मैं समय .... मेरा बाह्य ठहाके लगा रहा है , अंतरात्मा की बातें रहने दो . आत्मा को कौन देखता है ! मैं भी क्या करूँ इसे सुनकर तो बस हँस रहा हूँ ! इतने झूठ , इतने छल हैं चारों तरफ कि क्रोध आता है सावित्री पर , महिवाल पर ! नहीं रहा ज़माना त्याग का , बस गाओ - जब तक है जान जाने जहाँ मैं नाचूंगी/ मैं नाचूँगा .... कभी शीला बनकर , कभी दबंग बनकर ! सुना नहीं क्या ?- 'दुनिया को गोली मारो दुनिया तुम्हारी है '
लाइफ क्या है ?
छोटे छोटे पल
जिनमें हम ख़ुशी ढूंढते हैं
कभी ठोकर तो
कभी सवाल भी पाते हैं
कभी माँ की डांट पड़ती
तो कभी फ़ुल्ल ऑन मस्ती …
कभी वी हैव हंड्रेड्स ऑफ़ ऐन्सर्स
तो कभी सिर्फ प्रोब्लेम्स …
कभी लगता वी हैव दी पॉवर टू फेस दी वर्ल्ड
तो कभी बस एक हल्की सी हिचकिचाहट
इतना सोचना क्यूँ , जस्ट लेट गो …
क्यूंकि लाइफ यही तो है …
छोटे छोटे पल
जिनमें हम ख़ुशी ढूंढते हैं
कभी ठोकर तो
कभी सवाल भी पाते हैं
कभी माँ की डांट पड़ती
तो कभी फ़ुल्ल ऑन मस्ती …
कभी वी हैव हंड्रेड्स ऑफ़ ऐन्सर्स
तो कभी सिर्फ प्रोब्लेम्स …
कभी लगता वी हैव दी पॉवर टू फेस दी वर्ल्ड
तो कभी बस एक हल्की सी हिचकिचाहट
इतना सोचना क्यूँ , जस्ट लेट गो …
क्यूंकि लाइफ यही तो है …
अपराजिता कल्याणी
मेरे साथ पैसे से कोई जुआ खेलता है, कोई दान करता है, कोई दर दर की ठोकरें खिलवाता है, कोई मुंह बन्द करने के लिए पैसे से आदमी खरीदता है और कोई शांत भाव से रचना दीक्षित की तरह कहता है -
पहली तारीख
"खुश है जमाना आज पहली तारीख है
मीठा है खाना आज पहली तारीख है"
जाने क्यों मेरे जीवन में,
कोई पहली और आखिरी तारीख नहीं होती
तुम्हारा घर, तुम्हारे बच्चे तुम्हारी दुनिया
संभालती हूँ
बस शायद इसलिए
मैं भी उठाना चाहती हूँ
पहली तारीख का सुख
महीने के तीसों दिन
नहीं जानती
इसके लिए हामी भरना या न भरना
कितना मुश्किल होगा
तुम्हारे लिए
पर तुम्हारे आगे ये बात रखना
बेहद मुश्किल है मेरे लिए.
अरे तुम तो पसीने से तर बतर हो गए
डरो नहीं
मैं कोई केकई नहीं.
जो मांग लूंगी राज पाट.
और तुम भी तो
कोई दशरथ नहीं जो
दे ही डालोगे सब कुछ
मैं चाहती हूँ हर दिन
बस कुछ पल कुछ घंटों का एकांत
जहाँ बस मैं मैं और मैं रहूँ
न कोई याद, न कोई रिश्ता, न कोई चाह
ताकि छूं सकूँ, अपने आपको,
झाँकूँ अपने भीतर
महसूस करूँ अपने आपको
और सुनिश्चित करूँ कि
मैं आज भी
इस दुनिया का हिस्सा हूँ.
रचना दीक्षित
हर व्यक्ति की अपनी सोच .... कोई समय को मुट्ठी में बाँध ही लेता है, कोई आंसू पोछ नए समय का स्वागत करता है . देखिये क्या कहती हैं माहेश्वरी कनेरी जी -
“सारे दुख मेरे भाग्य में ही क्यों ? मेरे साथ् ही येसा क्यों होता है ?” यही सब नकारात्मक सोच हमारे विकास की राह में बाधा उत्पन्न करती हैं । सोच का मन से बहुत गहरा संबंध है अगर हमारा मन प्रसन्न है तो सब कुछ अच्छा लगता है , अगर मन दुखी और परेशान है तो पूरा संसार बेगाना सा लगता है ,कुछ भी अच्छा नहीं लगता है । प्रस्तुत पंक्तियों में इसी भाव को
उजागर करने की कोशिश की है ।“
हर बार परीक्षा लेती है जिन्दगी
क्यों कभी इतनी हैरान परेशान सी लगती है जिन्दगी ?
कभी तो गहन अनुभूति लिए तृप्त सी लगती है जिन्दगी
क्यों कभी मुट्ठी में रेत सी फिसलती ,दिखती है जिन्दगी ?
कभी ढलती संध्या भी, भोर की किरन सी दिखती है जिन्दगी
क्यों कभी पानी के बुलबुले सी अस्तित्वहीन लगती है जिन्दगी ?
कभी तो अल्मस्त स्वच्छन्द नदी सी गुनगुनाती है जिन्दगी
क्यों कभी बादलों के बीच सहस्त्र बूँद सी छटपटाती है जिन्दगी ?
कभी तो बसंत में खिले फूलों की ताजगी लिए महकती है जिन्दगी
क्या है सब ? क्यों करती है भ्रमित, मुझे हर बार जिन्दगी
क्यों पग पग पर, इस तरह, हर बार परीक्षा लेती है जिन्दगी…………??
मैं तो समय हूँ , समय ही रहूँगा ..... समय का सदुपयोग , दुरूपयोग तुम्हारे हाथ में है . समय जो बदला है, उसके ज़िम्मेदार तुम, समय जो छूट गया , उसके ज़िम्मेदार तुम , मैं जहाँ थम गया - यह निःसंदेह उसकी कोशिशें . अब देखो मेरी सीमा से रश्मि प्रभा जी कितनी खूबसूरत बाज़ी लगा रही हैं ....
नाटकीय ज़िन्दगी जीते जीते
हर शाख गिरवी है
कहीं से कोई अपनेपन की आंच मिले
सबकी नज़रें थमी हैं ...
झूठे ठहाके गूंजते हैं
व्यायाम जारी है
नसें खुलें
फेफड़े में शुद्ध हवा जाये
नसीहतें जारी हैं
....
कहाँ पहले खोखले ठहाकों की मंडली
किसी पार्क में बैठती थी
घड़ी देखकर ५ मिनट तक
ठहाके लगाती थी !
उन्मुक्त हँसी
कम सुविधाओं के बीच भी
जबरदस्त हुआ करती थी
माथे से टपकती पसीने की बूंदें
और हाथ से घुमाते लकड़ी के पंखें में
अनोखे सुख की बरसात होती थी
अब तो एसी की ठंडक में भी
माथा गरम रहता है
...
सिकुड़ गए हैं रिश्ते
सिकुड़ गया है वक़्त
सिकुड़ गए हैं ख्याल ....
खाना कम
तेल कम
नमक कम
घी --- तौबा तौबा
अजीब माजरा है
जितनी किफायतें
बीमारी उतनी ही अधिक है
और वो भी नई नई
....
रुको - समय फिर मौका ना दे
उससे पहले आपस में खुलकर हंसो
गरमागरम पकौड़े के साथ कहो -
ओह कितना मिस किया तुम्हें
फिर सर पर हाथ रखो , सहलाओ
यकीनन अच्छी नींद आएगी
लगाओ बाजी !!!
सही कहा , समय का मौका बेमौका - सबकुछ तुम पर है , फिर तो लगाओ न बाज़ी !!!
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अब आईये चलते हैं छठे दिन के प्रथम चरण के कार्यक्रमों की ओर जहां हमारे प्रतिभागी गण उपस्थित हैं इन रचनाओं के साथ :
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अब आईये चलते हैं छठे दिन के प्रथम चरण के कार्यक्रमों की ओर जहां हमारे प्रतिभागी गण उपस्थित हैं इन रचनाओं के साथ :
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कहीं जाईयेगा मत हम उपस्थित होंगे थोड़ी देर में दूसरे चरण के कार्यक्रमों के साथ
यकीनन सभी रचनाएं एक से बढ़कर एक हैं ..परिकल्पना की इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिये आभार ।
जवाब देंहटाएंछोटे छोटे पल
जवाब देंहटाएंजिनमें हम ख़ुशी ढूंढते हैं
कभी ठोकर तो
कभी सवाल भी पाते हैं
इन पक्तियों में अपराजिता ने बिल्कुल सच कहा है .. इस रचना के साथ आपका परिकल्पना ही नहीं ब्लॉग जगत में भी स्वागत है ... ढेर सारी शुभकामनाएं ।
बहुत कुछ कह रही हैं सभी कवितायेँ.
जवाब देंहटाएंविशेष रूप से अपराजिता जी की लेखनी से परिचय करने एवं आदरणीया रचना जी,रश्मि जी एवं माहेश्वरी जी की बेहतरीन कवितायेँ यहाँ देने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद.
सादर
ज़िंदगी को देखने का अलग अलग नजरिया ...बहुत अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंकभी लगता वी हैव दी पॉवर टू फेस दी वर्ल्ड
तो कभी बस एक हल्की सी हिचकिचाहट
बहुत खूब ...
सबकी रचनाएँ अच्छी लगीं
अपराजिता का जिंदगी को जानना , और आपकी बाजी एक दुसरे की पूरक है ...
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएँ बेहतरीन ...!
yahi to jivan hai shayad ....
जवाब देंहटाएंsabhi rachna ek se badhkar ek hai yaha ....!
बेहतरीन चर्चा,अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएँ अच्छी लगीं,बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति,आभार !
जवाब देंहटाएंढेर सारी शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएंयह उत्सव इतना व्यापक होगा मैंने सोचा भी न था , बहुत-बहुत बधाईयाँ और शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंसभी रचनायें शानदार रहीं……………इस बार तो परिकल्पना मील का पत्थर बन के रहेगा।
जवाब देंहटाएं@अपराजिता...काश सभी 'लाइफ' को ईज़ी लेते..हिन्दी की खासियत है कि विदेशी शब्दों को भी रचा बसा लेती है...
जवाब देंहटाएं@रचना और @महेश्वरीजी..आत्मचिंतन को बाध्य करती रचनाएँ
@प्रभाजी...सरल भाव से सुन्दर सन्देश मिला. :)
'परिकल्पना' की सभी प्रस्तुतियाँ बहुत सुन्दर, स्तरीय और रोचक होती हैं। मैं अब इसके सभी अंक पढ़ता हूँ और मुझे सन्तोष होता है कि 'परिकल्पना' की रचनाएं मुझे निराश नहीं करतीं।
जवाब देंहटाएंमैंने अपने सभी ब्लॉग्स में 'परिकल्पना' के लिंक दे दिए हैं।
सुभाष नीरव
सभी रचनाएं सुन्दर......
जवाब देंहटाएंरचनाकारों को बधाईयाँ....
परिकल्पना को अनन्त शुभकानाएं....
सादर....
ज़िन्दगी से जुडी हुई कवितायेँ ...मन तारो-ताज़ा हो गया ''परिकल्पना ''पर आकर ...रचना जी के भाव ..महेश्वरी जी की गहन सोच ..अपराजिता की जीवन को एक नया ..ताज़ा ..नजरिया ..देती हुई रचना ..यशवंत जी की रचना ...अन्य सभी रचनाएँ भी बहुत पसंद आयीं ...!!शुभकामनायें ..."परिकल्पना "को ....!!
जवाब देंहटाएंसभी रचनायें बहुत अच्छी हैं रचना जी की कविता पढ कर मुझे अपनी इस ब्लाग पर सब से पहले लिखी पोस्ट [कविता]जो मेरे कविता संग्रह मे भी छप चुकी है, याद आ गयी--- कुछ पँक्तियाँ---
जवाब देंहटाएंखिलते फूल सी मुस्कान है ज़िन्दगी
समझो तो बडी आसान है ज़िन्दगी
पतझड बसंतों का सिलसिला है ज़िन्दगी
कभी इनायतें तो कभी गिला है ज़िन्दगी।
धन्यवाद।