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ट्रेन की खिड़की से छोटानागपुर

आधी रात को
गुज़रती ट्रेन की
खुली खिड़की से
मैं देखता रहा
छोटानागपुर के पठार को |
यहाँ आसमान के तारे
और ज़मीन के जुगनू
एक हो जाते
जुगलबंदी !
और मैं स्तब्ध सा
देखता रहता
यह अद्भुत मेल
प्रकृति का अनोखा खेल !
फिर ठिठकता
यहाँ के लोग भी तो
जुगनू ही हैं
जलती बुझती ज़िन्दगी
जो मंडराती रहती
एक दूसरे के चारों तरफ !
सूखे खेतों के अंधेरों में
ट्रेन की खिड़की से
सुनहरी रोशनी पड़ती
तो लगता
पक गए हैं धान
आ गया मौसम कटाई का
गुज़र जाती ट्रेन
तो किसान को
खेत कुछ ज़्यादा सूखे
कुछ ज़्यादा काले मालूम पड़ते |
दूर मचान में जलती लालटेन
रात के मुकुट में
जैसे मणि दमक रही हो
वो ख़ुश है
या दुखी
ज़िन्दा भी है
या नहीं
किसे पता ?
गुज़रते हुए
ये जगह
जितनी समतल जान पड़ती है
बसने पर है ये
उतनी ही पहाड़ी |

As the train chugs along Chotanagpur


Deep in the night,
looking through the windows
I behold the plateau
chotanagpur
as the train chugs along…
stars from heaven’s abode
join the fire-flies below
in a perfect
rhythmic twinkle!
and I watch spellbound
as nature unfolds
its entwined dance.
now I stop, surprised -
resemblance striking hard
so live the people here
on and off they flicker
holding another’s hand.
lights spill from the passing train
illuminate
the dry, parched fields
expelling the darkness, thick and fast,
and the plants glowing golden bright
herald the harvest tide.
but as the train bids goodbye
leaves behind the sprawling fields,
darker, withered
further parched

a distant perch
a solitary lamp,
like a jewel shining on the black night’s crown.
cheer or gloom, life or death
who is to tell?
chotanagpur-
plain, to a passerby;
to the dweller
harsh, rugged, hilly terrain.


Original poem by Sourav Roy. 
http://souravroy.com/
Translation by Vidya Roy.




समय एक विराम का, मिलती हूँ एक छोटे से विराम के बाद..... 

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