आज ब्लॉगोत्सव का चौथा दिन है, विविधताओं से भरे इस उत्सव में हम हमेशा ही नए-नए प्रयोग करते रहे हैं और उन प्रयोगों में एक अलग आनंदानुभूति प्रपट करते रहे हैं आप, आज भी कुछ ऐसा ही है-
नाम भले यूँ ही रख दो, पर नाम अपने अर्थ ढूँढ लेता है . आप नहीं मानेंगे और कहावत दुहरा देंगे कि 'आँख का अँधा नाम नयनसुख' ! पर उस अंधे की पूरी ज़िंदगी के दृष्टिगत सुख से आप अवगत नहीं होते . आँखें मन की होती हैं, और जिसने मन की आँखों से दुनिया को देख लिया, उसके नाम की सार्थकता की क्या चर्चा ! आज एक विशेष नाम 'मायामृग' से हम मिलते हैं, उनके द्वारा ही नाम की विवेचना के साथ -
मायामृग मतलब मारीच। मारीच जिसने सोने की छाल वाला हिरण बनकर पूरी रामकथा को नया मोड़ दे दिया। जिसने राम को छल लिया, सीता को मोहकर। लक्ष्मण को भ्रमित कर दिया और खुद रामबाण की आकांक्षा को पूरा करने में सफल रहा। किन्हीं अर्थों में हम सब मायामृग हैं…हमारे भीतर के मारीच की आकांक्षाएं दिखने ना पाएं, इसके लिए स्वर्णछाल ओढ़े रहते हैं। अपने इर्द-गिर्द जो आभामंडल हम बनाए रहते हैं, जरा उसे हटाकर बात करें तो…कुछ अपने मैं की कहूं, कुछ आपके मैं की सुनूं…
मेरा मानना है कि -
मैं' सबका अपना है
सूरज भी सबका एक है
मुमकिन है भाव एक से होंगे
पर एक सूक्ष्म जुगनू से एहसास अलग होंगे … उसी एहसास की नदी में तैरना परिकल्पना के माध्यम से मेरा मकसद है, जिसकी पतवार मैं आपको देना अपना कर्तव्य मानती हूँ . नहीं चाहती कि एहसास के भीगे एहसासों से आप वंचित रह जाएँ … तो आज मेरी तलाश का हिस्सा हैं मायामृग
..
गीता के आखिरी के पाठ तक
------------------------------ ---
स्मृतियाें का एक गुच्छा बचाकर रख दिया है
अंदर वाले आले में
कुछ दबा दी हैं बाहर वाली क्यारी में
गुलाब की जड़ों में और तुलसी के इर्द गिर्द नम मिट्टी में....।
टांग दिया पेड़ की सबसे निचली टहनी पर
जहां अटका था तुम्हारा हरा दुपट्टा
उस शाम पेड़ को पहले छूने की शर्त जीतकर भागते हुए....।
कुछ सूखे फूलोें के साथ रखी हैं किताबों में
जिनमें रखकर दिए और लिए जाते रहे खत
शेष स्मृतियां रख दी हैं कोठ्यार में
कनक की बोरियों के बीच.....।
स्मृतियों के साथ जीने की आदत हो गई
मैं तुम्हारी स्मृतियों के साथ मरना चाहूंगा
जाने उस वक्त कहां तक पहुंचें हाथ
तुलसी के पत्ते लाने के बहाने
लाई जा सकती होंगी...या गुलाब के फूलों में छिपकर...।
मेरे सिरहाने गेहूं की ढेरी लगाने को
निकाली ली जाएं अनजाने ही कोठ्यार से स्मृतियां भी
हल्दी का टीका लगाते हुए याद आएं वे दिन
जब हाथ पीले होने के निहितार्थ पर
देर शाम तक गूंजती रही थी तुम्हारी हंसी....।
गीता के अठारहवें अध्याय के बांचे जाने के बीच
दम तोड़ने से पहले सुने पाठ में
सुनना चाहता हूं स्मृतियों का गान
आटे का दीया बनाकर इसी आले में जलाया जाए
स्मृतियां रोशन रहेंगी जाने के बाद तक...।
आदत हो गई है तुम्हारी स्मृतियों के साथ जीने की
बचा रहा हूं कि बची रहें मेरे रहने तक
जानते हो...अकेले मरने में मुझे बहुत डर लगता है...
संबंध यात्रा में हैं...
-------------------------
न जाकर जाने का
आना किधर से और जाना किधर
गर्दन के घूमने भर से
आने और जाने का अर्थ बदल जाता रहा हर बार...।
जाने किस को किस तक आना था
किस को किस तक जाना था
समझ आने को बस इतना कि
पांव अकेले नहीं चलते रास्ता न चले तो
ठहरी दुपहरी में
ठहर जाता है पांव और सड़क का रिश्ता
ठहरे हुए रिश्ते में कितनी देर ठहर सकता है कोई.....।
यात्रा करते हैं तो थकते भी होंगे संबंध
मार्ग में चुप रहते हैं कि बतियाते हुए चलते हैं
यह जानने को जरुरी है संबंधों के बीच होना
संबंधों के बीच होना बस हो सकने जैसा है.....।
जो साथ साथ न चले
उनके भी साथ चलने का अर्थ तो होगा जरुर
तीखी धूप में जलने के दुख बराबर के होंगे
सड़क किनारे घने पेड़ के नीचे
छाया में साथ साथ बैठ सुस्ताने के सुख में
एक अनचाहा साझा भी....।
चाहे और अनचाहे सुखों में
चाहे और अनचाहे दुखों में साझेदारियां
संबंधों की देनदारियां हैं कि लेनदारियां
पता नहीं...
कुछ आता है कहीं से, कुछ जाता है कहीं को
बस गर्दन घुमाने भर से बदल जाते हैं
आने और जाने के अर्थ....।
छिपकली होने का अर्थ
--------------------------
छिपकलियों के बीच रहते
तो जान सकते
उनका चलन और तरीका
धीरे धीरे खुलते हैं उनके रहस्य
कि भींत पर अंधेरे में भी क्यों चिपकी रहती है छिपकलियां....।
दीवारों से उनका लगाव
उनके भय से अाता है कि मन से
छतों पर उलटा चिपके हुए
दिखती रहती हैं गहरी खाइयां
तल पर मुंह फाड़े बैठे दैत्य....।
ज़मीन पर नहीं दौड़ सकती छिपकलियां
रौंदे जाने का भय
तोड़ देता है गति के सारे नियम....।
चुप हैं दीवार पर चिपकी छिपकलियां
तुम उनकी उदासी को
खुशी की अनुपस्थिति की तरह मत आंको
डर में जीते हुए
ख्ाुशी में खुश हो जाने से भी भय लगता है
किसी ने आंख भर देखा तो
आंख में भर ले जाएगा सारी खुशी.....।
छिप कर जीने की कला जानती
खुशियों को छिपाती हैं छिपकलियां...।
तुम हंस सकते हो उनकी जड़मति पर
तुम रहना जानते हो छत के नीचे
और सपाट रखते हो रंगीन दीवारें
रपटन छिपकलियों का दुर्भाग्य है....।
रहने दो
तुम नहीं जान पाआेगे एक छिपकली होने का अर्थ....
bodhivriksh
mayamrig | Just another WordPress.com site
अब समय हो गया है एक अल्प विराम का, ....
मिलती हूँ एक छोटे से विराम के बाद....
मायामृग जी को पढ़ना अपने आप में एक अलग अनुभूति देता है । उनकी हर रचना जिंदगी के किसी न किसी हिस्से से जुड़ी होती है । छिपकली के माध्यम से कोई इतना गुढ़ लिखा सकता है ..नहीं सोचा था । उनके नाम के साथ उनके लेखन का बहुत अच्छा विश्लेषण किया है आपने ।
जवाब देंहटाएंमाय जी कविताएं दिल के बेहद करीब होती है . इस प्रस्तुति के लिए बधाई
जवाब देंहटाएंआभार मित्र, इस मंच पर स्थान देने के लिए---
जवाब देंहटाएंछिप गई जो कली
जवाब देंहटाएंकहलाई छिपकली
नहीं चलती वह
किसी भी गली
ठहरती है दीवार पर
दीवार सीधी हो
उल्टी हो
टेढ़ी हो
छिपकली वैसे ही
छिपती है बे गली।
आपका यह प्रयास बेहद सराहनीय है, रचनाओ का चयन और प्रस्तुति निशब्द कर देते है.
जवाब देंहटाएंवाह ।
जवाब देंहटाएं