आजकल चर्चा में है एक उपन्यास, नाम है ताकि बचा रहे लोकतंत्ररवीन्द्र प्रभात के इस पहले उपन्यास से गुजरते हुए .....
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वह कहता है, हिन्दू धर्मग्रन्थों से उस अध्याय को निकाल दिया जाए, जिसमें जाति की चर्चा है। - 1
ई कम्यूनिस्टवा जो न कराये। - 2
अरे हम हरिजन हैं तो क्या हुआ, हैं तो इंसान ही न। लोकतंत्र में उन्हें मनमानी करने की छूट और हमें अपने ढंग से जीने का अधिकार भी नहीं, क्यों ? समाज से घृणा..........घृणा......... कब होगा इस घृणा का अंत। - 3
उपर्युक्त उदाहरण श्री रवीन्द्र प्रभात के सद्यः प्रकाशित उपन्यास ‘ताकि बचा रहे लोकतंत्र’ का है। यह उदाहरण जहां उपन्यास की जमीन, समय के सर्वाधिक चर्चित विषयवस्तु दलित विमर्श या दलित जीवन की व्यथा-कथा को दलित एजेंडे के दृष्टिकोण (मनुवादियों की आलोचना) से प्रस्तुत करने का बेहतर सृजनात्मक संकेत है, वहीं उससे कहीं अधिक बढ़कर इन उदाहरणों के गहरे निहितार्थ भी हैं।
‘अरे हम हरिजन हैं, तो क्या हुआ, हैं तो इंसान ही न’। नायक झींगना का यह कथन उसकी व्यक्तिगत पीड़ा की अभिव्यक्ति नही बल्कि आजादी के 64 वर्षो बाद भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में उसे और उसके समाज के लोगों को सही जगह न मिल पाने का दारूण अहसास है, जो आज अपने देश और समाज से इसका जवाब मांग रहा है। यह कैसा लोकतंत्र है, जहां एक वर्ग मनमानी करें और दूसरा वर्ग आर्थिक आजादी और सामाजिक सम्मान से जीने के लिये दूसरे का मुंह ताकता रहे। सामाजिक सेवा के बदले उसे जातिय दंश की पीड़ा और घृणा का उपहार मिले। फिर उसके लिये यह कहने कि हिन्दू धर्म ग्रन्थों से उस अध्याय को निकाल दिया जाये, जिसमें जाति की चर्चा है। और बचता ही क्या है ? गनीमत यह है कि श्री रवीन्द्र प्रभात ने अम्बेडकरवादियों की तरह एक तरफा होते हुये उसे जलाने की बात नही कही। वे मध्य मार्ग के अनुगामी है। समाज के इस बदनुमा धब्बे को हमेशा-हमेशा के लिये खत्म करने का संकल्प ही झींगना को एक जुझारू संघर्षशील नायक का दर्जा दिलाता है। यह एक नायक प्रधान उपन्यास है। उसकी इस चेष्टा को मूर्त करने का कार्य ‘ई कम्यूनिस्टवा जो न कराये’। नेता जी के गले की हड्डी बन गये (झींगना) इस कथन में देखा जा सकता है। जिसमें नेताजी की व्यथा झलकती है। यद्यपि अंतिम दो पन्ने को छोड़कर पूरे उपन्यास में कहीं भी झींगना कम्यूनिस्ट बैनर तले नही दिखायी देता है। भारतीय समाज के लोकतंत्र की इसी बिडम्बना का आख्यान रचता है ‘ताकि बचा रहे लोकतंत्र’। यहीं पर श्री रवीन्द्र प्रभात अपने रचनाकार धर्म का निर्वाह करते हुये उसे एक नई दृष्टि, एक नई व्याख्या झींगना के जीवन सार के रूप में प्रकट करते हैं। ‘हम भी आन्दोलन से जुड़े है, मगर हिंसा को महत्व नही देते। हिंसा से कुछ भी हासिल नही होता है बलदेवा। हम विकास की लड़ाई लडें़गे। हम अपने समाज की सवर्णो की तरह स्वयं को भी मुख्यधारा में लायेंगे। हम सब अहिंसात्मक ढंग से स्वाभिमान की लड़ाई आपकी अगुवाई में लड़ेगे।’
इसे पूरे उपन्यास की फलश्रृति भी कहा जा सकता है और इस उपन्यास का दर्शन भी, जो माओवादी, रणवीर सेना आदि को एक नया रास्ता दिखाते हुये समाज की मुख्यधारा में लाने का आह्वान करता है। इसी जगह यह उपन्यास अपनी सार्थकता को प्रकट करते हुये समय की एक जरूरत बन जाता है। यह बात दीगर है कि यह विमर्श पूरे उपन्यास में हल्का है या गंभीर सृजनात्मक।
यहीं पर यदि हम झींगना की यह सोच जोड़ दें कि परंपरागत जीवन शैली में आमूल परिवर्तन करना होगा। उनकी आर्थिक स्थिति में समुचित सुधार करना होगा, उन्हें शिक्षित करके समाज की विकासशील धारा से जोड़ना होगा, तो यह उपन्यास दलितो द्वारा लिखे गये उपन्यासों की श्रेणी में बिना पैबन्द के शामिल हो जायेगा, जिनका नारा है शिक्षित हो, संघर्ष करो, संगठित हो और बन्धुत्व। यह सूत्र अम्बेडकर चिन्तन का सार है, जो दलित उपन्यासकारों के लिये कंठी-माला सरीका है। झींगना की वैचारिक दुनिया और जीवन के संचालन का कमोबेश यही सूत्र है। यहीं पर आकर स्वानुभूत और सहानुभूति की बहस अपनी एक नई जमीन ढूंढ सकती है।
यहां पर यह कहना निरर्थक न होगा कि झींगना को श्री रवीन्द्र प्रभात उसके दैनन्दिन जीवन के कारोबारी दुनिया के प्रामाणिक जीवन के अभाव में डोमवाघरारी का झींगना डोम का परिचय हटते ही वह किसी भी जाति और समाज का चरित्र बन सकता है। रचनात्मक स्तर पर इस कमी को नजरअंदाज नही किया जा सकता। यह एक घटना प्रधान उपन्यास है। झींगना के चरित्र का विकास घटना पर निर्भर है, किन्तु चार घटनाएं प्रमुख है, जो झींगना को झींगना बना देती है। पहली घटना -‘कोटे के हो कभी नही सुधरोगे’। की डांट से नौकरी छोड़कर पुनः मैला ढोने के पारम्परिक कार्य को अपनाया है। दूसरी घटना - मुर्दाघर की नौकरी के दौरान नाटक मंडली के मालिक चमनलाल से भेंट और नौकरी छोड़कर कलाकार बनने की चेष्टा। तीसरी घटना - बिना टिकट यात्रा के दौरान ताहिरा से भेंट और रेडियो, दूरदर्शन और नाटक मंडली का कलाकर बनकर ख्याति और पैसा अर्जित करना। चौथी घटना - इन पैसों से एक सोसाइटी बनाकर गरीबो का उद्धार करते हुये माओवादियों को अहिंसात्मक आंदोलन के रास्ते पर लाने का प्रयत्न। इसी के मध्य झींगना और ताहिरा का झीने से आवरण में छुपा एक अनकहा आदर्शवादी प्लूटोनिक प्रेम-प्रसंग अपना प्रस्तार ग्रहण करता है और अन्त में ताहिरा सुरसतिया के मरणोपरान्त उसके बेटे मुन्ना को लेकर लखनऊ लौट आती है। एक मुन्ना में एक नया भविष्य देखती है। कुल मिलाकर इसे उपन्यास की कथावस्तु भी कही जा सकती है।
कहना न होगा कि यह उपन्यास प्रारम्भ में तमाम लोकगीतों से सजी एक लोकगायक की बेहद खूबसूरत कहानी का आभास देती है। झींगना-भिखारी ठाकुर सा दिखता है, लेकिन कुछ कदम चलकर ही यह दलित कथा की डगर पकड़ लेता है। इसका बारहवां अध्याय ‘बे टिकट यात्रा’ जिसे भुक्तभोगी झींगना का बयान भी समझा जा सकता है। एक अत्यन्त रोचक कविता सा है, ड्रामेटिक अंदाज की, जो समाज और उसके वर्तमान ढंग-ढर्रे की निर्मम आलोचना प्रस्तुत कर अपने पाठकों की आंख खोल देता है। झींगना का मुख्य नारा और जीवन का ध्येय भारतीय संस्कृति की सर्वोत्कृष्ट परम्परा ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ को अपनाते हुये ‘सबको रोटी, सबको कपड़ा, सबको मिले मकान, तब हम खुलकर कह पायेंगे, ‘भारत मेरा महान’ में पर्यवसित होता है। इस तरह झींगना का संघर्ष पूरे समाज का संघर्ष बन जाता है। यह युग पुरूष का खिताब जीत लेता है। तभी उपन्यास की यह टिप्पणी ‘झींगना साहब कलाकार नही, युग प्रवर्तक पुरूष है।’ के रूप में उनके व्यक्तित्व को रूपायित करती है। भाषा के स्तर पर इसमें भोजपुरी, अवधी और खडी बोली तीनों की खिचडी है। यही कारण है कि इस उपन्यास में ‘अवधी भी भोजपुरी की बहन ही है।’ जैसी बहस तलब टिप्पणी है।
जबकि प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय परिषद् के सदस्य और प्रमुख चिन्तक श्री शकील सिद्दीकी मुद्राराक्षस जी की बातों से इत्तेफाक नहीं रखते वे कहते हैं कि"मुद्रा जी का यह कथन उचित प्रतीत नहीं होता कि दलितों को ही दलित विमर्श पर अपनी अभिव्यक्ति देनी चाहिए, क्योंकि गैर दलित के लेखन में सहानुभूति का भाव होता है,न कि स्वानुभूति का . ऐसा नहीं है सामाजिक यथार्थ सबका है, कोई भी अपने अनुभव को सामने ला सकता है, उन्हें लाना ही चाहिए . टोलसतोय संभ्रात परिवार के होते हुए भी दलितों की पीड़ा को उठाया है,यह तो लेखकीय क्षमता और सामर्थ्य पर निर्भर करता है कि कौन क्या अभिव्यक्त कर सकता है. ये तो साझी परंपरा है, राशिद जहां, कृष्ण चंदर,राजेन्द्र सिंह बेदी,हयातुल्ला अंसारी आदि अनेक उदाहरण है जिन्होंने दलित विमर्श को अपना विषय बनाया है. रविन्द्र प्रभात के उपन्यास से गुजरते हुए कहीं भी आभास नहीं होता कि यह उपन्यास गैर दलित लेखक के द्वारा लिखी गयी होगी. रवीन्द्र प्रभात को मेरी शुभकामनाएं ! " |
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श्री रवीन्द्र प्रभात के इस उपन्यास को ब्लॉग लेखकों की श्रेणी में रखकर पढ़ने से ज्यादा सुन्दर नतीजे हासिल किये जा सकते है। वहां पर यह एक ऐतिहासिक उपन्यास भी सिद्ध हो सकता है, लेकिन हिन्दी साहित्य की सुदीर्घ परम्परा में वह उच्च स्थान प्राप्त करना अभी मुश्किल लगता है। उपन्यास इन तमाम विचारणीय प्रश्नों के बाद भी पठनीय बन पड़ा है, जिसकी सराहना करनी ही होगी।
डा0 विनय दास
दशहराबाग
निकट पंचम दास कुटी
बाराबंकी।
निकट पंचम दास कुटी
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