हर नए आरंभ में साथ के साथ साथ एक दूरी यानि स्पेस ज़रूरी है। संबंधों को प्रगाढ़ होने देना चाहिए, एक 'अपना समय' सबके लिए है, बस उस समय का कोई हिंसक प्रयोजन न हो !
संगीता स्वरुप

सरस दरबारी
"मुझे इतना भी न भींचो की मेरा दम घुट जाये"
ऐसा क्यों होता है ...की दो बे तहाशा प्यार करने वाले अचानक बि ला वजह एक दूसरे से विरक्त हो ज ाते हैं....ऐसा क्यों होता है . ..की बगैर कहे एक दूसरे की मन क ी बातजान लेने वाले ....अचानक इ तने अबूझ हो जाते है की कोई सं वेदना कोई स्वर उन तक नहीं पहुँ च पाता ......ऐसा क्यों होता है की साथ जीने मरने की कसमें खा ने वाले...अचानक एक दूसरे के वज ूद से नफरत करने लगते हैं ..... ..
जब रिश्ते हमपर हावी होने लगते हैं तो वे अझेल हो जाते हैं ... ..इससे न मिलो , उससे न बोलो, स िर्फ मेरे साथ समय गुज़ारो, मुझे अपनी प्रायोरिटी में रखो, मेरी इक्षाएंपहले पूरी करो , मेरी ज़ रुरत को तवज्जो दो, जो मैं चाहू ँ , वही तुम चाहो, जो मैं कहूँ वही तुम सुनो ..... सुने हुए से लगते हैं न यह शब्द ....और ज़् यादातर यह वे शब्द हैंजो एक पति अपनी पत्नी से कहता है ...और प त्नी कभी सर झुकाकर , कभी ख़ुशी ख़ुशी उस बात का मान तब तक रखती है ...जब तक यह उसकी खुशियों के आड़े नहींआते या असहनीय नहीं हो जाते .....और तब शुरू होती एक जंग ...अपने स्पेस के लिए ..अपन ी निजता के लिए .....और इसीके स ाथ शुरू होता है , रिश्तों का ट ूटनाबिखरना....जो कभी सुखद , सं तोषप्रद थे.
इसका दोष किसके सर मढ़ा जाये ... ..उस पुरुष के, जिसने सदा स्त् री को अपना अधिकार , अपनी मिलकि यत समझा ...जिसे वह जैसे चाहे इ स्तेमाल करे ...या उस स्त्रीपर जिसने पहली बार ही ऐतराज़ नहीं क िया ..जिसने शुरू में सब कुछ ख़ु शी ख़ुशी स्वीकारा और बाद में .. ..अपना रुख बदल लिया ...
मैं समझती हूँ दोष दोनों का है . जिस दिन स्त्री को यह एहसास ह ो की यह अंकुश उसकी बर्दाश्त की सीमा लाँघ रहे हैं ..उसे उसी व क़्त अपने पति को आगाह कर देनाचा हिए, जता देना चाहिए की उसका अप ना भी कोई व्यक्तित्व है ....कु छ अपनी भी इक्षाएँ हैं जिन्हें वह सुरक्षित रखने का अधिकार रखत ी है. और पुरुष का यह समझनाऔर उ स बात का मान रखना ज़रूरी है . प र क्या वास्तव में ऐसा हो पाता है ?
औरत हमेशा देना जानती है ....सब को , अपना सब कुछ ...इस दर्जा क ी खुद रीति हो जाती है ....पति बच्चों , सास ससुर, अन्य रिश् तेदारों की सेवा में कोई कोर कस रनहीं छोड़ती पर क्या उसे किसी भ ी प्रकार की मान्यता मिलती है . .?
नहीं बल्कि फ़र्ज़ का एक और बोझ ल ाद दिया जाता है उसपर ..करती हो तो कोई एहसान नहीं करती ...यह तो तुम्हारा फ़र्ज़ है .....वह अप ने लिए जीना बंद कर देती है.... .अपने शौक भूल अपनी स्पेस से क ोम्प्रोमाईज़ कर लेती है ......औ र धीरे धीरे एक ज्वालामुखी दधकन े लगता है भीतर जिसके मुहाने पर टिके सारे रिश्ते उसकेफटने पर तितर बितर हो जाते हैं .
बस एक थोडीसी स्पेस, एक अपना नि जी दायरा ही तो चाहा था .....
स्पेस ! यह एक आम समस्या है जहा ँ हम किसी अपने पर अपना अधिकार जताते जताते इतने हावी हो जाते है की कब वह सुखद आलिंगन, एक बं धन , एक घुटन भराबाहुपाश बन जा ता है इसका अंदाज़ ही नहीं लग पा ता..
हर उम्र, एक तपके , हर किस्म का इंसान अपनी एक स्पेस चाहता है जहाँ किसीका हस्तक्षेप न हो. पर दकियानूसी सोच, असंवेदनशीलता , संवेदनहीनता, और पुरुषोंके वर ्चस्व के रहते, स्त्रियों के लि ए इस स्पेस का चाहना बिलकुल गल त समझा जाता है.
पोस्सेस्सिव होना, किसी को बेहद चाहना एक सुखद अनुभूति है पर क िसीको अपनी चाहत में इतना न भीं चो की उसका दम घुटने लगे...उसे साँस लेने दो..उसे खुलकरजीने दो . वरना स्नेह और समर्पण की जगह , वितृष्णा , छटपटाहट और छि टककर दूर जाने की चाहत, कब घर ल ेगी इसकी भनक भी नहीं लग पायेगी ...और जब तकइसका एहसास होगा .. .बहोत देर हो चुकी होगी
कुहू गुप्ता
असल में जिस स्पेस की बात हम कर रहे हैं, वो एक खाली स्पेस है हमारे अंदर। हर इंसान अपने आप में अधूरा है आज. ऐसा होना नहीं चाहिए लेकिन ये सच है. असल में हर इंसान अपने आप में पूरा होना चाहिए. यही हमारा मूल रूप है. लेकिन हम वो भूल चुके हैं और व्यक्तित्व का वो अधूरा हिस्सा हम किसी और में खोजने लग जाते हैं. शुरुवात में दूसरे का वो हिस्सा हमें खुद में बहुत अच्छा लगता है. हमें कोई तकलीफ नहीं होती उस स्पेस को बाँटने में. मगर धीरे धीरे जब हमें लगने लगता है कि अब हम उस हिस्से की वजह से पूरे हो चुके हैं, तब हमें स्पेस की बात खटकती है. लगता है कि क्यों बाँटें हम अपना वो हिस्सा किसी और के साथ? तब ये भूल जाते हैं की शुरुवात में हमने खुद ही सामने वाले को ये इजाज़त दी थी हमारे स्पेस में घुसने की.
तो आखिर ये स्पेस की दिक्कत का समाधान क्या है? समाधान ये है कि किसी भी रिश्ते में हमें बहुत ही जागरूकता से अंदर घुसना चाहिए. अगर हमें लगता है की हम किसी अधूरे व्यक्तित्व के हिस्से को पूरा करने के लिए उस रिश्ते में घुसने जा रहे हैं, यानी कि कुछ लेने के भाव से रिश्ता बना रहे हैं, तो ये गलत होगा. क्योंकि ऐसी शुरुवात से बाद में स्पेस की दिक्कत आना बहुत ही स्वाभाविक है. लेकिन अगर हम किसी रिश्ते में कुछ देने के भाव से जुड़ेंगे, तो कभी भी हमारे अंतर्मन का हिस्सा किसी और के द्धारा अतिक्रमण का पात्र बनेगा ही नहीं. क्योंकि हम अपने आप में पूरे रहेंगे और कोई खाली स्पेस रहेगा ही नहीं अतिक्रमण के लिए.
तो आज के बाद जब कभी आपको लगे कि किसी रिश्ते में आपको स्पेस की ज़रूरत लग रही है, तो शांत बैठ कर ये सोचने की कोशिश करें कि शुरुवात में क्या ये स्पेस आपने अपनी मर्ज़ी से सामने वाले को दी थी जो अब आप उससे वापिस मांग रहे हैं? अगर हाँ तो सोचिये कि आपके व्यक्तित्व का कौनसा वो हिस्सा था, जिसे आप सामने वाले के साथ से पूरा करने की कोशिश कर रहे थे. अगर वो हिस्सा समझ आ जाता है तो बहुत बड़ी उपलब्धी है क्योंकि उस पर आप आत्म उन्नती के लिए काम कर सकेंगे. उसके साथ ही साथ सामने वाले को यही बात पूरी तरह खुल कर समझाना ज़रूरी है. अगर खुल कर सही शब्दों में अपना स्पेस वापिस माँगा जाए, तो मुश्किलें बहुत कम हो जाती हैं.
देखा जाए तो अगर एक रिश्ते में दोनों ही लोग देने के भाव से आयें, तो कभी स्पेस की दिक्कत आएगी ही नहीं. मानती हूँ, ये तो बहुत ही आदर्श और काल्पनिक बात हो गयी. पर हम कोशिश तो कर सकते हैं जब भी हमें इस बात की जागरूकता महसूस हो जाए, उस पर काम कर लें और दोबारा वही गलती ना दोहरायें। रिश्ते में हमें दूसरे व्यक्ति के आचरण के ऊपर कोई पकड़ नहीं रहती, इसलिए अपनी तरफ से जितनी कोशिश की जाए, बेहतर है! है ना?
रश्मि प्रभा - निःसंदेह, हम खुद और अधिक पाने की मद में स्पेस यानी दूरी की उस रेखा को मिटा देते हैं, जो ज़रूरी है। एक संतुलन हो तो इसके लिए परेशान होने की ज़रूरत नहीं होती !
शिवम मिश्रा
इस मुद्दे पर क्या कहें ...
यहाँ का आलम तो ऐसा है कि ...
" झिर्रीयों से झाँकने का शौकीन है ज़माना ... जो मैं खोल दूँ दरवाजे तो कोई पूछने न आएगा !!"
रश्मि प्रभा - विपरीत स्थिति जीने में रहते हैं लोग, पर दरवाजा उनके लिए ही खुले,जिनके लिए हम प्रतीक्षित हैं, जो हमारे लिए हैं … झिर्रियों से झाँकनेवाले ढीढ होते हैं, सच तो ये है कि एक शांत पल वे भी चाहते हैं, जिसे स्पेस कहते हैं … कहा जाता है !
स्पेस यानी जगह। ।वह जगह जो हम चाहते हैं अपने लिए, अपने अस्तित्व के लिए और वह जगह जहाँ हम किसी की भी दखलंदाजी नहीं बर्दाश्त करते। परन्तु क्या हमें हमेशा मिलता है वह स्पेस ? क्योंकि हर स्पेस में हर वक़्त कोई न कोई तो शामिल रहता है. शायद प्रत्यक्ष रूप से हम नजरअंदाज कर लें परन्तु मानसिक रूप से हर समय ही हम बंधे होते हैं किसी न किसी से.
हमारा हर निजी दायरा टकराता है किसी और के निजी दायरे से और हम ढूंढते रहते हैं वह स्पेस - जो हमें चाहिए हमारे लिए, सिर्फ हमारे अपने लिए.
रश्मि प्रभा - स्पेस एक समय है, जो हर किसी को चाहिए होता है, अपनी सोच,अपने आराम के लिए . मशीन की तरह कोई हर वक़्त प्यार भी नहीं कर सकता - अति किसी भी बात की जानलेवा लगती है। तो अति से परे एक निजित्व एक-दूसरे को देना चाहिए
..यह स्वस्थ जीवनशैली का एक आवश्यक अंग है।अपने निजी विचार, निजी आवश्यकताएं, निजी कार्य कलाप...इत्यादि अपने तक सीमित रखना बहुत बार जरुरी हो जाता है।...इसके लिए घर का एक कमरा या कोना भी ऐसा होना जरूरी हो जाता है, जो सिर्फ आप ही का हो। यहां हर चीज सिर्फ आपकी और सिर्फ आपके लिए ही हो। किसी की इस स्थान पर दखल अंदाजी न हो।न हो कोई सवाल,न हो कोई जवाब।
यह चर्चा अभी जारी है, मिलती हूँ एक छोटे से विराम के बाद.....
बहुत रोचक प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया ।
जवाब देंहटाएंइस बेहद रोचक मुद्दे पर उतनी ही रोचक राय दी सब ने |
जवाब देंहटाएं