नाकामयाब कलियाँ,
मुझे दिखता है 
सूखे सीने से चिपका मासूम
और भूख से कराहती उसकी माँ
वैतरणी पार कराने के लिए 
क़र्ज़ में डूबा 
किसी बेवा का बेटा
और वो भी 
जिसे आरक्षण नाम के दैत्य ने कल निगल लिया 
क्योंकि उसकी जाति उसका अभिशाप थी 
और हर्जाने में उसे अपनी जिंदगी देनी पड़ी.
कैसे सोचूँ कि जिंदगी एक दिन 
सुनहरे रथ पर चलकर 
पाएगी सपनों की मंजिल 
जहां दुःख दर्द से परे कोई संसार है,
दिखता है मुझे 
किसी बुज़ुर्ग की झुर्रियों में 
वक्त की नाराजगी का दंश 
अपने कोख-जाए से मिले दुत्कार 
और निर्भरता का अवसाद
दिखता है मुझे 
उनका अतीत और वर्तमान 
जो अक्सर मेरे वर्तमान और भविष्य में 
तब्दील हो जाता है.

मन तो मेरा भी चाहता है 
तुम्हारी तरह शायर बन जाऊं
प्रेम-गीत रचूँ और 
जिंदगी बस प्रेम ही प्रेम हो 
पर 
तुम्हीं बताओ 
कैसे लिखूँ तुम्हारी तरह शायरी 
तुमने तो प्रेम में हज़ारों नज़्में लिख डाली 
प्रेम की परकाष्ठा के गीत रच डाले 
निर्विरोध 
अपना प्रेम-संसार बसा लिया
मैं किसके लिए लिखूं प्रेम-गीत?
नहीं सहन होता 
बार बार हारना 
सपनों का टूटना 
छले जाने के बाद फिर से 
उम्मीद जगाना
डरावनी दुनिया को देखकर 
आँखें मूँद सो जाना 
और सुन्दर सपनों में खो जाना.

मेरी जिंदगी तो बस यही है कि 
लोमड़ी और गिद्धों की महफ़िल से 
बचने के उपाय ढूँढूँ 
अपने अस्तित्व के बचाव के लिए 
साम दाम दंड भेद 
अपनाते हुए 
अपनी आत्मा को मारकर 
इस शरीर को जीवित रखने के उपक्रम में
रोज रोज मरूँ,
मैं शायर नहीं 
बन पाना मुमकिन भी नहीं 
तुम ही बताओ 
कैसे बनूँ मैं शायर 
कैसे लिखूँ 
प्रेम या जिंदगी?

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