कुछ ब्लॉग ऐसें हैं
जिनको खोलते ही ओस सी नरम बूँदे
चेहरे को, दिल को, मस्तिष्क को तरोताजा कर देती हैं
ऐसा ही ब्लॉग है - एहसास प्यार का.. जहाँ प्यार है, वहाँ बड़ी मीठी धुन बजती है
इस मीठी धुन के बीच पढ़िए -
टेरेस, कॉफ़ी और वो
हम उसे "रिफ्रेशमेंट की पुड़िया' कहते थे, क्यूंकि उसके आसपास कोइ भी उदास नहीं रह सकता था.उसकी बेवकूफियों को और शरारतों को सब इसलिए बर्दाश्त कर जाते थे क्यूंकि वो जहाँ भी जाती थी खुशियाँ बिखेरते चलती थी.हम सब उबाऊ इंसानों में वह एकमात्र ऐसी थी जो ज़िन्दगी को खुल के जीना जानती थी, जो हर बात पे हँसती थी और अपने आसपास के लोगों को हमेशा हँसाते रहती थी.दुःख के मौसमों में भी वो हँसने की वजह खोज लिया करती थी.कितने ऐसे उदास दिन थे हमारे जो उसकी हँसी से खिल से गए थे.शायद यही वजह थी की हम उसके अजीबोगरीब लॉजिक आसानी से बर्दाश्त भी कर लेते थे.लेकिन कभी कभी वो ऐसी बाते कर दिया करती थी जिसे बर्दाश्त कर पाना बेहद मुश्किल होता था..उसकी इल-लौजिकल बातों का वैसे तो कोई मौसम होता नहीं था, लेकिन सर्दियों में उसकी बेवकूफियां हद दर्जे तक बढ़ जाती थी.
एक दिन शाम जब सारे दोस्त बैठे थे वो युहीं कहने लगी "पता है आजकल मैं हर सुबह जॉगिंग पे जाती हूँ..जाड़ों के दिनों में सुबह पार्क में अगर टहलने जाओ तो स्पेशल किरण जैसा कुछ निकलता है एटमासफेअर से जो सीधे दिमाग को टच करता है, और जिससे दिमाग तेज और खूबसूरत हो जाता है..ऐसा मैं नहीं...डॉक्टर्स ने प्रूफ किया हैं".
मुझे उसके इस बेतुके बात पर ज़रा भी आश्चर्य नहीं हुआ, आश्चर्य तो तब हुआ जब उसने कहा की वो पिछले दस पंद्रह दिनों से लगातार जॉगिंग के लिए जा रही है.मैंने सोचा की जो लड़की गर्मियों में सुबह नौ बजे के पहले उठती नहीं वो सर्दियों में सात बजे कैसे उठ जायेगी.लेकिन ये मुमकिन भी था, वो खुद ये जानती थी उसकी बातों का कोई ओरछोर नहीं होता है, लेकिन फिर भी वो अक्सर अपनी इल-लॉजिकल बातों को सच मान बैठती थी.उस शाम उसकी ये बकवास बातें सुनते सुनते मुझे एक शरारत सूझी और अगले दिन सुबह सुबह मैंने उसके घर जाने का प्लान बनाया.
अगले दिन मैं उसके घर के पास सुबह साढ़े छः बजे ही पहुँच गया.उसके अपार्टमेन्ट के गेट से थोड़ा पहले ही मैंने अपना स्कूटर खड़ा कर दिया.उसके अपार्टमेन्ट में दो ब्लॉक थे, पहला ब्लॉक जिसके छत से आगे की सड़क दिखती थी, मैं उस ब्लॉक के छत पे चला गया.दुसरे ब्लॉक में वो रहती थी, जो की पीछे की तरफ था.ठीक सात बजे वो अपनी दीदी के साथ बाहर निकली.मैं उसे छत से देख रहा था.अपार्टमेन्ट के कम्पाउंड से बाहर निकलते ही उसकी नज़र मेरे स्कूटर पर पड़ी.मेरे स्कूटर को देखते ही वो ठिठक गयी.उसने इधर उधर देखा, अपनी दीदी से कुछ कहा और फिर कुछ देर वहीँ कन्फ्यूज्ड अवस्था में खड़ी रही.आसपास के दुकानों की तरफ उसने नज़र दौड़ाई, फिर कम्पाउंड के अन्दर आकर उसने एक चक्कर लगाया.वो मुझे खोज रही थी, और मैं छत से उसे देख देख मुस्कुरा रहा था.मुझे यकीन था की वो छत की तरफ देखेगी भी नहीं..दिमाग के स्टॉक की कमी हमेशा उसे रहती है और आलसी भी वो एक नंबर की, तो छत पे मुझे ढूँढने के लिए वो आएगी भी नहीं...ये भी मैं जानता था.करीब दस पंद्रह मिनट परेसान होने के बाद वो अपनी दीदी के साथ पार्क में जॉगिंग करने चली गयी.करीब आधे घंटे के बाद वो वापस आई और मेरे स्कूटर को वहीँ लगा देख वो फिर से मुझे इधर उधर खोजने लगी.आगे बढ़ के आसपास की गलियों में भी उसने ताक-झाँक की, और फिर कुछ बुदबुदाते हुए थककर अपने फ़्लैट में चली गयी.उसके जाने के बाद, मैं भी बड़ी निश्चिन्तता के साथ छत से नीचे उतरा, और उसके अपार्टमेन्ट के सामने वाले चाय की दूकान पे चाय पी और वापस अपने घर आ गया.
शाम को जब उससे मिलने गया तो वो बेहद नाराज़ सी थी...."मेरे घर के आसपास चक्कर मत काटा करो, पुलिस कम्प्लेन कर दूंगी..." मिलते ही बड़े गुस्से में उसने मुझसे कहा.
"तुम्हारे घर के आसपास??मैं कब तुम्हारे घर के आसपास आया...फिर से कोई सपना देखी क्या...??", मैंने बिलकुल अनजान होकर पूछा उससे
"अच्छा, तो तुम नहीं आये थे...तो क्या अपने स्कूटर में कोई ऑटो-पायलट वाला सिस्टम भी लगाये हुए हो...जिससे तुम्हारा स्कूटर खुद-ब-खुद मेरे घर के पास चला आया और तुम्हे पता भी नहीं चला...." वो अभी तक गुस्से में ही थी.
"देखो, मैं तो सच कह रहा हूँ, मैं तो घर पे ही था, हाँ सुबह पापा किसी काम से जरूर निकले थे, हो सकता है तुम्हारे मोहल्ले में वो अपने किसी मित्र से मिलने गए हों." मैंने बड़े ही शान्ति उसके इस बात का जवाब दिया.
"अच्छा हाँ, अंकल भी हो तो हो सकते हैं..मैंने सोचा ही नहीं था....देखो कितनी बेवकूफ हूँ मैं...सॉरी सॉरी सॉरी". मुझे पता था की मेरा तीर सही निशाने पर लगेगा.मैंने एक बार पहले उसे बताया था की उसके मोहल्ले में मेरे पापा के कुछ दोस्त भी रहते हैं, और उस शाम उसने बड़ी जल्दी मेरे बहाने पर यकीन भी कर लिया.
मैंने लेकिन उस खेल को एक दिन तक ही सिमित नहीं रखा, तीन दिन लगातार मैं उसके घर हर सुबह जाता रहा और छत पर से उसे देखते रहता.उसने मेरे उस बहाने पर यकीन तो कर लिया था लेकिन फिर भी तीनों दिन सुबह जॉगिंग पर जाते और वापस आते वक़्त वो जब भी मेरे स्कूटर को वहां खड़ा देखती, तो बड़ा कन्फ्यूज्ड सा हो जाती थी..शाम में मिलती तो हमेशा पूछती मुझसे, की मैं उसके घर आया तो नहीं था...और मैं हमेशा इंकार कर देता.लेकिन तीसरे दिन शाम में उसके तेवर कुछ बदले से थे, मुझे समझ आ गया था की अब मेरा ये खेल ज्यदा लम्बा नहीं चल सकता.
चौथे दिन सुबह मैं अपने वक़्त के हिसाब से उसके अपार्टमेन्ट के छत पे पहुँच गया.उसके बाहर निकलने का समय हो गया था, लेकिन अब तक वो निकली नहीं थी.मैं लगातार सड़क की तरफ ही देख रहा था, की पीछे से किसी ने मेरी पीठ थपथपाई.मैं एकदम से हडबडा गया, और जैसे ही पीछे मुड़ के देखा तो वो खड़ी थी, अपने ऑल टाईम फेमस "ईवल वाली हंसी" के साथ.
"अरे..तुम...कैसे....जॉगिंग के लिए....तुम्हे कैसे पता.......छत पे.....मैं तो.....बस...." मैं कोई भी वाक्य पूरा नहीं कर पा रहा था और सच कहूँ तो यूँ उसे एकाएक सामने देख कर मैं थोड़ा डर भी गया था, की वो नाराज़ न हो जाए मुझे यूँ छत पे देखकर.
"क्या कर रहे हो यहाँ खड़े खड़े, पता है बिना परमिसन के किसी दुसरे के छत पे आना इलीगल है...चक्की पीसोगे पुलिस पकड़ के ले गयी तो". उसके चेहरे पे गुस्से और शरारत का मिक्स्ड सा भाव था..कुछ देर रुक कर उसने कहा "मैं पूछती थी तो पता नहीं क्या क्या बहाने बनाते थे साहब, और आज पकडे गएँ हैं तो मुहं से आवाज़ भी नहीं फुट रही"
मैं एम्बैरस्मन्ट में सिर्फ मुस्कुरा रहा था, और पता नहीं क्या क्या लॉजिक दिए वहां उसे लेकिन वो बेहद नाराज़ थी, की मैंने चार दिन बेमतलब ही उसे परेसान किया.मैं भी समझ गया था, की वो नाराज़ है, तो आज शाम तक मेरे हाथ में वो कोई एक लम्बा सा लिस्ट थमा देगी, जिसमे वो सब बातें लिखी होंगी जिसे पूरा करने से उसकी नाराजगी दूर हो जायेगी.लेकिन मैंने देखा की उसके एक हाथ में एक कागज़ भी था, यानी की वही लिस्ट.उसने पहले से तैयार कर रखी थी.मुझे लेकिन एक बात की हैरानी थी, की उसे कैसे पता चल गया की मैं छत पे हूँ.उसने इस बात का जवाब खुद ही दिया.-
"वो तो दीदी ने अचानक कल सुबह पार्क से लौटते वक़्त तुम्हे यहाँ देख लिया, वरना मुझे तो पता भी नहीं चलता की तुम कितने बड़े क्रिमनल हो...बिना इज़ाज़त दुसरे के छत पे आना किसी क्राईम से कम है क्या?"
"अरे लड़की, क्या क्या बकते जा रही हो...मैं बस युहीं आ गया था...खास तुम्हे परेसान करने नहीं...वो तो यहाँ मेरा एक और दोस्त रहता है...तुम्हे नहीं पता उसके बारे में..." मैं अपने बात पर कायम था लेकिन वो मेरे बातों से बहलने वाली नहीं थी, ये मुझे पता था.
"डोंट यु डेअर मिस्टर....काफी बहाने बना चुके, अब जल्दी से कान पकड़ के सॉरी बोलो,'मुसू मुसू हासी' गाओ, ये लिस्ट पकड़ों...इसमें लिखी बातें मानो और फिर मुझे मनाओ...तब बात बनेगी, वरना से अपनी दोस्ती आज यहीं इसी वक़्त खत्म.वैसे तो तुम्हारा गुनाह देखते हुए ये सजा काफी कम है, लेकिन चलो फिर भी ठीक है.
एक जज की तरह उसने फैसला सुना दिया था.उसके फैसले के विरुद्ध जाने की हिम्मत किसी में भी नहीं थी, तो मैंने भी हामी भर दी, उससे कान पकड़ के माफ़ी भी मांगी मैंने और उसने माफ़ भी तुरंत कर दिया, इस कंडीसन के साथ, की मैं लिस्ट में लिखी गयी सभी बातें पूरा करूँगा.उसने मुझे छत पे रुकने को कहा और खुद नीचे चली गयी.दस मिनट बाद वो छत पे आई, तो अपने साथ एक थर्मस और दो कप लेते आई थी.थर्मस में कॉफ़ी थी, जो उसने बनायीं थी.तब तक नौ बज चुके थे और नर्म सी धुप बिखरी हुई थी.हम दोनों वहां करीब और दो घंटे तक बैठे रहे, इस दौरान वो तरह तरह के "ज्ञान की बातों" से मुझे एन्लाइटन करती रही.
जब उसके अपार्टमेन्ट के गेट से बाहर मैं निकला तो मैंने उसका दिया वो लिस्ट पढ़ा..सबसे पहली सजा मेरी ये थी, की मुझे एक महीने तक रोज़ सुबह उसके छत पे आना पड़ेगा, और उसकी बनाई कॉफ़ी पीनी होगी, और उससे ज्ञान की बातें सीखनी पड़ेंगी.लेकिन एक महीने उसके घर जाना हो न सका, एक सप्ताह ही चला ये सिलसिला, लेकिन आज भी वो आठ दिन भुलाये नहीं भूलते जब सर्दियों की सुबह की शुरुआत उसकी मुस्कराहट और कॉफ़ी के कॉम्बिनेसन के साथ होती थी.
जवां दिल की राहों में, जैसे खिलती है कली,
तेरे होटों पे बसी, ऐसी हलकी सी हँसी..
एक खाली सा दिन
सुबह के छः बज रहे थे. हमेशा की तरह आज भी वो अलार्म बजने के पहले ही जाग गया था. जाड़ों की सुबह इतनी जल्दी जागने का कोई मतलब नहीं है, लेकिन फिर भी वो जाग गया. रात में कई बार उसकी नींद टूटती रही थी. कुछ अनसुलझे सवाल ऐसे थे जिसका जवाब उसके पास नहीं था...रात भर वे सवाल उसे परेशान करते रहे थे. बहुत देर तक वो बिस्तर पर यूँ ही पड़ा रहा, जैसे फैसला नहीं कर पा रहा हो कि उठे या न उठे. तीन दिन उसके अच्छे बीते थे. तीन दिन से उसके रिश्तेदार आये हुए थे तो तीन दिन वो काफी व्यस्त रहा लेकिन कल रात उनके चले जाने के बाद वो फिर से एकदम खाली सा हो गया था. उसने अपनी आँखें फिर से बंद कर ली... उठने का भी क्या फायदा? ना तो उसके पास कोई काम है ना ही शहर में कोई ऐसा जिससे वो मिल सके या जिनके साथ वक़्त बिता सके. आज का दिन कैसे कटेगा? - उसने सोचा. बहुत याद करने की कोशिश की उसने, लेकिन कोई भी ख़ास काम उसे याद नहीं आया. कुछ जॉब एजन्सीस में उसे जाना तो है, लेकिन वो भी तब जब उधर से कोई फोन आएगा.
फिर से एक खाली सा बेकार सा निरर्थक सा दिन उसे बिताना है...एक कोरा दिन जिसका कोई हासिल नहीं. आज फिर पूरा दिन यूँ हीं बसों में शहर घूमते हुए काटना है – उसने सोचा. एक हलकी बेचैनी ने उसे पकड़ लिया. वो उठ कर सुस्त क़दमों से अपने घर की खिड़की के पास आ पहुँचा. शीशे की उस बड़ी सी खिड़की से सामने मुख्य सड़क दिखाई देती थी. वो हर सुबह उठ कर अपने घर के खिड़की के पास आता और लोगों को काम पर जाते हुए देखता. हर कोई किसी न किसी काम के लिए सुबह तैयार होकर घर से निकलता....लेकिन वो...उसे कोई काम नहीं है...और वो अपने घर की खिड़की से बाकी लोगों को काम पर जाते देख रहा है...उसने सोचा वो शहर के उन लोगों में से है जो फ़िलहाल बेकार बैठे है और जिन्हें सिवाए दिन भर निरुद्देश्य इधर उधर भटकने के कोई दूसरा काम नहीं है.
उसे ये ख्याल हमेशा बड़ा भयावह सा लगता है....कि वो उन लोगों में से है जो अभी खाली हैं...बेकार हैं, और घरों में बैठे हैं. खिड़की से उसने आँखें मोड़ ली और गैस पर चाय चढ़ा कर उसने अपने कमरे को एक बार देखा...उसका वो कमरा सस्ते दामों पर मिला एक स्टूडियो अपार्टमेंट था. यूँ तो वो अकेला रहता था लेकिन उसके कमरे को देखने पर लगता था जैसे वो परिवार के साथ रहा रहा हो.. कई सारी चीज़ें उसने जमा कर रखी थी....और जब कभी वो अपने कमरे का यूँ जायजा लेता हमेशा उसे लगता कि उसे इतनी चीज़ें जमा कर के रखनी नहीं चाहिए थी. कोई अनजाना उसके घर आता तो उसके घर को देखकर ये सवाल जरूर पूछता उससे कि शादी हो गयी आपकी? वो चुपचाप “ना” में गर्दन हिला देता. वो व्यक्ति फिर कहता, आपके घर को देखने से लगता है आप परिवार के साथ रहते हैं...वो इसका कुछ भी जवाब नहीं देता. ‘परिवार के साथ रहना’, ‘शादी’ इसके बारे में उसने कभी सोचा ही नहीं. उसकी माँ भले हर दो तीन दिन पर इस विषय पर बात कर लेती लेकिन वो हमेशा उसके सवाल को टाल देता. माँ भी उसकी मजबूरी समझती, और वो ज्यादा सवाल नहीं करती...बात को रोक दिया करती. “शादी” के लिए वो शायद तैयार नहीं था. उसे ये शब्द किसी दूर की चीज़ मालूम लगती थी. वो इस बारे में कभी नहीं सोचता था. ऐसी कई बातें थी जिसके बारे में वो कभी नहीं सोचता...कुछ भी नहीं सोचता...ये वैसी चीज़ें थी जो उसके वश में शायद नहीं थी.
अपने कमरे में वो ज्यादा देर रह नहीं सका...जल्दबाजी में या शायद फ्रस्टेशन में वो तैयार होकर बाहर निकल गया. यूँ भी दोपहर के समय वो पूरा दिन अकेले कमरे में नहीं रहता था...दिन में घर पर रहना हमेशा उसके लिए असंभव सा रहा है. काम ना भी रहता तो भी वो निकल जाता था घर से. घर से निकलते ही वो सामने वाले होटल में चला जाता जहाँ वो कुछ देर बैठता और सुबह का अख़बार पढ़ता, वहाँ उस होटल में वो सुबह की दूसरी कप चाय पीता और कभी मन करता तो सुबह का नाश्ता भी कर लेता. चाय नाश्ता के अलावा सुबह इस होटल में आने की उसकी एक और वजह थी... यहाँ उसे अपने ही जैसे कई लोग मिल जाते जो हर सुबह चाय पीने और नाश्ता करने आते थे. वे यहाँ लम्बी बहसें किया करते थे....कंपनियों के रिक्रूट्मन्ट प्रोसेस, मैनेजमेंट पोलिसिस से लेकर देश की पोलिटिकल व्यवस्था तक हर बात पर वो सिस्टम को जी भर कोसते. वो बस दूर बैठे हुए उन लोगों की बहस सुनते रहता...कभी वो बहस का हिस्सा नहीं बना...वैसे भी ऐसे लोगों से वो दूर ही रहना पसंद करता था. लेकिन सुबह का ये वक़्त, उन लोगों को यूँ बहस करते देख उसे अच्छा लगता....उसे ये यकीन होता कि उसकी तरह दुनिया में और भी कई लोग हैं जो अभी काम के तलाश में हैं और पूरा दिन खाली हैं.
होटल में बैठे हुए वो हर दिन सोचता कि ये फेज है, और ये फेज भी गुज़र जाएगा. लेकिन उसे सिर्फ काम की चिंता नहीं थी. काम आज नहीं तो कल उसे मिल ही जायेगा....वो कभी काम के बारे में ज्यादा नहीं सोचता. उसे दूसरी चीज़ों की फ़िक्र ज्यादा रहती, अपनी बड़ी बहन की ज़िन्दगी में चल रही कुछ बातों की, एक दोस्त की, जो ज़िन्दगी के क्रिटिकल फेज पर खड़ी है...अपने घर की कुछ बातें जो वो ना चाहते हुए भी सोचता है...आने वाले दिनों में ये समस्याएं कैसे और कब सुलझेंगी...सुलझेंगी भी या और उलझ जायेंगी....उसका दिमाग इन बातों में लगा रहता. वो ये जानता कि इन बातों को सोचने का कोई ख़ास फायदा नहीं और वक़्त आने पर सब बातें सुलझते जायेंगी. लेकिन फिर भी अकसर ये सारी बातें बहुत देर तक उसके दिमाग में चलती रहतीं. ऐसा नहीं है कि उसके लिए ये कोई नयी बात है. पहले भी वो बहुत उलझनों से गुज़रा है...लेकिन उन दिनों वो हमेशा इन बातों को इग्नोर करने में कामयाब रहता था...अब शायद वक़्त जैसे जैसे बीतता जा रहा है, वो इन बातों को नजरंदाज आसानी से नहीं कर पाता.. शायद अब ऐसे बड़े शहर में अकेले रहना वो नहीं चाहता. शायद उम्र के इस मोड़ पर आकर अकेलापन उसे थोड़ा सताने लगा है. कई बार उसने सोचा कि वापस घर लौट जाए. माँ भी कई बार उसे वापस आ जाने के लिए कह चुकी है. एक दो बार कमज़ोर घड़ियों में उसने लगभग तय भी कर लिया था कि अब बस बहुत हुआ...अगले दिन ही यहाँ से सामान समेट कर वापस घर चले जाना है. जैसे यहाँ खाली हूँ, वैसे ही वहाँ रहूँगा. कम से कम घर पर इस बात का तो भरोसा रहेगा कि मैं अकेला नहीं हूँ...लेकिन घर लौटना इतना आसान नहीं है...घर लौटने का मतलब होगा अपनी हार स्वीकार कर लेना...उसने कुछ लाईनें पढ़ी थी एक कहानी में, हालाँकि वो मन की बात हो सकती है या नहीं ये वो नहीं जानता...लेकिन उसे कहानी की वो बात याद आती है... “एक उम्र के बाद तुम घर वापस नहीं जा सकते. तुम उसी घर में वापस नहीं जा सकते, जैसे जब तुमने उसे छोड़ा था.” . वो आँखें बंद कर के कुछ सोचने लगता है.
"सर कुछ और चाहिए ?"
ये होटल के वेटर की आवाज़ थी. उसके सामने होटल का वेटर खड़ा था..उस वेटर ने उसे यूँ टोककर एकदम से उन ख्यालों से बाहर निकाल दिया था...जैसे अचानक ही किसी ने ब्रेक लगा दिया हो उन बातों पर...ऐसे पता नहीं कितनी ही बार हुआ होगा कि उस वेटर उसे किसी सोच से बाहर निकला है...यूँ टोक कर. हर बार वो सोचता कि वेटर को वो बताये कि उसने कितना अच्छा कम किया उसके फ़ालतू के ख्यालों पर यूँ ब्रेक लगाकर...लेकिन वो बस मुस्करा कर उसे देखता है.
“नहीं......कुछ नहीं” कह कर होटल के बाहर निकल आया.
आज धूप निकली हुई है, दिन कितना अलग सा लग रहा है....होटल के बाहर निकलते ही उसने सोचा. पिछले कई दिनों से धूप के दर्शन नहीं हुए थे, और आज सुबह अचानक धूप निकल आई थी. दिन खुला हुआ सा लग रहा था. आज वो थोड़ा खुश भी था. खुश होने की वजह कुछ ख़ास नहीं थी. होटल में पैसे देते वक़्त जब उसने अपना वॉलट खोला तो उसे ये देखकर हलकी ख़ुशी हुई कि उसके जेब में अब भी तीन सौ रुपये बचे हुए हैं. उसे याद आया कि चार दिन पहले उसने पाँच सौ रुपये एटीएम् से निकाले थे और अब भी तीन सौ रुपये बचे हुए हैं. ये ख़ुशी की बात थी. चार दिनों में मात्र दो सौ रुपये का खर्च होना...ये किसी चमत्कार से कम नहीं था. उसे याद आया कि तीन दिन जो उसके रिश्तेदार उसके साथ रुके थे, उन्होंने उसे कुछ भी खर्च करने नहीं दिया था...इसी वजह से उसके पैसे बचे रह गए थे. उसने सोचा कि जो पैसे बच गए हैं उनसे आज शाम वो कुछ अपनी पसंद की चीज़ खरीद सकेगा. वैसे यूँ अपने वॉलट में ऐसे बचे हुए पैसे को देखना उसके लिए एक हलकी सी ख़ुशी नहीं, बल्कि एक बहुत बड़ी ख़ुशी की बात होती थी.
दिन भर वो जाने कहाँ कहाँ घूमता रहा...छत्तरपुर का मंदिर, क़ुतुब मीनार, पंचशील मार्ग जहाँ सड़क के दोनों तरफ अलग अलग देशों के एम्बेसीज हैं और जहाँ उसे पैदल टहलना अच्छा लगता है....इंडिया गेट....जंतर मंतर और पुराना किला, जो उसके लिए बहुत ख़ास है. जाने कितनी स्मृतियाँ जुड़ी हैं इस पुराने किले से. पुराने किले के बाहर खड़े होकर वो उन सब बातो को याद करने लगता है, जो इस जगह से जुड़ी हैं. कुछ दिन याद आते हैं उसे...१० जनवरी, २ जून, ७ दिसंबर...यहाँ बिताये बहुत से खूबसूरत दिनों में से ये तीन दिन उसे याद रह गए हैं. वो किले के बाहर ही खड़ा रहता है. आमतौर पर वो किले के अन्दर जाने से बचता है. वो जानता है किले के अन्दर जाने का मतलब होगा कई सारे बातों को फिर से सोचना. वो ये नहीं चाह रहा था. वो दिन में अब और कोई भी चीज़ सोचना नहीं चाह रहा था. वो बस ये चाहता था कि घर पहुँचने के पहले वो इतना थक जाए कि घर में जाते ही वो बस बिस्तर पर पसर जाए और एक लम्बी नींद ले सके.
शाम में जब वो थक कर घर आता तो हमेशा उसे एक अजीब सी तन्हाई पकड़ लेती...कुछ देर के लिए वो बहुत अकेला महसूस करता. ज्यादा देर नहीं, बस कुछ मिनट के लिए. यूँ भी शाम में अकेले घर में वापस आना थोड़ा तकलीफदेह होता है. जाड़ों के दिनों में अकेला घर शायद कुछ ज्यादा ही सूना सा लगता है. ख़ासकर के शाम में...एक अजीब सी गंध फैली होती है घर में, शायद तनहाई की गंध होती है वो. घर का दरवाज़ा खोलते ही वो अजीब सी गंध उसे हमेशा जकड़ लेती. वो घर का दरवाज़ा खोल कुछ देर सीढ़ियों के पास ही खड़ा रहता है. सामने कुछ लड़के दिखाई देते हैं जो अपने बालकनी में खड़े होकर सिगरेट पी रहे होते हैं. वे पाँच लड़के हमेशा शाम में अपने बालकनी में दिख जाते हैं. उन्हें देख अकसर उसे वे दिन याद आते हैं जब वो अपने दोस्तों के साथ रहता था..वे उसके मस्ती के दिन थे. कुछ देर तक सीढ़ियों के पास खड़े रहने के बाद वो घर में दाखिल होता है. उसे पता होता है कि ये सर्दियों की शाम है. कोई और मौसम होता, गर्मियों के दिन होते तो वो खिड़की खोल कर बैठ सकता. छत पर जा सकता. अपने बालकोनी में बैठ सकता. लेकिन ये सर्दियों की शाम है...जो कि बहुत सूनी सी, बहुत खामोश सी होती है. हर कुछ अपने जगह पर चुप...टेबल, कुर्सी, किताबें, लैपटॉप, दीवारें...सब चुप. टीवी भी तब तक चुप रहता जब तक उसे ऑन न करें. चालू करने के बाद भी कुछ देर तक टीवी स्क्रीन पर ब्लू लाइट जलती रहती है...उसे अकसर लगता है जैसे टीवी की वो ब्लू लाइट उससे सवाल कर रही है....तुम सच में मुझे देखोगे? तुम्हारे पास कोई काम नहीं है? तुम्हारे कोई दोस्त नहीं हैं ? तुम मुझे देखते भी कहाँ हो....बस सामने बैठे रहते हो और जाने क्या सोचते रहते हो?
हर शाम का यही खेल होता है. वो टीवी के सामने बैठ जाता और अपनी आखें बंद कर लेता...टीवी से वैसे भी उसे ज्यादा मतलब कभी नहीं रहा. लेकिन इन दिनों वो टीवी भी देखने लगा है. शाम के समय वो बस इसलिए इस इडियटबॉक्स को चालू करता है, ताकि कमरे में कुछ आवाजें मौजूद रहे..तन्हाई शायद थोड़ी कम होती है ऐसे में....
वो कुर्सी पर बैठकर अपनी आँखें बंद कर लेता है और पुराने दिनों की बहुत सारी तस्वीरें घूम जाती हैं. एक के बाद एक...किसी स्लाइड शो की तरह. उन दिनों की तस्वीरें जब वो अपने शहर में था... गांधी मैदान, अपना बाज़ार, मौर्यालोक, बोरिंग रोड, लक्ष्मी काम्प्लेक्स, अशोक थिएटर....और न जाने कौन कौन जगहें. वो सब एक एक कर के उसे याद आती जाती हैं.
फोन की घंटी अचानक बजती है.
उसकी माँ का फोन है. वो घड़ी देखता है. शाम के इस वक़्त माँ उसे फोन जरूर करती है. उसे थोड़ा अजीब लगा जब माँ ने फोन पर सीधे से पूछ लिया “तुम ठीक तो हो?”. माँ के इस बात को उसने टाल दिया. बात करते हुए वो सोचता है, माँ ये सवाल जब भी पूछती है उससे, वो हमेशा दिमागी उलझनों से घिरा रहता है. ये माँ का युज्वल सवाल नहीं होता. वो बस कभी कभी ही ये सवाल पूछती और उस समय वो सच में बहुत उदास सा होता है. शायद माँ है वो, इसलिए उसे पता चल जाता होगा कि मैं थोड़ा परेशान सा हूँ...उसने सोचा.
वो झटके से उठा...और माँ से बात करते हुए ही अपने किचन की तरफ आ गया.. चाय बनाने के लिए गैस पर बर्तन चढ़ा देता है. माँ उससे तरह तरह की बातें करती है. उसके लिए वो एक स्वेटर बुन रही होती है, वो उसे उस स्वेटर के डिजाईन के बारे में बताती है. उसे ज्यादा समझ नहीं आता लेकिन माँ की बातों को सुनना उसे अच्छा लगता है. उसने हमेशा से अपनी माँ को अपना इन्स्परेशन माना है...जाने कितने ही ऐसे बुरे फेज थे, जब माँ ने उसे विश्वास दिलाया था...कि फ़िक्र की कोई बात नहीं...सब ठीक हो जाएगा. माँ से बातें करते हुए वो बहुत हल्का महसूस करता है. सामने चाय के बर्तन में चाय उबल रही होती है....चाय के बर्तन से उठती भाप को वो देखता है, और उसे लगता है कि जैसे माँ से बात करते हुए उसके मन की वो उलझनें, वो चिन्ताएं भी चाय से उठती भाप के साथ हवा में उड़ कर गायब हो रही है...
उसका मन सच में बहुत शांत सा हो जाता है. उसे याद आता है कि सुबह उसके पास पैसे बचे थे और उन पैसों से एक अच्छे डिनर की व्यस्वस्था हो सकती है. वो घर में ताला बंद कर के बाहर निकल जाता है.....सोचता है आज के दिन कम से कम कुछ पैसे खुद पर खर्च करूँगा...!
खाली डिब्बा है फ़क़त, खोला हुआ चीरा हुआ
यूँ ही दीवारों से भिड़ता हुआ, टकराता हुआ
बेवजह सड़कों पे बिखरा हुआ, फैलाया हुआ
ठोंकरे खाता हुआ खाली लुढ़कता डिब्बा
यूँ भी होता है कोई खाली-सा बेकार-सा दिन
ऐसा बेरंग-सा बेमानी-सा बेनाम-सा दिन [ गुलज़ार ]
http://abhi-cse-love.blogspot.in/
बस कुछ सपने के पीछे भाग रहा हूँ, देखता हूँ कब पूरे होते हैं वो...होते भी हैं या नहीं!
अब समय है एक विराम का, मिलती हूँ एक छोटे से विराम के बाद......
अभिषेक के शब्दों में सरल मासूम प्यारभरी महक होती है जो मन को मोह लेती है...पढ़ते शुरु करते ही समझ आ जाती है ये अभिषेक का लिखा है.... ढेरों शुभकामनाएँ
जवाब देंहटाएंवाकई में बहुत सुंदर ।
जवाब देंहटाएंअभि की लिखी हर पोस्ट में प्यार की एक भीनी-भीनी सी महक होती है, जो पढने वाले को आत्मा की गहराई तक सराबोर कर जाती है...| यहाँ आने वाला हर पाठक बार-बार लौट कर आता है, प्यार की एक मासूम और बहुत निर्मल-पवित्र फुहार में भीगने के लिए...|
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा उसका ब्लॉग यहाँ शामिल देख कर...:)
बिल्कुल सच कहा आपने रश्मि जी | नरम गरम सुगबुगाहट |
जवाब देंहटाएं