सुख क्या है ?
दुःख से जन्मा एक सत्य !
जब साथ होता है 
तो दुःख के अंदेशे में 
हम पूजा करते हैं 
नज़रें उतारते हैं 
एक अव्यक्त आशंका से घिरे होते हैं  … 
दुःख को जीना ही सुख है 
सिर्फ सुख संभव नहीं 
और दुःख से भागना सुख के जन्म को रोकना है 

               रश्मि प्रभा 



सुख की खोज

जहां देखें,मनुष्य भाग रहा है,दौड रहा है,हांफ रहा है,क्यों?किसके लिये?
वैसे तो,प्रकृति ने,इस संसार में इतने संसाधन दिये हैं,यदि वह,प्रकृति रूप से जिये तो उसकी सभी ज़रूरते पूरी हो सकती हैं,वह सुखी व तृप्त भी हो सकता है,काशः ऐसा हो पाता.
पक्षियों के लिये,आश्रयों की कमी नहीं है,एक पेड पर घोंसला ना सही तो किसी खंडहर की बिखरी दीवारों में ही सही,उन्हें आश्रय मिल ही जाता है.
वे,चहचहाते हुये,नीड का एक-एक तिनका चुनते हैं,मनोयोग से एक-एक तिनके को सहेज कर,घोंसला बना ही लेते हैं,वहां उनकी लगन व उत्साह में कोई कमी नहीं होती है,वे आने वाले अंधड की कोरी कल्पना में,हतौत्साहित नहीं होते हैं,यदि ऐसी अनहोनी घट भी जाय तो गले में,फांसी का फंदा भी नहीं लगाते है.
बस,फिर वही चहचहाट,वही,तिनकों का चुनना,वही फ़ुदकना और,फिर एक नया घोसला तैयार.फिर बारी आती है,अंडे देने की—वही चहचहाहट,वही फुदकन.
और,एक दिन,अंडों से बच्चे निकल—उड जाते हैं,वे,फिर,अकेले,फिर वही जीवन की लय,वही जीवन-संगीत.
कहां गये,वे सुख ढूंढने के लिये,क्योंकि,उन्होंने जीवन को,सुख-दुख की तराज़ू में रख कर तौला ही नहीं या वे,ऐसे मानवीय-प्रपंच जानते ही नहीं.
यदि,हम किसी महानगर में रह रहें हैं,तो हर समय,हर जगह,जीवन की रेलमपेल ही दिखाई देगी.सुबह की ठंडी बयार भी,गाडिय़ों के धुंये से दूषित,झेलनी पडेगी.
यदि,कभी,लोगों की जिंदगियों में झांककर देखें तो,पायेगें,एक मकान वाला दो मकान के लिये भाग रहा है,दूसरा,चार डिजिट वाली पगार से असंतुष्ट,पांच डिजिट वाली पगार की जुगाड में लगा हुआ है.
मकान,महानगरों में,सोने भर की सराय बन गये हैं.घर में यदि,चार प्राणी हैं तो,चारों घर से बाहर ही मिलेगें—लौटने का समय,किसी का भी तय नही है.
खाना एक साथ,शायद ही खा पाते हों,लेकिन छैः कुर्सियों वाली डाइनिंग टैबल हर घर में,हर फ्लैट में होनी ज़रूरी है,ईश्वर जाने वह कभी फुल ओक्युपाइ होती भी है या नहीं क्योंकि,अब,मेहमानों को फुर्सत नहीं है,मेहमानों के यहां जाने के लिये.
साज़ो-सामान,आधुनिक जीवन का सिंबल बन गया है.
और,एक दिन,अंडों से बच्चे निकल—उड जाते हैं,वे,फिर,अकेले,फिर वही जीवन की लय,वही जीवन-संगीत.
कहां गये,वे सुख ढूंढने के लिये,क्योंकि,उन्होंने जीवन को,सुख-दुख की तराज़ू में रख कर तौला ही नहीं या वे,ऐसे मानवीय-प्रपंच जानते ही नहीं.
यदि,हम किसी महानगर में रह रहें हैं,तो हर समय,हर जगह,जीवन की रेलमपेल ही दिखाई देगी.सुबह की ठंडी बयार भी,गाडिय़ों के धुंये से दूषित,झेलनी पडेगी.
यदि,कभी,लोगों की जिंदगियों में झांककर देखें तो,पायेगें,एक मकान वाला दो मकान के लिये भाग रहा है,दूसरा,चार डिजिट वाली पगार से असंतुष्ट,पांच डिजिट वाली पगार की जुगाड में लगा हुआ है.
मकान,महानगरों में,सोने भर की सराय बन गये हैं.घर में यदि,चार प्राणी हैं तो,चारों घर से बाहर ही मिलेगें—लौटने का समय,किसी का भी तय नही है.
खाना एक साथ,शायद ही खा पाते हों,लेकिन छैः कुर्सियों वाली डाइनिंग टैबल हर घर में,हर फ्लैट में होनी ज़रूरी है,ईश्वर जाने वह कभी फुल ओक्युपाइ होती भी है या नहीं क्योंकि,अब,मेहमानों को फुर्सत नहीं है,मेहमानों के यहां जाने के लिये.
साज़ो-सामान,आधुनिक जीवन का सिंबल बन गया है.
और,एक दिन,अंडों से बच्चे निकल—उड जाते हैं,वे,फिर,अकेले,फिर वही जीवन की लय,वही जीवन-संगीत.
कहां गये,वे सुख ढूंढने के लिये,क्योंकि,उन्होंने जीवन को,सुख-दुख की तराज़ू में रख कर तौला ही नहीं या वे,ऐसे मानवीय-प्रपंच जानते ही नहीं.
यदि,हम किसी महानगर में रह रहें हैं,तो हर समय,हर जगह,जीवन की रेलमपेल ही दिखाई देगी.सुबह की ठंडी बयार भी,गाडिय़ों के धुंये से दूषित,झेलनी पडेगी.
यदि,कभी,लोगों की जिंदगियों में झांककर देखें तो,पायेगें,एक मकान वाला दो मकान के लिये भाग रहा है,दूसरा,चार डिजिट वाली पगार से असंतुष्ट,पांच डिजिट वाली पगार की जुगाड में लगा हुआ है.
मकान,महानगरों में,सोने भर की सराय बन गये हैं.घर में यदि,चार प्राणी हैं तो,चारों घर से बाहर ही मिलेगें—लौटने का समय,किसी का भी तय नही है.
खाना एक साथ,शायद ही खा पाते हों,लेकिन छैः कुर्सियों वाली डाइनिंग टैबल हर घर में,हर फ्लैट में होनी ज़रूरी है,ईश्वर जाने वह कभी फुल ओक्युपाइ होती भी है या नहीं क्योंकि,अब,मेहमानों को फुर्सत नहीं है,मेहमानों के यहां जाने के लिये.
साज़ो-सामान,आधुनिक जीवन का सिंबल बन गया है.
फिर भी,इन शहरी-शैली ने वास्तविक सुख को नहीं जाना,हां,सुख के पीछे दौड ज़रूर रहें है.हर इंसान दुःखी है,इस दुःख से छुटकारा पाने के लिये—और-और,सुख चाहिये.
ओशो कहते हैं---------
क्या यह उचित होगा,दुःख भीतर है,उसे मिटाने के लिये हम सुख,और सुख खोजें?
या,यह उचित होगा कि,दुःख भीतर है,तो उस दुःख का कारण खोजें,उस कारण को मिटाएं,मुक्त हो जाएं?
क्या यह वैग्यानिक होगा,बीमारी हो तो,उसके कारण को खोज कर,बीमारी को नष्ट करें?
                             या
काल्पनिक स्वास्थय की खोज में,भटकते रहें?


बर्फ़ के फ़र्श पर

जिस,बर्फ़ के फ़र्श पर
हम-तुम,चले थे,चार कदम,साथ-साथ
                वो,अभी पिघली नहीं है---
बेशक: ,छूटे हुए कदमों के निशां,दिखते नहीं हैं
पर,उस पिघली हुई,बर्फ़ के फ़र्श पर---------
इंतज़ारों में,नज़र आते हैं,अब तलक—
                    बेशक:,वो हमारी सांसों के,अनछुए गीत,कुछ खामोश से हैं
                    पर,उस पिघली हुई बर्फ़ के फ़र्श पर----
थिरकते हैं,अब तलक-----
बेशकः,हाथों की हथेलियों में,वो,साथ जीने-मरने की कसमें,हैं दफ़न
पर,उस पिघली हुई,बर्फ़ के फ़र्श पर------
उनकी मज़ारों पर, फूल महकते हैं,अब तलक----
                     बेशकः,आंखों से टपकी,चार बूंदे,गिरी थी,जो जुदाई में
                     पर,उस पिघली हुई,बर्फ़ के फ़र्श पर--------
                     हकीकतों के बुलबुलों सी,झलकती हैं अब तलक---
बेशकः,दूर बर्फ़ की चोटियों के उस पार से,चटकती हैं      ,हसरतें
पर,उस पिघली हुई,बर्फ़ के फ़र्श पर---
इंद्रधनुष सी झिलमिलाती हैं,अब तलक----
                                    तुम,आओ कि ना आओ
                                    हर्ज़ कोई भी नहीं-----
                                    पर,उस पिघली हुई,बर्फ़ के फ़र्श पर---
                                    जो,अभी पिघली नहीं है-----
                                    ढूंढ ही लेंगे उन्हें हम,कभी ना कभी----
                                    उन,कदमों के निशां,जो पिघले नहीं हैं---
                          

मन के - मनके  (डा० उर्मिला सिंह)
[P1000621.JPG]


2 comments:

  1. कुछ तो खोजना ही है :)
    बहुत सुंदर ।

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  2. बेशकः,हाथों की हथेलियों में,वो,साथ जीने-मरने की कसमें,हैं दफ़न
    पर,उस पिघली हुई,बर्फ़ के फ़र्श पर------
    उनकी मज़ारों पर, फूल महकते हैं,अब तलक----
    gazab ki abhivyakti

    जवाब देंहटाएं

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