ख्याबो को बना कर मंजिल ...बातो से सफर तय करती हूँ ..अपनों में खुद को ढूंढती हूँ ....खुद की तलाश करती हूँ ... ..ये पंक्तियाँ हैं अंजू चौधरी की, जिनकी कुछ रचनाओं के साथ मैंने भी सफर किया है,और आपके लिए भी सफर के रास्ते लाई हूँ  … कब कहाँ किस तरह मंज़िल मिल जाए - कौन जाने !

                रश्मि प्रभा 


वफ़ा या बेवफा …..(एक कहानी …मेरी और आपकी )

वक़्त की मार से कोई ना बचा है और न बचेगा …..कब क्या हो जाये कोई कुछ नहीं बता सकता ….आज कुछ ऐसी ही एक कहानी ले कर मै आपके सामने आई हूँ …….कहानी एक ऐसी औरत की ..जिसको कोई नहीं समझा सका कि वो क्या चाहती है ..उसके दिल तक कोई नहीं पहुंचा …जो भी उसके जीवन में आया … उसे अपना तो बनाया पर उसे अपना ना सका ..उसके दिल को ना छु सका …..कहानी है …”छाया” की …
उसकी वफ़ा और बेवफाई की .…..जो वक़्त आया ,जैसा वक़्त आया वो हर हाल में जीती रही …..पर एक दिन वो भी वक़्त की मार के आगे झुक गयी ..टूट गयी .पूरी तरह से …और बेवफा का इल्जाम अपने ऊपर ले के चली गयी इस दुनिया से …हमेशा के लिए ……..|

मै ‘छाया’ को उस वक़्त से जानती हूँ जब ….उसने मेरे साथ पांचवी में दाखिला लिया था ..किस्मत से हम दोनों को मैडम ने साथ बिठा दिया …बहुत चुपचाप सी रहती थी वो हर वक़्त | खुद में खोयी हुई ..और मै ..छवि ..हर वक़्त बोलते रहने वाली ..चुलबुली सी लड़की थी ..और बहुत सारे दोस्तों में घिरे रहना मेरी आदत थी …पर छाया ठीक मेरे से उलटी ..बिलकुल चुपचाप .कटी कटी रहती | बहुत जल्दी मैं उसकी आँखे पढ़ कर उसे समझने लगी थी ….बहुत खालीपन था उसकी आँखों में ….बस अकेले रहना उसे अच्छा लगता था ..हर वक़्त क्लास की खिड़की से बाहर खुले आसमान को देखती रहती थी वो ….. कम बोलती थी ..पढने में बहुत अच्छी नहीं थो बुरी भी नहीं थी …सभी मैडम उसकी तारीफ करती थी …उसकी आँखे कोई देख लेता तो वही दो पल को रुक जाता था ..बहुत गहराई थी उसकी आँखों में ..ऐसा लगता था जैसे हल पल बोलती है उस की आँखे |सोचते सोचते … ..पता नहीं कब कौन सी दुनिया में चली जाती थी | वक़्त बीता …..हम साथ रहते रहते 11th में आ गए ….इन बीते सालो में हम सब लड़कियों में बदलाव आया …पर छाया ..कुछ ज्यादा बदली ..शरीर से भरी हो गयी ..देखने में साधारण रही ..और उसके घर में पैसे की किल्लत थी ये मैं जानती थी ..पर उसके पापा ने कभी उसे ये महसूस नहीं होने दिया ….१६ साल कि उम्र और ये खामोशी ..कभी मुझे बहुत बेचैन कर जाती थी ..मेरे आलावा वो किसी के साथ खुल के बातचीत नहीं कर पाती थी …वो कुछ अलग सी थी मेरी ”सखी” …मै उसके सबसे करीब थी अपनी हर बात वो आ कर मेरे से करती थी ..पर मै कभी उसे दिल से अपने करीब नहीं कर पाई ..क्यूंकि मेरा रहन सहन अगल था ..मेरे पापा के पास पैसा था ..कभी मुझे कुछ मांगना नहीं पड़ा ..और छाया ..मेरा मुकाबला तो नहीं कर सकती थी पर कभी उसने खुद ……मेरे से कम भी साबित नहीं होने दिया ….मै आज तक ये नहीं जान पाई कि वो उस वक़्त पैसे लाती कहाँ से थी | छाया के घर में वो तीन बहने और १ छोटा भाई था …बहनों मैं ये सब से छोटी थी ..पर लाडली नहीं …छाया नहीं कभी किसी से कुछ माँगा नहीं…. हर वक़्त अपना सब कुछ सबको दिया ही है ..चाहे वो होम वर्क की कॉपी हो या किसी को पैसे लेने हो सब छाया के पास ही जाते थे ..वो किसी को भी मना नहीं करती थी ..हर वक़्त हर किसी के काम के लिए हाज़िर …..पर मै एक दम उल्टी..किसी की कभी कोई मदद नहीं करती थी ..पर फिर भी सब मेरे पास आते थे…..क्यूंकि मै उन सुंदर लड़कियों में आती जो पैसे वाले घर से ताल्लुक रखती थी …बहुत गुमान था मुझे अपनी सुन्दरता पर |
हम दोनों का स्कूल खत्म हो गया और हमने एक साथ एक ही कालेज में प्रवेश लिया ….यहाँ आ कर मेरी जिंदगी बदल गयी ..मै ओर मस्त होती गयी और छाया पहले से भी ज्यादा अकेली ….छाया कालेज आती और उसके बाद सीधा घर चली जाती ..हम सब सहेलियाँ घूमने जाती पर वो कभी साथ नहीं होती थी …ख़ैर वो धीरे धीरे मुझे से दूर होती गयी और मै अपनी जिंदगी में ओर भी मस्त |कालेज के तीसरे साल के आखिर में ..छाया की शादी हो गयी और वो हम सब से बहुत दूर चली गयी …इतनी दूर की उसकी कोई खबर नहीं थी मुझे …..और उसकी शादी के दो साल बाद मेरी शादी भी हो गयी ….वक़्त बीता……मै अपने घर और परिवार में खो गयी ….पर आज अचानक शादी के २३ साल बाद उसका ख़त मुझे मिला …जिसको पढ़ के मै सोचने पे मजबूर हो गयी की क्या ऐसी भी जिंदगी होती है किसी की …क्या कोई मन से इतना भी भूखा हो सकता है?..तन की प्यास से बढ का मन की प्यास होती है ????…क्या प्यार भरा स्पर्श सच में जीने की राह दिखता है???
जो खत मेरे हाथ में था वो छाया का था…मै ये नहीं समझ पा रही थी की उसने मुझे ढूंढा कैसे…इन २३ सालो में कोई सम्पर्क नहीं रखा मैंने तो छाया के साथ ….मैंने खत खोला और पढना शुरू किया ………………..
”प्रिये छवि …..
आज इतने सालो बाद मेरी ये चिठ्ठी तुझे हैरान तो करेगी और सोचने को मजबूर भी …कि कभी ऐसा भी होता है इस जहान में ..कि कोई इतना प्यासा भी होगा .. मछली पानी में भी रह कर भी प्यासी होगी …..हां छवि मै प्यासी रही इस जीवन में ..कभी वो नहीं मिला जिसकी चाहत इस दिल में थी ….मेरा बच्चपन तुम जानती हो पर जवान होती छाया के अरमानो से तुम वाकिफ नहीं हो ….छवि मै भी सब लड़कियों जैसे ही सोचती थी …सोचती थी किसी का साथ हो….सच्चे दिल से मेरा साथ दे…. मुझे समझे…..पर हर बार खुद को देखते ही खुदबखुद पीछे हट जाती थी जब किसी को खुद पे हँसते देखती थी ,लोगो की नज़रो में मै मजाक का विषये थी , मेरी शक्ल पे और मोटापे पे फब्तिया कसी जाती थी …कहा जाता था ओह मोटी देखना कही बस का टायर फट ना जाये….देखो तो कैसी भद्दी लग रही है इस ड्रेस में ….ओए मोटी ज़रा..इस स्कूटर को धक्का मार दे तो स्टार्ट हो जायेगा ……. पता नहीं क्या क्या सुनती थी मै और सुनने के बाद खुद में सिमटती चली जाती थी ….जिसको दिल ही दिल में चाह वो आता और मुझ से पैसे लेके अपनी गर्लफ्रेंड को ….मेरे ही सामने उसे उसकी पसंद का सामान ला कर देता ..और मै दिल ही दिल में ओर बुझ जाती ..फिर मैंने अपने आपको सब से दूर कर लिया …. कालेज में तुम मेरे से बहुत दूर हो चुकी थी और उस वक़्त मै एक दम अकेली पड़ गयी थी …मैंने अपने आप को पढाई में डुबो दिया …कालेज का आखिरी साल और मेरी शादी हो गयी …संजोग से मुझे घर और मेरा वर दोनों अच्छे मिले ….क्या हुआ अगर ‘संजय’ मेरे से ६ साल बड़े थे तो…मै भी तो दिखने में बहुत साधाराण थी ना ..फिर भी उन्होंने मुझे पसंद किया ….शादी के बाद मेरी हर इच्छा को संजय ने अपनी इच्छा समझते हुए पूरा किया ..वो खुद तो दसवी के बाद पढ़ नहीं पाए ..पर उन्होंने मुझे मेरी पढाई पूरी करने दी …मुझे बी.एड. ..करवाया …M A..करवाया …ताकि आने वाले वक़्त से में खुद लड़ सकू …मेरा रूप रंग सब संवार दिया ..मुझे इस काबिल बना दिया कि इस दुनिया की बातो का जवाब दे सकू …|
छवि क्या कभी तुमने अपनी जिंदगी में अकेलापन देखा है……महसूस किया है कभी खुद को ….की तुम बाते करना चाहती हो …पर तुम्हे सुनने वाला कोई नहीं …सबके साथ घुल मिल के रहना पसंद है तुम्हे पर कोई साथ देने वाला कोई नहीं …….बस ये ही अकेलापन मुझे अंदर ही अंदर खाए जा रहा था ……..|

मै भी बहुत बोलना चाहती थी ..खुल के जीना था मुझे भी तुम सबके जैसे ….तुम जैसा बनाना चाहती थी खुद को ….पर घर की जिम्मेदारियों ने कभी मुझे कुछ करने नहीं दिया …बचपन क्या होता है …नहीं जानती मैं…जवानी कब आई और चली गयी ..मुझे पता ही नहीं चला …..शादी हुई और कब जिम्मेदारियों का बोझ मेरे कांधो पे डाल दिया गया …मुझे पता ही नहीं चला…..
पर एक बात इन सब मैं बहुत अच्छी हुई की मुझे मेरे पति….संजय ..बहुत अच्छे मिले ….कभी किसी बात के लिए मुझे उन्होंने रोका नहीं ..कभी फालतू टोका नहीं | मैंने जो करना चाह वो करने दिया |पर फिर भी इतनी आज़ादी के बाद भी मै अकेली थी ..बहुत अकेली ……|

जीवन में बाते कैसी होती है …..साथ साथ बैठ के एक ही थाली में खाना कैसे खाया जाता है मै नहीं जानती …….मै वक़्त के साथ बच्चे पालती रही और संजय अपना व्यापर बढाते रहे ….. संजय से दूर और दूर होते गए …कभी कभी मन की घुटन इस कद्र बढ जाती कि …….अकेले में खूब जोर जोर से रो देती ….मुझे सुनने वाला कोई नहीं होता था …..संजय के लिए वक़्त के साथ…संजय की सोच और जिन्दगी में पैसा ही सब कुछ है होता जा रहा था …….पर मेरे लिए परिवार ही सब कुछ था….रिश्तो को जीना चाहती थी ….संजय को सुनना ….और खुद बोलना चाहती थी ……उन्मुक्त आकाश में पंख फैला कर उड़ना चाहती थी …..पर ऐसा कुछ नहीं हुआ …वक़्त का इंतज़ार करते हुए …मुझे संजय के साथ २० साल हो गए …अब बच्चे बड़े हो गए…और अपनी दुनिया में मस्त …….मै ओर भी अकेली हो गयी …………|

पर यहाँ भी अकलेपन ने मेरा साथ नहीं छोडा ……संजय अपने व्यापार में बहुत व्यस्त रहते थे ….महीने के ३० दिन में से २५ दिन घर से बाहर रहते…हां ये जरुर था कि वो रात को घर आ जाते थे..पर इतने थके हुए कि बात करना तो दूर कभी कभी वो मुझे देखते भी नहीं थे …….खाना खाया ओर सो गए | बिस्तर पर भी संजय कभी मन से तैयार नहीं हुए…….उनका ये ठंडापन मुझे अंदर ही अंदर तोड़ गया…. सेक्स को भी बस एक काम है जो पूर्ण करना है ..किया ओर सो गए ….कभी ये नहीं सोचा कि ”छाया ” भी शांत हुई या नहीं …पूरी पूरी रात मै जलती रहती …..सोना तो दूर…कभी कभी तो आँखे खोले..घूमते पंखे को देखते हुई मेरी रात बीत जाती ……संजय के साथ ऐसे ही रहने कि मुझे अब आदत पड़ गयी थी………..

यहाँ से शुरू हुई मेरे बदलाव की कहानी …… मै उनके अनुरूप अपने आप को बदलती रही ….बस कंही कोई कमी थी……कंही कुछ था जो अधूरा था …कोई ऐसा एक कौना था जो अभी भी खाली था…..ऐसा अन्छुया पहलू | वक़्त अपनी रफ्फ्तार से चलता चला गया…….सोचा की संजय का काम में हाथ बँटा उसकी थोडी सहायता कर दू ..हर काम वो अकेले सँभालते है…मैंने उनके साथ फैक्ट्री जाना शुरू कर दिया ….यहाँ आ कर मेरी जिंदगी यूँ बदल जायेगी ये मैंने भी नहीं सोचा था |यहाँ आने के बाद लोगो से संपर्क बड़ा …सब कुछ अच्छा लगने लगा …यहाँ फैक्ट्री आने के बाद वक़्त कैसे बीत जाता पता ही नहीं चलता…दिन बीतने लगे ..मेरी लोगो से बातचीत और पहचान बढने लगी ….कुछ महीनो के बाद संजय मुझे यहाँ छोड़ अपना बाहर का काम करने लगे ….फैक्ट्री में मैनेजेर की पोस्ट पे काम कर रहे ”विक्रम” से मेरी अच्छी दोस्ती हो गयी ….खाली समय में हम खूब गप्पे मरते थे ..और काम के वक़्त सिर्फ काम ..उस वक़्त मै .”.मैडम” होती थी और वो विक्रम ….पर जब हम बात करते तो वो मुझे” छाया जी ” कहता और मै ”विक्की” बुलाती थी ..हम उम्र में लगभग एक से थे …सो दोस्ती और गहरी होती गयी | संजय मेरे हवाले फैक्ट्री कर अब दिल्ली के बाहर का काम सँभालने लगे जिस करके आये दिन ‘वो’ दिल्ली से बाहर रहने लगे | विक्की कब करीब आ गया मुझे पता ही नहीं चला ..उसकी कही हर एक बात को अब मै सोचती थी ….वो कहता ”.छाया जी आपकी आँखे कितनी गहरी है ..बोलती है ..सब पता चल जाता है ….जब तुम खुश होती हो ..तो बोलती है तुम्हारी ये आँखे….जब गुस्सा आता है तो भी पता चल जाता है …हंसती हो तो एक अलग ही नूर झलकता है चेहरे पर ….गोरी नहीं हो ..पर सुन्दरता की कमी नहीं …पतली नहीं ..पर देखने में भद्दी भी नहीं लगती ..अब भी तुम ४० की हो और एक बड़ी बेटी की माँ हो ..पर लगती नहीं …”..बस ऐसी ही कुछ बाते जो मै संजय से सुनना चाहती थी वो मुझे विक्की हर बार कहता था..उसकी बातो का नशा सा होने लगा था …खाली वक़्त में हर दम अपने आपको आईने के सामने निहारने लगी … | कब मै और विक्की एक दूसरे को छू कर बाते करने लगे .. …कब हमारा मजाक हद्दे पर कर गया ….कब हम एक दूसरे की निजी जिंदगी में जा घुसे पता ही नहीं चला …वो मेरे सामने अपनी पत्नी को गुस्से में डांट देता …लड़ पड़ता था …पर मै कभी उसे मना नहीं कर पायी | कुछ दिन से मैंने खुद में ये बदलाव देखा की मुझे विक्की को छुना उसके करीब रहना ..और बात बात पे उसे यार कह के बात करना अच्छा लगने लगा था ..कभी तो उसकी बाजू पकड़ लेती , कभी हाथ ,कभी उसके कंधे पे अपना सारा भार डाल देती ..और विक्की ने भी कभी एहतराज़ नहीं किया…धीरे धीरे विक्की मेरी आदत बनता जा रहा था ..जिस दिन वो फैक्ट्री नहीं आता तो मेरा सारा दिन ऐसे लगता जैसे बिलकुल बेकार गया ..उस दिन मै चिडचिडी सी घुमती रहती ….उसकी बाते मेरे दिलो दिमाग में छाने लगी …एक ऐसा कोहरा …जिस में मै खुद को आज़ाद नहीं कर पा रही थी……. मै और मेरी सोच एक अलग ही दिशा में भागे जा रही थी ….बहुत तेजी से मेरा दिल विक्की की बातो में खोता जा रहा था …हर वक़्त वो नशा बन मेरे दिमाग में छाया रहता….अजीब सी खुमारी थी| विक्की अपनी बातो से मेरे मन को जीतता गया …उस से बाते करते करते मेरी मन की कुंठा ना जाने कहाँ गायब हो गयी …खुल कर बोलना..(.कहो तो बिंदास)…सब के साथ हँस हँस के बाते करना मेरी दिनचर्या में शुमार हो गया| पहले वाली ”’छाया ” ना जाने विक्की के साथ मिलते ही कहाँ काफूर हो गयी…..मै भी नहीं जानती …ये जो नयी छाया सबके सामने थी…वो खूब बोलती थी ..सबके साथ सबकी बन के ..उसके लिए कोई मालिक नहीं कोई नौकर नहीं था ….बिंदास…जीने में विश्वास करने लगी थी ये छाया ……विक्की का रंग मेरे सर पर चड़ के बोल रहा था …हर वक़्त विक्की ही विक्की ..ओर उसकी बाते ही मुझे सुनाई पड़ती थी |वो मेरे वजूद का हिस्सा बन गया था…….|

विक्की से मिलते ही उसे किस (चुम्बन) करना अब मेरे लिए बहुत ही साधारण सी बात हो गई थी…….. वो भी कभी मुझे मेरे गाल पे, कभी मेरे माथे पे और जब बहुत प्यार आता तो मेरे होठ चूम लेता था ..मैंने कभी उसे नहीं रोका |हम जब भी साथ होते तो एक दूसरे से चिपक के चलते थे…नहीं तो हाथो को थाम के चलना हमारी आदत बन गयी थी …..अब तो ये हालत थी कि अगर वो मुझे अपने साथ सोने को भी कहता तो मै उसके साथ अपने सम्बन्ध बनाने में ज़रा भी ना झिझकती ….एक पल की देरी किये बिना सो जाती उसके साथ …मुझे लगने लगा था की वो मुझे भी उतना ही प्यार करता है जितना मै उसे करती हूँ …..विक्की मुझे अपने साथ हर उस पार्टी में लेके जाने लगा जहाँ वो अकेला जाता था ….धीरे धीरे उसके दोस्त मेरे दोस्त बनते चले गए ……| अपने जमा किये पैसो से मै विक्की और उसके दोस्तों का खर्चा उठाने लगी..पता नहीं कितना पैसा मैंने उन पे लगा दिया …और मेरे माथे पर शिकन तक नहीं आई …मुझे ऐसा लगने लगा जैसे मै जीते जी किसी जन्नत में पहुँच गयी हूँ …सब शर्मा हया …भूल बैठी थी …बच्चे घर पे मेरी राह देखते रहते और मै …विक्की के साथ बाहर पार्टी में होती थी …देर रात को आना मेरी आदत बन गयी थी ….’संजय ‘ घर होते नहीं थे .जिन से मै डरती ..और अब घर में कोई बड़ा भी नहीं था जो मुझे कुछ करने से रोकता …| पर नहीं जानती थी की जिस राह मै चल रही हूँ वहां ताबह्यी के अलावा कुछ और नहीं था …मै विक्की के हाथो का खिलौना बन गयी थी …वो मेरे शारीर से तो नहीं खेला पर मेरे पैसे और मेरी भावनायो से खूब खेला ….जब मन आता मुझे गले लगा लेता ..जब मन आता मुझे चूम लेता …कही भी मन करता तो वो मुझे छु सकता था ..ये हक़ मैंने ही उसे दिया था |पर यहाँ भी मेरी किस्मत मुझे दगा दे गई ‘छवि’…..विक्की वो नहीं था जिस रूप में वो मेरे सामने था …..इस बात का खुलासा उसकी पत्नी ने मरने से पहले मेरे सामने किया ..जिसको सुन कर में ….मै वही मर गयी ……जिंदा लाश बन गयी उस दिन से मै ……….जो मुझे विक्की का सच बताया गया वो ये था कि ….

”छवि …सम्लैगिग समझती हो ….हां वही ….जहाँ औरत औरत को और आदमी आदमी को प्यार करता है और सम्बन्ध बनता है ….विक्की भी सम्लैगिग था”……मरने से पहले उसकी पत्नी ने बताया कि .. ”मेरी शादी मेरे ही भाई ने करवाई थी कि उन के परिवार को ये ना पता चले कि वो विक्की के साथ बहुत सालो से जुडा है ..उन्होंने अपने रिश्ते को बचाने के लिए मेरी जिंदगी ..मेरी ख़ुशी …..मेरे अरमानो की आहुति दे डाली …मेरा पूरा जीवन नर्क बना डाला …..मुझे आदमी के हाथो का खिलौना बना डाला ..विक्की और मेरे भाई ने मिल के | कोई भाई भी अपनी बहन के साथ ऐसा कर सकता है कभी सोचा नहीं था मैंने.|” वो तो मर गई ….पर मै क्या …. कहती उसे कि वही हालत अब मेरी भी है …मुझे विक्की ने तो कभी इस्तेमाल तो नहीं किया ..पर दूसरो के आगे भोग की वस्तु बना के पेश कर दिया …मुझे सेक्स का चस्का लगा के खुद मुझे से दूर हो गया ..मैंने अपने शारीर के साथ साथ संजय का विश्वास और पैसा दोनों खो दिए …मै तन ,..मन और धन तीनो से लुट चुकी हूँ ..क्या बताती मै उसे अपने बारे में …खुद के नजरो से गिर ही चुकी थी मै … क्या करूँ …कहाँ जाऊं ..किसको अपनी आप बीती सुनाऊं कि आगे से कोई ऐसी गलती ना करे …मैंने तो खुद से अपने घर को आग लगा ली ..अपना जीवन तबाह कर दिया ..ऐसा रास्ता चुना जहाँ आगे तो बड़ा जाता है ..पर लौटा नहीं जा सकता |

संजय बहुत दिनों से मुझे देख रहे थे ऐसी हालत में …समझे तो बहुत कुछ होंगे…तभी तो एक दिन आ कर मुझ से बोले “छाया …मै सब जानता हूँ ..कि की तुम्हारे मन में क्या चल रहा है..और तुमने क्या किया है …देखो अब तुम्हे अपनी पत्नी तो नहीं कहूँगा ..हां तुम मेरे बच्चो की माँ हो और रहोगी ये हक़ तुम से कोई नहीं छीन सकता …बस इस छत के नीचे उनकी माँ बन के रहो….तो यहाँ रह सकती हो …….सच मानो छवि संजय की सादगी ने ….उस. ‘छाया ‘ को उसी पल मार दिया …जब संजय ने मेरा नंगा सच मेरे सामने रखा ….क्या कहती अपने बच्चो से …कोई बात…कोई ऐसा प्रश्न ही नहीं था जिसका उत्तर मेरे पास होता |फिर भी मै अपने आपको मौत के हवाले नहीं कर पाई ..डर गयी ..अगर बच गयी तो सबकी नज़रो का समाना कैसे करुँगी ..जितने लोग उतनी बाते ..मेरे बच्चे तो जीते जी मर जायेगे …अपनी माँ की ये करतूत सुन के ….अपने बच्चो के लिए मैंने संजय की बद सलूकी भी बर्दाश कर ली …….पर शायद जीना मेरी किस्मत में नहीं था….मै संजय की अच्छाई के आगे हार गई | जब तक ये चिट्ठी तुम्हे मिलेगी तब तक मै इस दुनिया में नहीं रहूंगी ….अपने घर का पता और टेलीफोन नम्बर मै तुम्हे देके जा रही हूँ………हो सके तो मेरी व्यथा को अपनी कहानी का रूप देके छपवा देना ….हो सकता है कोई मेरी जैसी औरत ..उसे पढ़ के भटकने से बच जाये ………|

मै तो अपने आप को संवार नहीं सकी …….मुझे खुद को सँभालने का मौका ही नहीं मिला ….जब तक सब कुछ समझती कि ….विक्की ने मेरे साथ ये सब छल..सिर्फ पैसो के लिए किया है ….मुझे इस्तेमाल कर उसने सिर्फ संजय की दौलत को मुझे से छिना है ……दौलत तो फिर आ जायेगी …….पर इस मन की भटकन का क्या है जिसने मुझे कभी जीवन में शांत नहीं रहने दिया …….जिसकी वजह से मेरा ये हाल हुआ है ..मैंने अपने आप से और ..अपनों से दूर हो गयी ..बेवफा ना होते हुए भी …संजय ओर बच्चे से बेवफाई कर गयी ………….
बस संजय को इतना कहे देना कि….मैंने कुछ भी जानबूझ के नहीं किया ……… ..वफ़ा या बेवफा …..जैसे भारी शब्दों से खुद को आजाद कर मै अब इस दुनिया से विदा ले रही हूँ..|”
मेरी ये बात मेरे बच्चो और संजय तक मेरी आवाज़ बन तुम पहुँचाना …मै जानती हूँ तुम्हारी बुलंद आवाज़ को वो जरुर सच मानेगे ……..|
तुम्हारी …….”छाया”

छाया की चिठ्ठी मेरे हाथो में फडफाडा रही थी …जो उम्मीद छाया ने मुझ पर दिखाई थी ..उसकी उम्मीद को मुझे अपनी आवाज़ में पूरा कर उसे न्याय दिलाना था …..मुझे विक्की जैसे लोगो से ..छाया जैसी दोस्तों को बचाना था अब…छाया की आवाज़ बन …..उसकी ऊपर लगा ‘बेवफा’ ..का दाग 
अब मुझे ही हटाना था …|

कोलाज़

जितना मैं तुम्हें सोचता हूँ
उतना ही,दीवानगी से
तुम से जुड़ता चला जाता हूँ 

जाने -अनजाने में
इस समाज के लिए
तुम्हारे अंदर के क्रोध
जिस से तुम पल-पल
लड़ती हो

अपने ही भीतर की 
अग्नि सी तपती तुम
सबके दर्द को
महसूस कर
सबसे छिपा कर
जिंदगी,जीने का गुर
जानती हो तुम

ओ! मेरी सुंदर कोलाज़
पूर्ण निरीक्षण कर
सबके अधिकारों के लिए
लड़ती हो
बन कर एक विद्रोही
दहकती हो  

तुम,बनकर ज्वालमुखी
जात-पात के अन्तर को,
भूर्ण-हत्या की विरोधी,
बेटी-बेटे को समान
समझने वाली
मेरे सप्त-रंगों की,अधिकरणी
बिना भेद-भाव
हर किसी को ,
हर रंग-रूप में  
अपनाने वाली
मेरे जीवन का अद्धभुत
कोलाज़ हो तुम |
कभी रिक्शेवाला
कभी कामवाली बाई
कभी माली
तो कभी वो गाड़ी धोने वाला,
कभी ड्राईवर, 
कभी सड़क से गुज़रता कोई
गरीब रहीगर
या कभी कोई जरूरतमंद
मेरे सामने आ कर
तुम्हारी तारीफ़ करता है 

तो, उसकी कही बातों
और तुम्हारी यादों संग
सोचता रहता हूँ तुम्हें

उनके सुख-दुःख
पीड़ा,प्यार,आभास,
उन्हें कुछ भी दे देने की लालसा
और सबसे ज्यादा
तुम्हारा यूँ ,
जिंदगी को जीने का ढंग
कि हर रात के बाद
एक नया दिन आता है
और वो भी गुजर जाता है
अपने अंधकार और प्रकाश
के साथ

और फिर भी
तुम जुटी रहती हो
अपने नए जोश को लिए 
उन सबके  साथ
जिन्हें तुम्हारी
सबसे ज्यादा जरुरत है

मुझे गर्व है कि मैं और 
मेरी यादों का कोलाज़
और तुम्हारी सबके लिए
एक सी मुस्कान 
मेरी खोजी हुई
तुम्हारी पीड़ाओं और खुशी संग
आज भी जुड़ा है
अपने जीवन के
बेहतरीन कोलाज़ के साथ ||

बुढ़ा कुआँ 

तुम संग प्रेम के रस,
खुशबू और उसकी वेदना को
मुझ से अधिक ओर कौन
जान सकता है

सुनो !
तुम्हारा एक पुराना पत्र
मुझे आज मिला
जो तुम मुझे उस 
कुएँ के पास बैठ कर लिखा करते थे 

जिसमें तुमने लिखा है.....
मुझ संग अपने ख्यालों में
ना जाने तुमने कितनी ही बातें की थी 

सुनो...
क्या वो कुआँ आज भी है?
क्या गाँव के बूढ़े दादुओं की,
उनकी ठिठोली,उनके झगड़े-बहस की  
आज भी वहाँ चौपाल सजती हैं ?

क्या आज भी गाँव के बच्चे 
उसके आस-पास गुल्ली-डंडा,
कन्चे खेलते  
और खेत से गन्ने तोड़ कर  
चूसते हुए घूमते हैं ?

क्या आज भी 
पानी भरने के बहाने
अम्मा,चाची और मौसी 
के साथ साथ 
गाँव की 
नव-यौवनाओं की हँसी गूँजती है?

क्या मसकरो की टोली 
अब भी वहाँ से 
शोर मचाती हुई निकलती है ?

क्या आज भी वो....शंभू चाचा 
सबके बाल काटते हैं  
साईकल पंचर लगाने वाला...सलीम  
और चश्मे वाला मोची काका...
अब भी वही बरगद के पेड़ की 
छाया में बैठते हैं  
क्या आज भी उनकी बहस का मुद्दा 
जात-पात और छुआ-छूत
को लेकर है |


हाँ अब तो 
बरसों बरस बीत गए 
मुझे गाँव छोड़े हुए 
और मैं आज भी 
तुम्हारे प्रेम को और 
अपनी मिट्टी की गंध को 
अपने अंदर महसूस करती हूँ |

वक्त के साथ बूढ़े होते हम  
अपनी संस्कृति और परम्पराओं की
किलकारी से अब भी भरे हुए हैं 
और प्रकाश
कहीं दूर क्षितिज पर
प्राची के लाल होने तक
हमारी आत्मा को 
अब भी ढक लेता है |

वक़्त बदला,लोग बदले 
परिवर्तन हुआ पूरे समाज का 
उसकी सोच का
पता नहीं ...
अब भी उस कुएँ के इर्द-गिर्द 
वैसी ही महफ़िले सजती भी हैं या नहीं?

ना तुम करीब हो,
ना गाँव करीब है  
पर, मैं आज भी 
तुम्हारे स्पर्श के अनुभव के साथ
अपनी मान्यताओं को मिलाकर
उसे नित-नवीन करती
चली जाती हूँ और 
हर वक़्त बस ये ही सोचती हूँ कि
पर परम्पराओं की वेदी पर और
एक बूढ़े हो चुके कुएँ की दहलीज़ पर 
अब कौन ठहरता होगा  ?


[Anju+Chaudhary.jpg]


अंजु चौधरी अनु 
http://apnokasath.blogspot.in/







समय है एक विराम का, मिलती हूँ एक छोटे से विराम के बाद..... 


10 comments:

  1. बहुत सुंदर चयन । कहानी बहुतों के सच जैसी है ।

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  2. वफा बेवफा की छाया जैसी होना समान्य है ना
    सच्चाई मे मैं किसी को जानती हूँ लेकिन वो संभल गई और बेवफा होते होते बच गई

    जवाब देंहटाएं
  3. प्रभावशाली कहानी.. मेरे विचार में इस कहानी से संजय जैसे 'अच्छे पति' भी सँभलेंगे कि किसी और छाया का ऐसा अंत न हो... कविताएँ भी मन को छूती हैं...

    जवाब देंहटाएं
  4. रश्मि दी ....आभार आपका ....आपके साथ का

    नेट से दूरी की वजह से यहाँ देर से आना हुआ ..........आभार आप सबका

    जवाब देंहटाएं
  5. अंजू जी के क्या कहने ..बहुत बढियां लिखते हैं वो | (o)

    जवाब देंहटाएं

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