कभी धूप कभी छाँव ... समय का ही खेल है , ... ना व्यक्ति पूरी तरह से डरा होता है , ना पूरी तरह से भयमुक्त ! दोनों के मध्य एक चिंतन होता है , जो इश्वरिये लकीर है , जो एक मार्ग देता है . यदि तुम सुनते हो तो सदमार्ग , अनसुना करते हो कई तूफानी मार्ग होते हैं जो चक्रवात की तरह निगलते जाते हैं .... कुछ ऐसे ही भाव इन क्षणिकाओं में हैं तो ले आया हूँ मंच पर ....
1)
क्यूँ मरने से पहले मर जाना चाहते हो क्यूँ अपने होने की मुहर लगाने के लिए
सरेआम बेनकाब हुए जा रहे हो ....
तुम मुझसे आगे निकलने की धुन में
बीमार ना रहो
मैं पीछे हो जाता हूँ !
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2)
न रहीम न कबीर न रसखान
हो रहा हर शहर बियाबान
साई तो देने को बैठा है
तुम क्यूँ पोटली छुपाये जा रहे हो
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3)
कुछ कहने को आता हूँ
तो कहता चला जाता हूँ
आज एक सच कहना चाहता हूँ
मैंने चुराए हैं कुछ शब्द उस गुरु के
मैं उसकी तरह होना चाहता हूँ
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4)
बीज तो सारे असली थे
पर पौधों की रंगत अलग अलग रही !
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5)
मैं वृक्ष होना चाहता तो हूँ
पर कुल्हाड़ी का भय नहीं जाता
सिमट जाती हैं पत्तियां
कांपती शाखाओं से
घर बनाते पंछी
आश्वस्त होने से पहले
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सुमन सिन्हा
http://zindagikhwaabhai.blogspot.com/
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सुमन सिन्हा की इन क्षणिकाओं को बांचने के बाद आईए आपको ले चलते हैं हम उत्सव के बीसवें दिन के प्रथम चरण में प्रसारितकार्यक्रमों की ओर :===============================================================
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मैं वृक्ष होना चाहता तो हूँ
जवाब देंहटाएंपर कुल्हाड़ी का भय नहीं जाता
गहन भावों का समोवश इन पंक्तियों में ...बेहतरीन प्रस्तुति ।
बहुत सुन्दर क्षणिकाएँ
जवाब देंहटाएंachchhi parikalpnaa !!!
जवाब देंहटाएंआजकल ज़मीनों और कमीनों का ज़माना है
उम्दा रचनाओं का संयोजन,प्रखर सञ्चालन और सबको सम्मानजनक स्थान देकर आप सभी ने प्रशंसनीय कार्य किया है, आप सभी का धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर क्षणिकाएँ॥
जवाब देंहटाएंरचनाएँ अच्छी है, पढ़कर आनंद आ गया !
जवाब देंहटाएंउम्दा क्षणिकाएं है...
जवाब देंहटाएंमैं वृक्ष होना चाहता तो हूँ
पर कुल्हाड़ी का भय नहीं जाता...
वाह...
सादर...
हर क्षणिका अपने आप में पूर्ण
जवाब देंहटाएंअच्छी रचनाएं.....
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा पढ़कर...