एक स्वस्थ संबंध - वह संबंध कोई भी हो, उसे स्पेस का ऑक्सीजन चाहिए होता है।  इसे एक दूरी मान लीजिये, जो एक ही घर में रहते हुए जरुरी है।  विचारों की समानता,प्रगाढ़ता दिखाने का मतलब यह नहीं कि चिपके रहें, निरंतर बात करते रहें - ऊब जाता है आदमी तो एक ताजगी के लिए स्पेस चाहिए  … 

      रश्मि प्रभा 

ना दो स्पेस तो कहना पड़ता है,

मुझे स्पेस चाहिये
-    सलिल वर्मा
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स्पेस यानि अपना एक निजी दायरा... जहाँ सिर्फ मैं हूँ और कोई नहीं. क्या मुमकिन है ऐसा दायरा खोज पाना? अपने लिये सिर्फ अपना एक दायरा बनाना बहुत मुश्किल है. जैसे-जैसे स्पेस सिमटता चला है, वैसे वैसे घुटन भी बढ़ने लगती है. इंसानी फ़ितरत है. ख़ुशियाँ हों तो पंख लगाकर उड़ने की तबियत होती है, ग़मों से घिरा हो तो किसी का कन्धा तलाश करता है कोई, ग़ुस्सा हो तो झगड़ने के लिये भी कोई दूसरा चाहिये. कोई ना भी हो तो ख़ुद से कहाँ तक छिपेगा इंसान. यहाँ तक कि कोई राज़ हो तो राज़दार ढूँढता है.

इंसानी दिल में कई कमरे होते हैं, कुछ कमरों में पुरानी यादें क़ैद होती हैं. ये ऐसे कमरे होते हैं जहाँ वो खुद भी दुबारा दाख़िल होना नहीं चाहता. यादों से डर लगता है उसे, क्या पता कोई एक चेहरा सवाल पूछता सा निकल आए कहीं से. दुनिया के सवालों से ज़्यादा ख़ुद के सवालों से डर लगता है. जिन्हें हम जीना तो चाहते हैं, लेकिन उसके बारे में ख़ुद अपने सवालों को भी नज़रअन्दाज़ कर देते हैं.

इस दायरे में कुछ ऐसा होता है जैसा किसी फ़िल्म में कहा था किसी ने - गला सूख जाता है और गाल गीला रहता है... आँखें भरी रहती हैं और दिल खाली..! इस ख़ाली दिल में सवाल करे भी तो कौन? बन्धन लगाए भी तो कौन?? बहस करे भी तो कौन??? जिस दायरे में हमारी एण्ट्री पर पाबन्दी हो, वह दायरा दूसरे के लिये तो बिल्कुल अनजाना ही होगा न! तो बन्द मुट्ठी पर शर्त क्या लगाना. अनजाने पर कैसी बहस, कैसे सवाल, कैसे बन्धन?

कई बार ऐसा होता है कि हमारे सामाजिक जीवन में हम दुनिया के सामने सबकुछ खोलकर रख देते हैं. और जब कोई सवाल करता है, बन्धन लगाता है, बहस छेड़ता है तो हम उसे निजी दायरा कह देते हैं. क्योंकि जो सचमुच निजी है, उसका पता किसी ग़ैर को क्यों और कैसे लगा! कई दफ़ा हम ख़ुद को बड़ा आदर्श बनाकर पेश करते हैं और जब ख़ुद उस आदर्श पर खरे नहीं उतरते तो निजी दायरे की दुहाई देने लगते हैं.

स्पेस यानि अपना निजी दायरा, जिसे हम जीना चाहते हैं, अगर वो सचमुच निजी है तो दुनिया को कोई मतलब नहीं होता उससे. लेकिन वो दायरा समाज के दायरे से काटकर निकाला गया है ख़ुद के लिये तो बस बाथरूम में शावर के बहते पानी के नीचे आँसुओं को धो देने के अलावा कोई निजी दायरा नहीं. ऐसे में आईने के सामने अपने दायरे में सिमटकर घुटते हुये यही आवाज़ निकलती है ज़हन से –

“ज़िंदगी जब मायूस होती है, तभी महसूस होती है.. ऐसे-ऐसे सवाल सामने आ जाते हैं, जिनके जवाब किसी गाइड में नहीं मिलते.. लाइब्रेरी में भी पेज टर्न होने की आवाज़ आती है, साइलेंस ज़ोन में भी कोई न कोई हॉर्न बजा ही देता है, पर तालियाँ सुनने वाले कानों में, गालियों की भी आवाज़ न आये, तो ये ज़िंदगी खाली थियेटर जैसी हो जाती है.”


                     रश्मि प्रभा - पर कई बार खुद में दर्द को महसूस करने का वक़्त चहिये होता है  . अपनेपन के साथ एक ख़ामोशी भी मायने रखती है और यही ख़ामोशी स्पेस है ! परेशानी में लगातार पूछना - क्या बात है ? परेशानी को बढ़ा देता है।  कुछ देर अकेला छोड़ देना स्पेस है, और यह जरुरी है सबके लिए। 

इसी के साथ आज का कार्यक्रम संपन्न, मिलती हूँ कल फिर सुबह १० बजे परिकल्पना पर....

5 comments:

  1. स्पेस कैसा जब सार्वजानिक किया ... तर्क वाजिब सा लगा !
    सरस लेखन !

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  2. सार्थक...स्पेस मिलना मुश्किल है !

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  3. अभी जिस मन:स्थिति से गुज़र रहा हूँ वहाँ एक मुस्कुराहट भर का भी स्पेस नहीं है मेरे पास... लेकिन रश्मि दी का आदेश टाल भी तो नहीं सकता था. इसलिये बिखरे विचारों को जैसे-तैसे समेटकर अपनी बात कहने की कोशिश की है... दूर हूँ इन सब से... तीन पेज किताब के पढ जाता हूँ और कुछ याद नहीं रहता दूसरे पल... यही है मेरा स्पेस दीदी!! जितना सिमटता है उतनी घुटन दे जाता है और फैलाव का कोई स्पेस नहीं!!
    मुझे स्थान देने का शुक्रिया!!

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