अजेय कर्ण
तुमने अपने सारे कर्तव्य निभाए
पर रखा खुद को मान्य अधिकारों से वंचित
.... सूर्य ने तुम्हें डूबने से बचाया
राधा के रूप में माँ का दान मिला
कवच तुम्हारा अंगरक्षक बना
फिर भी तुमने अपमान की ज्वाला में
खुद को समाहित कर डाला !
कर्ण तुम रह ना सके राधेय बनकर
सहनशीलता की अग्नि में
स्व को किया भस्म स्वाहा कहकर ...
अधिकारों से विमुख
करते रहे खुद को दान
अति सर्वत्र वर्जयेत
इससे हो गए अनजान ...
अति किसी भी बात में,क्षेत्र में हो तो खामियाज़ा भुगतना होता है
कुछ भी...कभी भी..: एक रविवार हुआ करता था ...
(अजय कुमार झा )

आप कहेंगे , लो रविवार तो अब भी होता है , अरे धत , ये तो संडे है जी संडे , संडे यानि फ़न डे और फ़न के नाम पर आज जो कुछ मैं कम से कम इस शहर की भोर दुपहरी और शाम को देखता हूं अपने आसपास वो मुझे किसी भी लिहाज़ से सांप के फ़न से कम खतरनाक नहीं लगता । खैर तो बात हो रही थी रविवार की । सप्ताह भर के बाद मिली छुट्टी और उस छुट्टी के आने का इंतज़ार , मानो सब कुछ एक कमाल का अनुभव हुआ करता था । रविवार के जाने से लेकर अगले रविवार के आने तक का कुल सिलेबस मानो यही था बस , कि बीते रविवार को दिखाई गई पिक्चर कितनी अच्छी थी , और आने वाले रविवार की तो क्या कहने ।

मुझे याद है कि उन दिनों शो थीम , स्टार ट्रैक ,विक्रम और बेताल , बेताल पच्चीसी , और सबसे अधिक सप्ताह में दिखाई जाने वाली पिक्चर हमारे मुख्य आकर्षण हुआ करते थे रविवार को मनाने के । टीवी और क्रिकेट ही क्यों , गर्मी के दिनों या उन दिनों जब घर पर ही रहने की बाध्यता होती थी तब , लूडो और कैरम की धमाधम मची होती थी , इतनी कि कभी कभी तो अलग अलग गुट बनाकर सब बैठ जाते थे खेलने के लिए और न कुछ हुआ तो अंताक्षरी ही सही । कॉमिक्स और बाल पत्रिकाओं में और नंदन , चंपक ,बालहंस , के अलावा बेताल , मेंड्रेक , चाचा चौधरी , बिल्लू , पिंकी ,लंबू मोटू , नागराज जैसे सैकडों किरदार उन दिनों बच्चों के साथी हुआ करते थे ।
कुल मिलाकर समां कुछ इस तरह बंधता था कि आसपास के सभी बच्चे इकट्ठे होकर एक साथ ही पूरा रविवार बिता दिया करते थे । मम्मीओं के लिए जहां ये दिन सप्ताह भर के छूटे छोडे कामों को पूरा करने और कुछ विशेष बनाने का होता था तो पापाओं के लिए दोस्तों के यहां जाकर जरूरी काम निपटाने का , बाज़ार से सामान राशन लाने का , या फ़िर घर के आंगन में या पीछे लगी बगीची क्यारियों की निडाई गुडाई का । और सब मज़े मज़े में अपने काम को निपटाते थे ।
उस रविवार को खोए हुए इतना समय बीत चुका है कि न तो अब उसे वापस लाया जा सकता है न ही उसे भुलाया जा सकता है । अब तो बस हम अपने बच्चों को उस रविवार के किस्से सुना सुना कर ललचाते रहते हैं । कॉमिक्स और पत्रिकाओं का स्थान ले लिया है उनके कार्टून चैनलों ने और लूडो शतरंज और कैरमबोर्ड को रिप्लेस कर दिया है वीडियो कंप्यूटर ने । हम भी कहां वो रहे हैं अब , कहां तो अपने युवापन में रविवार को सभी दोस्तों के पते ढूंढ ढूंढ कर उनके पत्रों को पढा करते थे ,उनका जवाब दिया करते थे और अब यहां बैठे कंप्यूटर पर खिटपिट कर रहे हैं उन दिनों की याद बिसूरते बैठे हैं । ऊपर से पानी की बिजली की और अब तो बारिश और मौसम की फ़िक्र अलग से ।
सनडे को फ़नडे में बदलते देख लिया अब जाने आने वाले समय में इसे रन डे (भागते दौडते दिन ) के रूप में भी परिवर्तित होते देख ही लेंगे शायद , तभी तो अक्सर ये मन गुनगुना उठता है ...
दिल ढूंढता है फ़िर वही फ़ुर्सत के रात दिन
(Hemant Richhariya)

(अपर्णा)
आज दामिनी का अंत हो गया ,
हर नारी के जीवन का अंत हुआ है,
दु:ख है ,की आज हम अकेले ,नि:सहाय से हो गए है।
हर स्त्री के मन में खौफ सा बैठ गया है।
क्यों आज हम इतने -
हिंसक ,ईर्सालु ,दुखी,कातर और छमाहीन हुए जा रहे हैं,
स्वार्थ - कर्कशताओ की आहों - कराहों के बीच रक्त-रंजित हो रहें है,
उठो-जागो
समय सर्वनाश की चेतावनी दे रहा है।
और हम इन्द्रियों के वशीभूत हुए अपाहिज की भूमिका निभा रहे है।
बहुत हो गया -
अब वर्तमान के बुझे दीपक की लौ जलाना ही होगा ।
मस्तिष्क के असीम क्षितिज को साफ करना ही होगा।
अति .....सर्वत्र वर्जयेत
परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना ही, मिलती हूँ कल फिर इसी जगह इसी समय......तबतक शुभ विदा।
उम्दा संकलन
जवाब देंहटाएंअधिकारों से विमुख
जवाब देंहटाएंकरते रहे खुद को दान
अति सर्वत्र वर्जयेत
इससे हो गए अनजान ... बिल्कुल सही कहा ....
सभी रचनाओं का चयन एवं प्रस्तुति नि:शब्द करता हुआ
संकलन मे मेरी रचना का उल्लेख अच्छा लगा
जवाब देंहटाएं