तुमने देखी है दुनिया,
महसूस किया है प्रकृति को,
खुली हवा में ध्यान किया है,
पढ़ा है बहुतों को
लिखा भी है बहुतों को
आओ आज एक दिन के लिए हेलेन कीलर बनो
एक अँधेरे कमरे में बन्द हो जाओ
कोई सुराख न हो रौशनी की
बंद कर लो कान
जिह्वा को कैद कर दो
और पंछी के परों पर रखो हथेलियाँ
गर्मी से सूखे होठों पर
पानी की एक
बस एक बूंद रखो
………………फिर सन्नाटे को बिंधती अपनी धड़कनो के साथ
उसे सोचो … सोचते जाओ …
रश्मि प्रभा
सोचने की इस प्रक्रिया में एक कड़ी और जोड़ते हैं कृष्ण कुमार यादव की -
दिल की बात भी सुनिए, कुछ इस अंदाज़ में :
आज सुबह मेरे पास दिल का
फ़ोन आया।
कहने लगा:
बॉस,
मैं तुम्हारे लिए, बिना रुके,
चौबीस घंटे चलता हूँ।
परन्तु तुम मेरे लिए
एक घंटा भी नहीं चलते।
कबतक ऐसा चलेगा।
अगर मैं रुक गया तो तुम गए।
और अगर तुम रुके तो मैं गया।
क्यों ना ऐसा करें कि
साथ साथ चलें और साथ साथ रहें।
जीवन भर बॉस,
अभी भी वक़्त है।
कल से तुम सिर्फ एक घंटा मेरे लिए चलो।
मेरा वायदा है कि मैं बिना किसी
रूकावट के 24 घंटे चलता रहूँगा।
आज सुबह मेरे पास दिल का
फ़ोन आया।
कहने लगा:
बॉस,
मैं तुम्हारे लिए, बिना रुके,
चौबीस घंटे चलता हूँ।
परन्तु तुम मेरे लिए
एक घंटा भी नहीं चलते।
कबतक ऐसा चलेगा।
अगर मैं रुक गया तो तुम गए।
और अगर तुम रुके तो मैं गया।
क्यों ना ऐसा करें कि
साथ साथ चलें और साथ साथ रहें।
जीवन भर बॉस,
अभी भी वक़्त है।
कल से तुम सिर्फ एक घंटा मेरे लिए चलो।
मेरा वायदा है कि मैं बिना किसी
रूकावट के 24 घंटे चलता रहूँगा।
पुरस्कारों की अहमियत
डर लगने लगा है
पुरस्कारों को लेने से
अब वे योग्यता के नहीं
जोड़-तोड़ के
मानदण्ड बन गए हैं
जितनी ऊपर पहुँच
उतने बड़े पुरस्कार
हर पुरस्कार के साथ
ही जुड़ जाता है
रूठने और मनाने का खेल
जाति, धर्म, क्षेत्र
और दल के खाँचे में
बाँटने का खेल
फ़िर भी बात न बने तो
अस्वीकारने और लौटाने का खेल
समाज सेवा के नाम पर
चाटुकारिता को बँटते पुरस्कार
संस्कृति के नाम पर
नौटंकी और सेक्स को बँटते पुरस्कार
साहित्य के नाम पर
छपाऊ नामों को बँटते पुरस्कार
फिर भी समझ न आये तो
नेताओं और अभिनेताओं को
बँटते पुरस्कार
मानो पुरस्कार नहीं
रेवड़ी बँट रही हो।
157 साल बाद मिली 1857 के दफन शहीदों को 'आजादी'
1857 के गदर को गुजरे सदी बीत गई, पर गाहे-बगाहे चर्चा में बना रहता है। सोचकर कितना अजीब लगता है कि 1857 के गदर में अंग्रेजों के जुल्मों के शिकार हुए 282 भारतीय सैनिकों को 157 साल बाद 'आजादी' नसीब हो पाई है। अमृतसर के अजनाला में शहीदां वाला खूह (शहीदों का कुआं) की खुदाई में इन वीर सैनिकों की अस्थियां मिल रही हैं। इन अस्थियों को पूरे सम्मान के साथ हरिद्वार और गोइंदवाल साहिब ले जाकर विसर्जित किया जाएगा, जिससे शहीदों की आत्माओं को शांति मिल सके। कुएं की खुदाई का काम गुरुद्वारा शहीदगंज की शहीदां वाला खूह प्रबंधक कमेटी द्वारा कराया जा रहा है।
इतिहास के पन्ने पलटें तो, 30 जुलाई 1857 को मेरठ छावनी से निकली विद्रोह की चिंगारी लाहौर की मियामीर छावनी तक पहुंच गई थी। बंगाल नेटिव इन्फेंट्री की 26 रेजिमेंट के 500 सैनिकों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह कर दिया था। इसकी सूचना अंग्रेजों को मिली तो विद्रोह को दबाने के लिए अगले दिन 218 सैनिकों को अजनाला के पास रावी नदी इलाके में गोली मार दी गई। 282 सैनिकों को अमृतसर का डिप्टी कमिश्नर फैड्रिक हेनरी कूपर गिरफ्तार करके अजनाला ले गया। यहां सुबह 237 सैनिकों को गोली मारकर कुएं में फेंक दिया गया, जबकि 45 सैनिकों को जिंदा ही कुएं में दफना दिया गया। इसके बाद कुएं को मिट्टी से भर दिया गया। तब से लेकर आज तक इनकी किसी ने खैर-खबर नहीं ली। स्वतंत्रता संग्राम के ये रणबांकुरे शहीद होने के 157 साल तक 'आजादी' को तरसते रहे। आखिरकार अब जाकर शहीदां वाला खूह की खुदाई की जा रही है, जिससे इन शहीद सैनिकों की आत्माओं को शांति नसीब होगी।
कुएं को महज 8 फुट ही खोदा गया कि अस्थियों का मिलना शुरू हो गया। इस कार्य में सैकड़ों महिलाएं भी लगीं हैं। पूरा काम इस हिसाब से किया जा रहा है कि दफन शहीदों की अस्थियों को नुकसान पहुंचे। खुदाई वाले इलाके का माहौल भावुक बना हुआ है। जैसे ही कोई अस्थि मिलती है पूरा माहौल भावुक हो जाता है। यहाँ तक कि बारिश के बावजूद भी कुएं की खुदाई का काम जारी रहा, ऐसा लगा मानो प्रकृति भी इस अवसर पर ग़मगीन है। कुएं की खुदाई तब तक जारी रहेगी, जब तक अस्थियां पूरी तरह नहीं मिल जातीं। सेवकों ने कुएं से निकाली गई मिट्टी को एक जगह इकट्ठा कर लिया है। इस मिट्टी का इस्तेमाल इन शहीदों की याद में बनाए जाने वाले स्मारकों के लिए किया जाएगा। कार सेवा कर रही गुरुद्वारा शहीदगंज की शहीदां वाला खूह प्रबंधक कमिटी अब इन अस्थियों को कलश में भरकर सम्मानपूर्वक जुलूस की शक्ल में हरिद्वार और गोइंदवाल साहिब लेकर जाएगी। इसके बाद अस्थियों की जांच करवाई जाएगी। सरकार की ओर से शहीदों के संस्कार और उनकी समाधियों के निर्माण के लिए उचित जगह मिलने पर इनका अंतिम संस्कार किया जाएगा।
मौत
आज मैंने मौत को देखा!
अर्द्धविक्षिप्त अवस्था में हवस की शिकार
वो सड़क के किनारे पड़ी थी!
ठण्डक में ठिठुरते भिखारी के
फटे कपड़ों से वह झांक रही थी!
किसी के प्रेम की परिणति बनी
मासूम के साथ नदी में बह रही थी!
नई-नवेली दुल्हन को दहेज की खातिर
जलाने को तैयार थी!
साम्प्रदायिक दंगों की आग में
वह उन्मादियों का बयान थी!
चंद धातु के सिक्कों की खातिर
बिकाऊ ईमान थी!
आज मैंने मौत को देखा!
मेरी कहानी
कल ही एक मित्र का फोन आया
सुना था दिल्ली की कई साहित्यिक पत्रिकाओं में
उसकी घुसपैठ है
यार मेरी भी एक कहानी कहीं लगवा दे
वह हँस कर बोला
यह तो मेरे बायें हाथ का खेल है
मेरा दिल गदगद हुआ
ऐसे दोस्त को पाकर मैं धन्य हुआ
अगले ही दिन
अपनी एक नई कहानी
मित्र के पते पर भिजवा दी
और इंतजार करने लगा
उसके छपने का
दो-तीन माह बाद
सुबह ही सुबह
मित्र का फोन आया
पाँच सौ रूपये का मनीआर्डर
मुझे भेजा जा रहा है
और अगले अंक में
मेरी रचना
छप कर आ रही है
रोज आॅफिस से आते ही
पहले पड़ोस की
पुस्तकों की दुकान पर जाता
और पत्रिका को न पाकर
झल्लाकर वापस चला आता
आखिर
वो शुभ दिन आ ही गया
पत्रिका के पृष्ठ संख्या पैंतीस पर
मेरी कहानी का शीर्षक जगमगा रहा था
तुरन्त उसकी दो प्रतियाँ खरिद
बगल में स्थित मिष्ठान-भंडार से
ताजा मोतीचूर का लड्डू
पैक कराया और
जल्दी से घर आकर
पत्नी को गले लगाया
प्रिये! ये देखो
तुम्हारे पति की कहानी छपी है
पत्नी ने उत्सुकतावश
पत्रिका के पन्ने फड़फड़ाये और
पृष्ठ संख्या पैंतीस पर ज्यों ही हाथ रखा
मैने उसके मुँह में लड्डू डाला
कि वह बोल उठी
पहले आपका नाम तो देख लूँ
कहीं दूसरे की कहानी को तो
अपनी नहीं बता रहे
हाँ.....हाँ.....क्यों नहीं प्रिये
पर यहाँ तो दांव ही उल्टा पड़ गया
कहानी तो मेरी थी
पर छपी किसी दूसरे के नाम से थी
अब अपने दोस्त की
घुसपैठ का माजरा
कुछ-कुछ समझ में आ रहा था
सामने पड़ा पाँच सौ रुपये का मनीआॅर्डर
और मोतीचूर का लड्डू
मुझे मुँह चिढ़ा रहा था !!
कृष्ण कुमार यादव
http://www.kkyadav.blogspot.in/
सम्प्रति भारत सरकार में निदेशक. प्रशासन के साथ-साथ साहित्य, लेखन और ब्लागिंग के क्षेत्र में भी प्रवृत्त। जवाहर नवोदय विद्यालय-आज़मगढ़ एवं तत्पश्चात इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1999 में राजनीति-शास्त्र में परास्नातक. देश की प्राय: अधिकतर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं एवं इंटरनेट पर वेब पत्रिकाओं व ब्लॉग पर रचनाओं का निरंतर प्रकाशन. व्यक्तिश: 'शब्द-सृजन की ओर' और 'डाकिया डाक लाया' एवं युगल रूप में सप्तरंगी प्रेम, उत्सव के रंग और बाल-दुनिया ब्लॉग का सञ्चालन. इंटरनेट पर 'कविता कोश' में भी कविताएँ संकलित. 50 से अधिक पुस्तकों/संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित. आकाशवाणी और दूरदर्शन पर प्रसारण. कुल 7 कृतियाँ प्रकाशित -'अभिलाषा' (काव्य-संग्रह, 2005), 'अभिव्यक्तियों के बहाने' व 'अनुभूतियाँ और विमर्श'(निबंध-संग्रह, 2006 व 2007), 'India Post : 150 Glorious Years'(2006),'क्रांति-यज्ञ : 1857-1947 की गाथा', 'जंगल में क्रिकेट' (बाल-गीत संग्रह,2012)व '16 आने 16 लोग'(निबंध-संग्रह, 2014).विभिन्न सामाजिक-साहित्यिक संस्थाओं द्वारा शताधिक सम्मान और मानद उपाधियाँ प्राप्त. व्यक्तित्व-कृतित्व पर 'बाल साहित्य समीक्षा'(सं. डा. राष्ट्रबंधु, कानपुर, सितम्बर 2007) और 'गुफ्तगू' (सं. मो. इम्तियाज़ गाज़ी, इलाहाबाद, मार्च 2008 द्वारा विशेषांक जारी. व्यक्तित्व-कृतित्व पर एक पुस्तक 'बढ़ते चरण शिखर की ओर : कृष्ण कुमार यादव' (सं0- दुर्गाचरण मिश्र, 2009) प्रकाशित.
अब समय है एक छोटे से विराम का.......
रचनाओ का चयन और प्रस्तुति निशब्द कर देते है.
जवाब देंहटाएंकृष्ण कुमार यादव की कविताएँ और कहानी विशेषत: पसन्द आईं ।। अपने मित्र की कहानी
जवाब देंहटाएंदूसरे के नाम से छपवाना , फिर मित्रता का नाटक अनोखा है ।