मैं समय हूँ और देख रहा हूँ ब्लॉगोत्सव की समस्त गतिविधियों को .......रवीन्द्र जी इस तरह उलझे हुए हैं कि कह गए शनिवार को ,'उपस्थित होंगे मंगलवार को' ....मैं तो मंच पर आकर बैठा हूँ . दी है आवाज़ - 'रवीन्द्र जी..., पर्दा हटाइए ' सुगबुगाहट है .... मैं आ रहा हूँ


वो दिन न रहे अपने रातें न रहीं वो .... सबके अन्दर का दर्द है यही ! अमां यार , मैं समय हूँ , पर बदले समय का ज़िम्मेदार मैं नहीं हूँ ... ये आदमी तरक्की तो कर रहा है , पर अकबका गया है , यूँ कहो - बौरा गया है .
आह ! देवदास ने कितने जतन से चिट्ठियाँ संभाल कर रखी थीं , पारो ने २ रूपये .! चिट्ठी का जमाना तो गया , और महंगाई इतनी कि पारो २ लाख भी उड़ा जाए , मुमकिन है देवदास को पहचानने से इन्कार कर जाए . अब तो न पारो न देवदास .... कहीं पारो दिख जाए आज के ज़माने में तो कोई शरतचंद्र नहीं , जो उसकी भावनाओं को लिखे .... पारो का ऐसा मखौल उड़ेगा शीला के ज़माने में कि देवदास पारो के साए से परहेज रखने लगे .
पर कुछ भी कहो ओल्ड इस ऑल्वेज गोल्ड , आँखों में जो उतरता है वह ओल्ड का ही असर होता है .... अजीत सिंह जी के एहसास पढ़ो , बहुत कुछ याद आ जायेगा -

कहाँ खो गयीं वो चिट्ठियां ......

आज एक पुराने सूटकेस में कपडे की पोटली में लिपटा एक बण्डल मिला .....खोल के देखा तो वो वो तमाम चिट्ठियां और greeting cards थे जो मैंने पिछले 20 -22 सालों में अपनी पत्नी को लिखे थे .....ये सिलसिला शादी से पहले शुरू हुआ था और तब तक चलता रहा जब तक ये कमबख्त मोबाइल फोन नहीं आ गया ......वो पोटली खोली और पढने लगा .......तब तक श्रीमती जी भी आ गयीं ......वो भी साथ में शामिल हो गयीं ....बहुत सी पुरानी यादें ताज़ा हुई ...वो तमाम घटनाएं जो भुला दी गयी थीं एक एक कर याद आने लगीं ........बहुत सी लड़ाइयाँ याद आयीं ...बहुत से गिले शिकवे .....बहुत सी मान मनौव्वल ......और कुछ नसीहतें .....और ढेर सारी प्यार मोहब्बत ......वो कागज़ को मुड़े तुड़े टुकड़े ....कुछ तो एकदम फटे हुए थे .....पर कितनी कहानियों की याद दिला गए ........कायदे से खाया पिया करो ....इस से तुम्हारे गर्भ में पल रहा हमारा बच्चा हृष्ट पुष्ट होगा ......माँ की बातों का बुरा मत माना करो ....वो दिल की बहुत साफ़ है ........उसकी बातों की टेंशन मत लिया करो ......आज फलानी फिल्म देखी मैंने .......या आज ये कुछ हुआ ऑफिस में ....या ये की कितना मिस कर रहा हूँ तुम्हे .....वो चिट्ठी जो मैंने अपनी बेटी के पैदा होने के बाद लिखी थी .......या वो कुछ छोटे छोटे नोट्स ....i am sorry वाले ......वो सब सम्हाल के रखे थे .....और मेरी बीवी ......कमबख्त....... उसे यहाँ तक याद था की ये वाली लड़ाई किस बात पर हुई थी ......जवानी के 10 -12 सालों की यादें ताज़ा हो गयीं ....पर जब से ये मोबाइल का ज़माना आया .....चिट्ठियों का ये सिलसिला बंद हो गया ......ज़रुरत भी क्या थी ....खट्ट से एक सेकंड में बात हो जाती है ....या बहुत किया तो SMS भेज दिया .......अब sms को कौन सम्हाल कर रखेगा .............और रखे भी तो कैसे .......पिछले दिनों एक गाने के बोल सुने ....आशिकी कितनी आसान हो गयी है आजकल .....और वो भी क्या ज़माना था .....communication का कोई तरीका ही नहीं था ......एह ही तरीका था, पत्र लिखो ....प्रेम पत्र ....अब लिख तो दिया ....पर पहुंचाएं कैसे .......किसी तरह पहुचाते थे ...अपने किसी छोटे भाई बहन से ...या फिर मोहल्ले के किसी बच्चे से ....बहुत हिम्मत की तो खुद पकड़ा दिया ......पर ऐसा मौका या इतना बड़ा कलेजा तो नसीब वालों को ही मिलता था .....फिर अब बेचारी लड़की की मुसीबत ...पढ़े कहाँ ...कहाँ छुपा कर रखे .....कई कई बार पढना जो होता था ...सहेली को भी दिखाना है अभी ..........और इसी बीच कभी कभार माँ या घर का कोई देख लेता था ....किताब में पड़ा मिल जाता था ........फिर बेचारी की कुटम्मस होती ........माँ चुटिया पकड़ के पिटाई करती ....उस जमाने की माएँ भी तो एकदम सोलहवीं शताब्दी की थीं ......एकदम दकियानूसी ......अब तो भैया ज़माना ही बदल गया है ........लड़के लड़कियां भी modern उनके माँ बाप भी modern ....आशिकी भी modern ......तो फिर प्यार के इज़हार का तरीका भी modern ...अब तो मुझे लगता है की शायद sms भेज के ही काम चल जाता होगा .....घंटों बातें होती हैं ......सबसे बड़ी सुविधा तो मोबाइल कम्पनियों ने दे दी है ....मुफ्त में बतियाओ रात भर ......पर इस सब के बीच चिट्ठियां ग़ुम हो गयीं ......कागज़ का वो छोटा सा टुकड़ा जो सुख देता था .......वो इस sms या email में कहाँ मिलता है ....और फिर डाकिये का इंतज़ार .......रोज़ उस से पूछना ..........भैया हमारी कोई चिट्ठी नहीं आयी आज ?????.माँ कहती थी बहुत दिनों से बेटे की चिट्ठी नहीं आयी .........और जब आती थी तो वो किसी से पढवाती थी ....फिर उससे request करती की भैया जवाब भी लिख दे .....मुझे याद है ...बचपन में हमारी एक चचेरी भाभी थी .......भैया हमारे कलकत्ता .....(अब तो कोलकाता हो गया वो भी ) में रह के कमाते थे ...सो जब उनकी चिट्ठी आती तो हम सब बच्चे बाकायदा शोर मचाते .....एक जलूस की शकल में ....पूरा ceremonially उसे ले के आते ....और फिर एक रूपये की रिश्वत ले के वो चिट्ठी उनको देते ......अब हमारी भाभी को तो ये सौदा बहुत महंगा पड़ने लग गया .....ऊपर से हमारी ताई जी ने उनकी एक आध चिट्ठी गायब कर दी ...सो भैया ने गाँव के डाकिया को चिट्ठी लिख के बाकायदा ये हिदायत दी की मेरी चिट्ठी मेरी बीवी के हाथ में ही देना ....सो वो श्रीमान जी एक दिन आ कर दरवाज़े पर डट गए ,,,और फिर भाभी जी घूँघट निकाल कर आयीं और उन्होंने दरवाज़े के पीछे से हाथ निकाल के चिट्ठी थाम ली .......अब साहब जब ये बात हमारे ताऊ जी तक पहुंची तो उन्होंने लिया डाकिये को तरिया ....माँ बहन के गालिया दी अलग से और टांग वांग तोड़ने की धमकी दी ......इकबाल मियां नाम था उस डाकिये का ...........अब भी है ...बूढा हो गया है .....अब कभी हमारे घर नहीं आता ....क्योंकि अब कोई चिट्ठी नहीं आती हमारे घर ......एक और बात याद आयी ...हमारे बड़े ताऊ जी कलकत्ता से चिट्ठी लिखते ....पोस्ट कार्ड पे ...साथ में जवाबी पोस्ट कार्ड भी भेजते .........फिर छोटे ताऊ जी उसका जवाब लिखते ...और उस छोटे से पोस्ट कार्ड पे इतना कुछ लिखते ...इतने बारीक अक्षरों में ..छोटा छोटा ........पूरी रामायण लिख देते .......हम कहते थे हे भगवान् पढने वाला कैसे पढता होगा .......लेंस लगा का पढ़ते रहे होंगे शायद .......और फिर अंतर्देशीय पत्र .....inland letters चूंकि महंगे थे थोड़े ...सो उसे अमीर लोग ही afford कर पाते थे ....सरकारें सालों तक पोस्ट कार्ड के दाम नहीं बढ़ाती थीं ....बाद में ये भी पता चला की भैया पोस्ट कार्ड में भी सरकार subsidy देती है ......बच्चे डाक टिकटें जमा करते थे .....एक दूसरे से अदला बदली करते थे .........हमारा एक दोस्त हुआ करता था .उसके कोई रिश्तेदार बाहर विदेश में रहते थे सो उसके पास विदेशी सुन्दर सुन्दर stamps होती थीं ...वो हमें इतरा के दिखाता था ........ अब हमारे पास कहाँ से आती विदेशी डाक टिकट ...सो हमने एक जुगाड़ बैठाया .......बनारस की बात है BHU के बड़े डाक खाने के एक आदमी से दोस्ती कर ली और वो हमें विदेशी पत्रों से उतार के stamps दे देता था ...पर भैया थोड़े दिन बाद उसकी complaint होने लगी ...और हमारा ये जुगाड़ ख़तम हो गया ...........एक कहानी पढ़ी थी बचपन में ......की कोई एक बूढा शिकारी अपनी बेटी की चिट्ठी के इंतज़ार में पूरी जिंदगी गुज़ार देता है .....रोज़ सुबह आ के डाक खाने के बाहर बैठ जाता है ...और जब डाक खाना खुलता है तो पोस्ट मास्टर से पूछता है .......मेरी कोई चिट्ठी आयी है क्या ...........सारा दिन वहां बैठ के इंतज़ार करता है ...और अगले दिन फिर आ जाता है .......बहुत ही मार्मिक कहानी थी .....आज के बच्चे ....मुझे तो लगता है की ये शायद मोबाइल हाथ में ले के ही पैदा होते हैं क्या .....ये बेचारे चिट्ठियों के उस रोमांच और रोमांस से वंचित रह गए ....कहाँ खो गयीं वो चिट्ठियां ......

पर रोना क्यूँ ? एक कदम प्यार का बढ़ाओ , आज भी यही विश्वास है मन में - ' हो सकता है काँटों से भी फूल की खुशबू आए - दुनिया ना माने ' ... अपने क़दमों पर भरोसा हो तो क्या असंभव है . भरोसा था तभी कोलंबस ने अमेरिका की खोज की , भरोसा था तभी हम आज़ाद हुए , भरोसा था तभी मदर टेरेसा ने इतिहास रचा .... एक भरोसा और कुछ भी असंभव नहीं ....... है ना अजीत जी ?क्या ख्याल है अकेले चने के बारे में =

.अकेला चना

My Photoकहते है की अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता पर किसी ने कहा है कि जनाब अकेला चना ही भाड़ फोड़ता है ....इतिहास गवाह है की आज तक जिसने भी भाड़ फोड़ा वो अकेला ही चला था ........ उसने कभी परवाह नहीं की कि वो अकेला है .......वो तो बस चल पड़ा.....फिर लोग जुड़ते गए ... कारवां बनता गया ......चाहे गाँधी हो ...या फिर महर्षि दयानंद या फिर और कितने ही लोग ....दरअसल हम लोग ये सोच लेते हैं की हाय मै तो अकेला हूँ मेरे अकेले के ऐसा सोचने से क्या फर्क पड़ता है.... पर नहीं मेरे भाई .....फर्क पड़ता है बहुत फर्क पड़ता है ....इसलिए , सोच......... हट के सोच .....बिंदास सोच........ और यार ... सोचने के कौन से पैसे लगते हैं ? अरे इसपे तो कोई पाबन्दी भी नहीं है ....बोलने पे तो पाबन्दी है पर भला सोचने पे कौन पाबन्दी लगा सकता है ....सोच मेरे भाई....... सोच , बिंदास सोच ..........इसपे कौन सा सर्विस टैक्स लगता है ? ........ पर एक बात तय है की जिस दिन हम सब अकेले चने सोचने लग गए .....तो याद रखना ..... वही दिन क़यामत का दिन होगा....गौर से देखा जाये तो इन सभी लोगों ने .......धर्म गुरुओं ने ....पंडित मौलानाओं ने हमेशा हमारी सोच को ही तो बांधने की कोशिश की है .....पर कुछ हम जैसे ...कमबख्त .....कुछ न कुछ नया सोचते ही रहते है.........और हिमाकत तो देखिये ..औरों को भी कह रहे है की ....सोच मेरे भाई सोच ...कुछ हट के सोच ...नया सोच .....

 तो फिर दोस्तों .......जल्दी ही फिर मिलते है ........तब तक ....सोच ........



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आईये अब आपको ले चलते हैं आज के उत्सव में प्रथम चरण में प्रसारित कार्यक्रमों की ओर , किन्तु उसके पहले मैं बता दूं कि आज हिंदी ब्लॉग जगत की  कुछ कमजोड कड़ियों को एक साथ विमर्श का मुद्दा बनाये जाने हेतु ब्लॉग प्रहरी के संचालक और परिकल्पना ब्लॉग उत्सव के तकनीकी संपादक श्री कनिष्क कश्यप ने आवाज़ उठायी है पहली बार परिकल्पना के इस सामूहिक मंच से :

लीजिये आप भी पढ़िए, गुनिए और महसूस कीजिए 



rain-fall-animation

पहली वर्षा…………



पवन एक मदमस्त आई मेघ को तब याद आई गगन का अभिमान टूटा धरा को वरदान जैसा प्यासी पड़ी कुम्हला...
hug

दर्शन कौर धनोए की कविता : इंतज़ार



इन्तजार अपने घर की – दहलीज पर बैठी – तेरा इन्तजार कर रही हूँ – निर्मोही ,अब तो आजा — ! साँझ...
meerabai

मेरा दरद न जाने कोय



मेरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरो ना कोई, गाती हुई कब मीरा पगला गयी, उसे पता ही न चला। राजघराने की एक प्रेम...
PleaseComeBack

हिंदी ब्लॉग में फरेब और बौने उद्देश्य का बोलबाला, नवजागरण होगा ?



हिंदी ब्लॉगजगत में फरेब और बौने उद्देश्य इस कदर प्रभावी हैं कि ब्लॉग पोस्ट पढते समय शर्म आती...
कहीं भी जाईयेगा मत, हम फिर उपस्थित होंगे एक अल्प विराम के बाद ....

19 comments:

  1. बहुत अच्छी सुगबुगाहट ...चिट्ठियां तो सच में कहाँ खो गयीं ..अच्छी लगी यह पोस्ट आभार

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  2. चिठ्ठियों की बात ही निराली हुआ करती थी...आज ई-मेल के युग में बच्चों और अपनी संभाल के रखी हुई पुरानी चिठ्ठियाँ पढने पर बहुत सुकून पहुंचाती हैं...

    नीरज

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  3. वक्त ने किया क्या हसीं सितम…………बस यही कहा जा सकता है।

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  4. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तु‍ति ..।

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  5. पहले चिट्ठियों के प्रति जो आसक्ति और आकर्षण देखा जाता था, वह अब यी-मेल के जमाने में लुप्त सा हो गया है !

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  6. बहुत सुन्दर और सारगर्भित प्रस्तुति के लिए आभार परिकल्पना !

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  7. प्रभात बाबू, बहुत बढ़िया चल रहा है यह उत्सव, आपके बाद यह ज़माना ढूंढेगा आपको !

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  8. आलेख पढ़कर बीते दिन याद आने लगे...
    चिट्ठियों की बात ही निराली थी, अब भी अटेची में रखी कुछ चिट्ठियां कुछ भूली बिसरी पुरानी यादें ताज़ी कर देती हैं!
    बहुत बढ़िया प्रस्तुति के लिए आभार!

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  9. मैंने चिट्ठियों का दौर बहुत ज्यादा तो नहीं देखा दीदी
    पर आज भी याद है आने भैया लोगों को रक्षाबंधन पे राखी चिट्ठी के साथ ही भेजती थी पर अब जैसे ये भी औपचारिकता सा लगता है
    जब हॉस्टल में थी तो अपने घर के दोस्तों को चिट्ठियां लिखा करती थी, मेरे वहां के मित्र मुझे पुराने ज़माने का कहते थे :),
    पर सच कहूँ उन चिट्ठियों को आज भी पढ़ती हूँ तो इस आपाधापी भरी ज़िन्दगी में दोस्ती ताज़ा हो जाती है, वो पुराने ग्रीटिंग कार्ड्स अब भी हैं मेरे पास पर अब वो एहसास शायद नहीं रहा
    शुक्रिया दीदी
    पढ़ कर यादों की खुशबू आ गयी

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  10. "चिट्ठियाँ, मानो यादों की पुरवाई
    चिट्ठियाँ करती थीं राहनुमाई
    चिट्ठियों में खुशबू गए वक़्त की
    चिट्ठियों की आज कहाँ सुनवाई"

    चिट्ठियाँ और अकेला चना दोनों ही बड़ी अच्छी हैं....
    सादर..

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  11. आपके ब्लोग पर भ्रमण सुखद रहा !
    बहुत कुछ अच्छा लगा------बधाई !
    चिट्ठिओं के जरिए संवेदनशील स्मृतियों
    को यक-ब-यक ताजा कर दियां ! ज़हन में एक युग-एक सिकुड़ता इतिहास प्रतिबिम्बित हो गया !
    जय हो !

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  12. चिट्ठियों में संजोयी यादें अब कहाँ , ना है अब डाकिये का इन्तजार ...
    समय के साथ यादों की डायरेक्टरी भी बदलती है !

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  13. बहुत सुन्दर पोस्ट ......

    वक़्त के साथ सभी कुछ बदल जाता है...

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  14. लेख पुरानी यादों में ले गया...आज भी पुरानी चिट्टियाँ पढ़ना और कभी कभी लिखना अच्छा भी लगता है..

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  15. बहुत बढ़िया लगा! शानदार प्रस्तुती!
    मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
    http://seawave-babli.blogspot.com/
    http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/

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