कहीं भी जाईयेगा मत, हम मिलते हैं एक अल्प विराम के बाद ....!
ब्लॉग के चक्कर लगाता जा रहा हूँ और रश्मि से बच्चन जी के अंदाज में पूछता हूँ - किसे छोडूँ किसे ले चलूँ ? ( क्या भूलूँ क्या याद याद करूँ )
रश्मि कम परेशान नहीं दिखती , चुप रहने को कहती है और मेरे साथ दौड़ती जाती है.... भूख पर उसकी निगाह रुकी और ले आई उठाकर , इस सन्दर्भ से कौन है अछूता और क्यूँ रहे अछूता , कैसे हो सकता है अछूता !
बृहद सन्दर्भ लेती भूख
भूख
शब्द छोटा सा है किन्तु
ब्रम्हांड में
बृहद सन्दर्भ लिए
कोई शब्द इसके समकक्ष नहीं,
पेट के लिए
यही दो शब्द
देश चाक कर देते है,
और निकाल लेते है अंतड़ियाँ तक अपनों की ,
तुम्हारी हमसे बड़ी है क्या ?
और इस बड़ी भूख का
कोई छोटा उत्तर नहीं,
सभी उत्तर बड़े
देश ,जाति और सभ्यता नष्ट करने वाले ,
तुम्हारी हमसे सफ़ेद क्यों?
का कुंठित प्रश्न
काली कर देता है
सदियों से पोषित सभ्य संस्कृति,
और हम नहाने लगते है
कालिख से, कीचड़ से
और फेंकने लगते है इसपर-उसपर,
शरीर की निर्भीक भूख
पारदर्शी होने लगती है
और जलाने लगती है
दबे छिपे अरमानों की होली
सरे आम मंच पर,
छद्म जाग्रति के नाम पर प्रतिकार स्वरुप
यही जागरण
जला देता है
पूरा घर, परिवार, समाज
यही क्षणिक भूख
छीन लेती है ताज और तख़्त भी
नोंच लेती है चेहरे सरे आम
बिना पल भर गवाए ,
भाग कर यही भूख बदल लेती है आकार,
हो जाती है अमीबा,
कागज़ के छोटे-बड़े टुकड़े,
खनकते दुर्लभ धातु के सिक्के ,
एकत्रित होते ही
भूखे होने लगते है खुश
जानते हुए भी की
भख ज्यादा हो तो
बदल देती है
श्वास लेते शरीर का आकार
और बड़ा,और बड़ा
फट जाने की हद तक बड़ा
फूटते ही निराकार, निर्जीव शरीर का फुग्गा
नहीं रहती कोई भूख
काश !
हम भूख को सिर्फ पेट तक ही सीमित रहने देते
और भरने देते उद्दयम से
सबके पेट.
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उत्तर मिले तो बताना ?
हमने, आपने, सबने
पहन रखे है मुखौटे
तरह तरह के
कोई कनखियों से देखता है और
करता है असम्मान
और कोई दूर तक
करता है पीछा
जब तक वो उसे दिखाई देती है
सड़क पर उसपर छोड़ देता है हाथ
बिना समझे
बिना जाने
क्यों पीट रही है उसे भीड़
रिश्वत लेने वालों ने खोल रखी पाठशालाएं
संस्कारित समाज बनाने की
स्त्री को सबला बनाने के होड़ मैं
किसने कितनी
सरकारी दया डकारी
हमने कोशिश भी नहीं की जानने की
किस सास ने
लडकी जन्मने के नहीं दिए ताने
शिक्षित होकर भी
अपनी ही परछाई पर
क्यों नहीं हो पाई खुश
कहा गए शिक्षा के सारे आंकड़े
जमीन पर नहीं उतरे शायद
आसमान पर हो गए है तारे
आक्ड़ेबाजों को गिनने में आशानी हो
शायद इसीलिये
आजादी के सत्तर सालों में भी
अगर अबला कैसे हो सबला
की सिर्फ बहस हो
तो हम आज़ादी के पहले ही अच्छे थे
तब बेड़ियों में जकड़े हुए भी
कितने सच्चे थे
हमारे आसपास तो नहीं थे
कमसे कम
कोई आंकड़े
आज तो जिन्दगी ही उलझ गयी है
सिर्फ आंकड़ों मैं
कुछ सरकारी
कुछ गैर सरकारी
महगाई के कम होते आकंडे
आर्थिक देश के बढ़ते आकडे
महिलाओं के साथ अपराध के भी
कम होते आंकड़े
पिछले साल से ५० कम हुए बलात्कार
कम हो रही है
दहेज़ हत्याएं
मुस्कुराओ के कम हो रहे हैं आंकड़े
यदि मुस्कुरा न सको तो
पहन लो मुखौटा
और शामिल हो जाओ
देश की उतरोत्तर प्रगति में
खादी वालों के साथ
में उठा रहा हूँ एक प्रश्न
उत्तर मिले तो मुझे भी बताना ..
-कुश्वंश
http://mkushwansh.blogspot. com/
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उत्तर मिले तो कुश्वंश को अवश्य बताना,किन्तु पहले चलिए चलते हैं परिकल्पना ब्लॉगोत्सव के दसवें दिन के प्रथम चरण में प्रकाशित होने वाले कार्यक्रमों की ओर :
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उत्तर मिले तो कुश्वंश को अवश्य बताना,किन्तु पहले चलिए चलते हैं परिकल्पना ब्लॉगोत्सव के दसवें दिन के प्रथम चरण में प्रकाशित होने वाले कार्यक्रमों की ओर :
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बहुत ही बढि़या प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढि़या प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंमें उठा रहा हूँ एक प्रश्न
जवाब देंहटाएंउत्तर मिले तो मुझे भी बताना ..
बेहतरीन प्रस्तुति ।
कुश्वंश जी की दोनों ही कवितायेँ अच्छी लगीं.
जवाब देंहटाएंसादर
इसबार ब्लॉगोत्सव का रंग पिछले साल की तुलना में ज्यादा चढ़ा हुआ महसूस हो रहा है, रविन्द्र जी,आपका और आपकी टीम का बहुत-बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है, बधाईयाँ !
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढि़या …
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा अभिव्यक्ति!!!
जवाब देंहटाएंबहुत सशक्त रचनाएँ
जवाब देंहटाएंबहुत प्रभावशाली रचनाएँ.... दूसरी कविता के सवाल का जवाब पहली कविता में ही छिपा है - "भूख" है तो भ्रष्ट्राचार है...
जवाब देंहटाएं