आज मिलिए निखिल आनंद गिरी से , क्या बात कही है इन्होंने - 'अगर आपको लगता है कि ब्लॉगिंग फालतू का टाइमपास है तो आप ग़लत जगह आ गए हैं...विचारों की रिटेल मार्केट में मेरी भी छोटी-सी दुकान है...यहां कुछ आउटडेटेड कविताओं का स्टॉक मिलता है जिन्हें ठोंगे में रखकर शेयर किया जा सकता है....और ज़िंदगी के कुछ होलसेल किस्से भी मिल जाएंगे....मीडिया के बड़े मॉल में नौकरी बजाता हूं...मेरी दुकान में आज, कल या परसों नकद बिल्कुल नहीं चलेगा, सब कुछ उधार लिया जा सकता है.....इस रिटेल चेन से जुड़ने के लिए memoriesalive@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं....'तो मैं तो बहुत कुछ उधार ले आया हूँ - निखिल जी से पूछा भी नहीं और उनके विचार ले आया हूँ .... बढ़ते हैं उन विचारों की तरफ =
देखना तुम...
ये बदहवासी से ठीक पहले के क्षण हैं,
मेरी पीठ पर पटके जा रहे हैं कोड़े
कि मेरी रीढ़ टूट जाए...
वो मुझे सांप बना देना चाहते हैं,
कि मैं रेंगता रहूं उम्र भर...
उनकी बजाई बीन पर...
ये बदहवासी से ठीक पहले की घड़ी है..
मेरी आंखों के आगे अंधेरा छाने वाला है...
इस एक पल को जीना चाहता हूं मैं...
करना चाहता हूं सौ तरह की बातें तुमसे...
खोलना चहता हूं मौन की मोटी गठरी..
तुम कहां हो??
मैं चीख रहा हूं ज़ोर-ज़ोर से...
शायद आवाज़ कहीं पहुंचेगी...
कोड़े खाने के फायदे हैं बहुत..
ये चीख मुझे गूंगा कर देगी देखना.....
मेरे पांवों में बांध रखी हैं,
समय ने कस कर बेड़ियां...
मैं भूलने लगा हूं
अपने बूढ़े पिता का चेहरा...
ये बदहवासी के पहले की आखिरी घड़ी है....
मां याद है मुझे,
पसीना पोंछती मां,
बेटों की डांट खाती मां...
तुम कहां हो,
तुम्हें छूना चाहता हूं एक बार..
हाथ भूल गए हैं स्पर्श का स्वाद...
मैं पीछे मुड़कर दबोच लेना चाहता हूं कोड़ा,
मगर ऐसा कर नहीं सकता..
मैं बदहवास होने लगा हूं अब...
मुझ पर और कोड़े बरसाए जाएं..
मुझे प्यास लग रही है,
मैं चखना चाहता हूं आंसू का स्वाद..
ये बदहवासी के आंसू हैं...
रोप दिए जाएं सौ करोड़ लोगों की छाती में..
कि झुकने न पाए उनकी रीढ़
बीन बजाते संपेरों के आगे...
कहां-कहां ढूंढोगे मुझे..
मैं हर सीने में हूं..
दुआ करो कि खाद-पानी मिले मेरे आंसूओ को,
याद रखना संपेरों,
मेरे आंसू उग आए
तो निर्मूल हो जाओगे तुम....
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एक उदास कविता...जैसे तुम
गांव सिर्फ खेत-खलिहान या भोलापन नहीं हैं,
गांव में एक उम्मीद भी है,
गांव में है शहर का रास्ता
और गांव में मां भी है...
शहर सिर्फ खो जाने के लिए नहीं है..
धुएं में, भीड़ में...
अपनी-अपनी खोह में...
शहर सब कुछ पा लेना है..
नौकरी, सपने, आज़ादी..
नौकरी सिर्फ वफादारी नहीं,
झूठ भी है, साज़िश भी...
उजले कागज़ पर सफेद झूठ...
और जी भरकर देह हो जाना भी..
देह बस देह नहीं है...
उम्र की मजबूरी है कहीं,
कहीं कोड़े बरसाने की लत है...
सच कहूं तो एक ज़रूरत है..
और सच, हा हा हा..
सच एक चुटकुला है....
भद्दा-सा, जो नहीं किया जाता
हर किसी से साझा...
बिल्कुल मौत की तरह,
उदास कविता की तरह....
और कविता...
...................
सिर्फ शब्दों की तह लगाना
नहीं है कविता,..
वाक्यों के बीच
छोड़ देना बहुत कुछ
होती है कविता...
जैसे तुम...
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खैर, मां तो मां है ना...
आज बहुत दिनों बाद लौटा हूँ घर,
एक बीत चुके हादसे की तरह मालूम हुआ है
कि मेरी बंद दराज की कुछ फालतू डायरियां
(ऐसा माँ कहती है, तुम्हे बुरा लगे तो कहना,
कविता से हटा दूंगा ये शब्द....)
बेच दी गयी हैं कबाडी वाले को....
मैं तलाश रहा हूँ खाली पड़ी दराज की धूल,
कुछ टुकड़े हैं कागज़ के,
जिनकी तारीख कुतर गए हैं चूहे,
कोइ नज़्म है शायद अधूरी-सी...
सांस चल रही है अब तक...
एक बोझिल-सी दोपहर में जो तुमने कहा था,
ये उसी का मजमून लगता है..
मेरे लबों पे हंसी दिखी है...
ज़ेहन में जब भी तुम आती हो,
होंठ छिपा नहीं पाते कुछ भी....
खैर, मेरे हंस भर देने से,
साँसे गिनती नज़्म के दिन नहीं फिरने वाले..
वक़्त के चूहे जो तारीखें कुतर गए हैं,
उनके गहरे निशाँ हैं मेरे सारे ज़हन पर..
क्या बतलाऊं,
जिस कागज़ की कतरन मेरे पास पड़ी है,
उस पर जो इक नज़्म है आधी...
उसमे बस इतना ही लिखा है,
"काश! कि कागज़ के इस पुल पर,
हम-तुम मिलते रोज़ शाम को...
बिना हिचक के, बिना किसी बंदिश के साथी...."
नज़्म यहीं तक लिखी हुई है,
मैं कितना भी रो लूं सर को पटक-पटक कर,
अब ना तो ये नदी बनेगी,
ना ये पुल जिस पर तुम आतीं...
माँ ने बेच दिया है अनजाने में,
तुम्हारे आंसू में लिपटा कागज़ का टुकडा...
पता है मैंने सोच रखा था,
इक दिन उस कागज़ के टुकड़े को निचोड़ कर....
तुम्हारे आंसू अपनी नदी में तैरा दूंगा,
मछली जैसे,
कश्ती जैसे,
बल खाती-सी..
खैर, माँ तो माँ ही है ना..
बहुत दिनों के बाद जो लौटा हूँ तो इतनी,
सज़ा ज़रूरी-सी लगती है...
निखिल आनंद गिरि
http://bura-bhala.blogspot.com/
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निखिल आनंद गिरि की रचनाओं के बाद आईए चलते हैं कार्यक्रम स्थल की ओर :
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निखिल आनंद गिरि की रचनाओं के बाद आईए चलते हैं कार्यक्रम स्थल की ओर :
हंसी आये तो हंसिये मगर दिल पर मत लीजिए
सबसे पहले तो हिंदी साहित्य के सभी गुणीजनों और ब्लॉगजगत के सभी साहित्यकारों से हाथ जोड़ कर और...
मेरी पहली कविता: “तुम्हारा ही हँसता चेहरा…”
एक रात छत पर अकेले बैठे हुए कुछ लाइंस दिमाग में घुमने लगी… तुंरत अपने कमरे में आया और अपनी डायरी...
हर स्त्री को इस दर्द से गुजरना पड़ता है….
शायद हर स्त्री को इस दर्द से गुजरना पड़ता है हमारे पुरुष प्रधान समाज में … उसे लड़ना पड़ता है...
मेरे दिल की बात
जो मरे कोई “नेता” तो रोते है हजारो, झुकते है “झंडे” और “सिर” भी | न होती कोई आँख नम, न पड़ता...
तर्क और तकरार…
संत कबीर के बारे में यह धारणा आम थी की उनका दाम्पत्य जीवन बहुत सुखी है और उन पति-पत्नी के बीच कभी...
कल उत्सव में अवकाश का दिन है, फिर मिलते हैं परसों यानी सोमवार को कुछ और रचनाकारों के साथ,तबतक के लिए शुभ विदा !
gahan ..bahut badhia rachnayen ...
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढि़या ...प्रस्तुति के लिये आभार ।
जवाब देंहटाएंउम्दा रचनाओं का संयोजन,प्रखर सञ्चालन और सबको सम्मानजनक स्थान देकर आप सभी ने प्रशंसनीय कार्य किया है, आप सभी का धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंनिखिल आनंद गिरी की कवितायेँ वाकई उत्कृष्ट है, कहाँ -कहाँ से मोती निकल लाते हैं आप लोग !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचनायें हैं।
जवाब देंहटाएंरचनाएँ अच्छी है, पढ़कर आनंद आ गया !
जवाब देंहटाएंनिखिल आनंद गिरी जी को इन खुबसूरत रचनाओं के लिए बधाई... विशेषतः "देखना तुम" अद्भुत विचारोत्तेजक संयोजन बन पडा है...
जवाब देंहटाएंसादर....
sabhi kavitaye...bahut hi umdaa....aabhar
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों बाद निखिल का लिखा पढ़ा ...बेहतरीन हैं यह रचनाये ,झंझोर के रख देती है ...
जवाब देंहटाएंगहन भावों को संजोये अच्छी रचनायें
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
जवाब देंहटाएंसादर,
डोरोथी.
हकीकत बयाँ करती हुई सुन्दर कविता
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