कलम, आज उनकी जय बोल -रामधारी सिंह दिनकर

जला अस्थियां बारी-बारी,
चटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर,
लिए बिना गर्दन का मोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।

जो अगणित लघु दीप हमारे,
तूफ़ानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन,
मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।

पीकर जिनकी लाल शिखाएं,
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी,
धरती रही अभी तक डोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।

अंधा चकाचौंध का मारा,
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के,
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल।
कलम, आज उनकी जय बोल। ............................................

………………………  कलम की ताकत से कौन इंकार करेगा, कर ही नहीं सकता  … तो कलम की पूजा सबको करनी चाहिए  . किसी ईश्वर का  देकर हम 'वसुधैव कुटुंबकम' की भावना के आगे प्रश्न कैसे लगा सकते हैं ! व्यापार हो,सरकारी-प्राइवेट सेवा हो,मन की अभिव्यक्ति हो,भावनाओं का आदान-प्रदान हो - कलम ही महत्व्पूर्ण होती है  . 
तो आज चित्रगुप्त पूजा है,यानि कलम की पूजा - 
चित्रगुप्त जी के हाथों में कर्म की किताब, कलम, दवात और करवाल है। ये कुशल लेखक हैं और इनकी लेखनी से जीवों को उनके कर्मों के अनुसार न्याय मिलती है - तो हमसब अपनी अपनी कलम की धार को पैनी करें आराधना के सिंहासन पर रखके !
कलम न होती तो साहित्य-उत्सव कहाँ सम्भव था - तो कलम आज उनकी जय बोल,जो शब्द शब्द प्रेम,रिश्ते,एहसासों की माला पिरोते हैं तुमसे !!!
स्व. सरस्वती प्रसाद के शब्दों में 
"सुन्दरता" एक ऐसा चित्र है , जिसे तुम आँख बंद करने के बाद भी देख लेते हो और कान बंद करने के बाद भी सुन लेते हो...ठीक उसी तरह कल्पनाओं की धरती अपनी हो जाती है, जब हमारे हाथ मे कलम हो तो...

इंसानों की भीड़ के झुण्ड में
कुछ अलग सी  पहचान लिए
होंठ कुछ अधिक लालिमा लिए
चेहरे पर पुता हुआ एक्स्ट्रा मेकअप
नजरों के इशारे .......................
काजल से अधिक चमक कर बातें कर रहे थे
अजब अंदाज़ से हिलते हाथ पांव और उसके खड़े होने का अंदाज़
जैसे किसी कला की नुमाइश करता लग रहा था (मज़बूरी से भरा था )
खिलखिला के हँसना बेमतलब था ( पर लग नहीं रहा था )
कोने के दबा कर कभी होंठ कभी नखरा दिखा कर (किसी रंगमंच सी कठपुतली सा था )
बहुत कोशिश थी उन उदासी .उन चिंताओं को भुलाने की
जो घर से चलते  वक़्त बीमार बच्चे के पीलेपन में दबा आई थी
सिमटे हुए बालों में गजरा लगा कर 
समेट  ली थी उसने शायद अपनी सभी चिंताएं ( क्यों कि यह अभी कारोबार का वक़्त था )
 वो बाजार में थी अपने जिस्म  का सौदा करने के लिए 
पर ....क्या वो इतनी ही अलग थी ?
उसके हंसने मुस्कराने की जिद
ठीक उसी एक ब्याहता या आम औरत सी ही तो थी ....
जो किसी भी हालत में जानती थी
यही अदा यही जलवे उस "आदम भूख "पर भारी होंगे
जो उसके बच्चो की आँखों  में सुबह दिखी थी .............रंजू भाटिया


अभी कुछ दिन पहले  नलिनी जमीला की किताब "एक सेक्स वर्कर की आत्मकथा" पढ़ कर यही भाव दिल से निकले।   हाल ही में हिन्दी में प्रकाशित  'एक ही पुस्तक है नलिनी जमीला की और यह है उनकी अपनी कहानी, उन्हीं की जुबानी। पुस्तक के रूप में मलयालम में यह पहली बार प्रकाशित हुई, और सौ दिन के अन्दर ही इसके छह संस्करण प्रकाशित हो गए। अब तक अंग्रेजी और अन्य कई भाषाओं  में यह प्रकाशित हो चुकी है। शायद ही कभी किसी सैक्स वर्कर ने अपने जीवन की कहानी इतने बेझिझक और बेबाक तरीके से कही हो। एक बेटी,पत्नी , माँ, व्यावसायिक महिला और सोशल  वर्कर और साथ में सैक्स वर्कर भी हैं और ये उनके सभी पहलु इस आत्मकथा में उभर कर आते हैं। 

यह आत्मकथा कभी रूलाती है तो कभी हँसाती है और कभी अपने दर्दनाक सच से झकझोर कर रख देती है। मज़बूरी में किया गया यह कार्य केरल में बसी सेक्स वर्कर के दर्द को बखूबी ब्यान करता है । इस तरह का कार्य कोई अपनी  मर्ज़ी से नहीं करना चाहता हालात किस तरह से इस   को करने के लिए बेबस कर   जाते हैं यह उनकी इस आत्मकथा में ब्यान हुआ है। बाद में उन्होंने इस में एक संगठन ज्वालमुखी से जुड़ कर भी   के कार्य किया  वह भी  इस में ब्यान है । दर्दनाक है सब पढना पर कुछ भाषा मे अनुवादित होने के कारण कहीं कहीं बोझिल सी भी  लगती है पर फिर भी बहुत हिम्मत चाहिए अपनी इस आत्मकथा  को  लिखने के लिए जो नलिनी जमीला ने इसको लिख कर की है

बहुत मसाला या कोई बढ़ा चढ़ा कर इसको नहीं लिखा गया जो ज़िन्दगी ने रंग दिखाए इस राह पर चलते हुए वह ही उनकी कलम से लिखे गए हैं । बचपन में पढने की इच्छा लिए हुए ही कई काम करते हुए जैसे मिटटी ढोना आदि काम करने पढ़े फिर पैसे की जरुरत  आगे उसको इस राह पर  गयी साथ ही यह हमारे समाज  के उस पहलु भी दिखाती है जो एक तरह से हिप्पोक्रेट है । अपने आप को और अपनी बच्चो को जिंदा रखने के लिए वो हर काम करने की कोशिश में रहती है पर अंत में यह उसकी जीविका का साधन बन जाता है। एक सच्चाई से लिखी गयी यह एक बेबस बेबाक आत्मकथा है जो सच के कई पहलु से रूबरू करवाती है । 


ऐसा लग आने पर भी कि शाम अँधेरे से घिरने को है वह उसके आने की प्रतीक्षा करता रहता। वहीँ प्रतीक्षा के मुहाने पर खड़ा हो प्रतीक्षा करते रहना न जाने उसने कहाँ से सीखा था। या कि शायद समय के प्रवाह के साथ बहते बहते वह स्वंय ही इसका आदी हो चुका था . 

और जब लड़की आती तो वह हमेशा उससे कहती "मैं हमेशा इंतज़ार कराती हूँ ना" और लड़का उसके इस तरह कहने पर चुप हो जाता . प्रारंभ के दिनों में लड़का उससे कहा करता कि "नहीं तो". बाद के दिनों में वह उत्तर दिए बिना ही कह देता और लड़की उसके बोले बिना ही उस उत्तर को सुन लेती।  

लड़की कभी उससे न पूछती कि उसने उस बीते हुए समय में क्या किया . जबकि वह अपने दफ़्तर में थी और वह यहाँ उस समय के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जाकर  वापस आता हुआ, उन प्रतीक्षा की सुइयों का टिकटिकाना  गिना करता . शायद उन दोनों के मध्य कई सारे ऐसे प्रश्न थे जो कभी कभी लगता की जानबूझ कर या तो किये नहीं  या उन्हें टाल दिया गया . 

लड़का हर रोज़ सोचता कि यदि किसी एक रोज़ वह उससे पूछ बैठी कि उसके आने से पहले उसने क्या क्या किया ? तो वह उसे क्या उत्तर देगा . कभी कभी उसका सारा दिन उन्हीं उत्तरों की  खोज़ में बीत जाता . और कभी कभी वह उन प्रश्नों के बारे में सोच सोच कर समय बिता देता जो कि कभी पूछे नहीं गए किन्तु पूछे जा सकते थे .

वह उसे कभी कभी बताना चाहता कि आज दोपहर भर उसने उस बगीचे में बैठे प्रेमी युगल को देखा जो सुबह से शाम  वहाँ था और उसके आने से पहले वहां से चला गया . किन्तु वह उसका चाहना भर होता क्योंकि तब उसे यह भी बताना होता कि उसके पीछे उसकी प्रतीक्षा करना आसान है या कठिन . और यही सोच कर वह उस प्रेमी युगल को अपनी स्मृतियों से क्षण भर के लिए भुला देता . किन्तु वे वहीँ रहते . एक नए दिन में उसकी प्रतीक्षा में मददगार  बनने के लिए . 

और कभी कभी वह सोचता कि यदि वह उसे बताएगा कि सिनेमा के पोस्टरों को देखना उसका शौक है तो क्या वह उसके शौक पर हँसेगी या कहीं ऐसा तो नहीं कहेगी कि पोस्टरों को देखना भी भला कोई शौक हो सकता है . किन्तु वह जानता था कि पोस्टरों की भी अपनी एक दुनिया है . वह कैसे बताता कि फिल्म को देखे बिना वह पोस्टरों से उन फिल्मों की कहानियाँ बनाना भी उसका अपना शौक है . वह प्रतीक्षा के क्षणों में कई कई बार ऐसा करता . और जब कभी लड़की उससे वह फिल्म देखने का प्रस्ताव रखती तो वह कोई न कोई बहाना बना कर उसे टाल देता . वह नहीं चाहता था कि उसकी सोची हुई कहानी के विपरीत कोई और कहानी निकले . और यदि वही कहानी निकली जो कि उसने सोची थी तो फिर उसे फिजूलखर्ची महसूस होती . वह ऐसी कोई फिल्म देखना चाहता था जो कि उसने देख कर भी न देखी हो .

कभी कभी वह उन प्रतीक्षा के क्षणों में इतना सुख भोगने लगता कि लड़की उसे आकर जताती कि वह आ गयी है . और तब वह अँधेरा और भी घना हो जाता। बीते हुए दिन के धब्बे कहीं कहीं उभर कर उसके सामने आ जाते .

और वह एक नए दिन की प्रतीक्षा में उस आने वाली रात को बिता देता .
(अनिल कान्त)


इन बच्चों की आंखों में
बीसवीं शताब्दी का कोढ़ है
शताब्दी का कोढ़
लावा बनकर फैल रहा है
लावा जला रहा है
रेत में उगाए हुए
आदर्शों के जंगल।

इन बच्चों के कन्धों पर
हमारा इतिहास है
इन कन्धों पर
लटके हुए हैं हमारे मुखौटे
इन्हीं मुखौटों से झांककर
हम देखते हैं इतिहास।
यह सदी करवट लेगी
आएगी इक्कीसवीं सदी 
हमारा नेता कहता है।

आने वाली सदी है
आएगी
नेता चाहे न चाहे
आएगी ज़रूर आने वाली सदी
पर मैं पूछता हूं
क्या आने वाली सदी भी
इन्हीं कन्धों पर
सवार होगी
हमारे इतिहास की तरह
और वह भी 
इन आंखों से उगलता लावा
खामोशी से
पी जाएगी।

हर कोने से कलम की आवाज़ जागृति के गीत गाती है,सोयी संवेदनाओं को जगाती है,व्यवस्था के विरोध में अपने विचार रखती है - तो आज हम कलम की जय बोलते हैं 

आज बस इतना ही, मिलती हूँ कल फिर सुबह 10 बजे परिकल्पना पर...तबतक के लिए शुभ विदा । 

8 comments:

  1. सच में
    कलम की जय हो
    हमेशा हो
    कहीं भी हो
    कुछ लिख रही हो
    कलम की जय हो !

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  2. कलम यहाँ तक ले आया
    रश्क कलम से हो आया

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  3. जो अगणित लघु दीप हमारे,
    तूफ़ानों में एक किनारे,
    जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन,
    मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल।
    कलम, आज उनकी जय बोल।
    कलम की जय यूँ ही होती रही है होती रहेगी, अनंत काल तक ....

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  4. कलम की जय बोले जा
    नया इतिहास रचे जा
    इक आदर्श रचे जा

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