अब मैं कहूँ भी क्या
जब व्याख्या है 'मैं' की 'मैं' से
मेरी दृष्टि रुकी है नाम से परे
परिचय के शब्द मन पर
सोच रही हूँ - परिचय एक का है
या कइयों का ? …
जब मेरी कलम को
कागजों का साथ मिला
तो मुझे कवियित्री
कहा गया
हंस पड़ी मैं,
हम तो युगों से
गाती रहीं हैं
गीत व्यथा के,
कभी जांत पर रो लिए
कभी सोहरों में हंस लिए
कटनी पे उमगे
और रोपाई में बह लिए
फाल्गुन में बावरा मन मल्हार गाता था
कजरी पर पींगे भर मन मयूर हुलसे,
और शेष लोरियों मैं जी लिए !
हम तो सार्वभौमिक सृजक है
कविता तो हमारी
कोख में पलती है
आँचल से झरती है
गोद में हंसती है
और आँख से बहती है,
हमारा मन तो
युगों से
गा कर ही
सियाह को
सफ़ेद करता रहा
और आज चंद सफ़ेद कागजों को
सियाह कर,
क्या मैं कवियित्री बन गयी?
तुम्ही कहो न.................?
प्रेम
मैं अक्सर
किसी न किसी के
पड़ जाती हूँ
और फिर
काफी दिनों तक
रहती भी हूँ प्रेम में
मुझे याद है
मेरा पहला प्रेम
मैंने उसे
गली के मुहाने पर
पहली बार देखा था
कुछ सात एक साल की थी
उसके पंजो से खून रिस रहा था
वह ठंड से कांप रहा था
मैंने उसे गोद में उठाया
और घर ले आई
कोहराम सा
मच गया घर में
सबने यूँ हिकारत से
देखा मझे
जैसे कोई
घर से
भागी हुई लड़की
अपने प्रेमी के साथ
घर लौट आई हो
फिर सब कुछ वैसा ही हुआ था
जैसा प्रेम में होता है
दिन भर सोचते रहना
उसी के बारे में
अकेले में सोच कर
मुस्कुरा देना
उसके लिए सबसे लड़ना
और फिर झूठ बोलना
(तब मैंने झूठ बोलना सीखना शुरू ही किया था)
एक नाम भी रखा था उसका मैंने
हिंदी में ही था
तब कुत्तो के अंग्रेजी नाम
कम हुआ करते थे
टी बी वाली बुआ के
अलग किये गए बिस्तरों
में से चुराकर
एक कम्बल
मैंने बना दिया था उसका एक बिस्तर
और फिर वो सोता रहता था
और मैं रात भर
उठ उठ कर उसे देखती रहती थी
दूसरा प्यार भी मुझे
उसी गली पर बैठे
एक अधनंगे पागल के साथ हुआ
जो हर पेपर को उठा कर
हर आने जाने वाले से
कहता था
'वकील साहब मिली ग हमरे रगिस्ट्री क पेपर'
तब तक मैंने पक्का वाला
जूठ बोलना सीख लिया था
माँ को कहती थी
की कितनी भूख लगती है मझे
सुर तुम टिफिन में देती हो
बस दो पराठे?
माँ को क्या पता था
की एक पराठा तो मैं
गली वाले पागल के लिए
बचा कर ले जाती थी
जिससे अभी अभी
मझे प्रेम हुआ था
फिर एक दिन खली था
गली का मुहाना
और कम्बल चुराकर
बनाया गया बिस्तर
देखो तब से आज तक
मैं बार बार पड़ जाती हूँ
प्रेम में ये जानते हुए
की होशो हवाश में रहने वाला आदमी
पागल और कुत्ते से तो कम ही वफादार होगा
शाकुंतलम
अभिज्ञान शाकुंतलम हर बार
हर बार हर पात्र घटनाक्रम सही से लगते हैं
सही लगता है
एक महापराक्रमी राजा
बन कुसुम सी मुकुलित शकुन्तला
गंधर्व विवाह, एकांत रमण
कितना सच्चा सा लगता है सब कुछ
पर हर बार मन जाकर अटक जाता
क्या सचमुच ऋषि शाप हुआ होगा
शकुन्तला को,
या वह अंश मात्र था
चिर् शापित स्त्री जाति का
अथवा
शुकंतला ने खुद को ठगा हो
अंगूठी और श्राप जैसी मनगढ़ंत
कथाओं से
जाने क्यों ये झूठ सा लगा मुझे
फिर अचानक बदलता घटनाक्रम मछली मछुयारा
सब कुछ याद आ जाना ,
महापराक्रमी दुष्यंत का प्रेम प्रलाप
झूठे अभिनय सा लगता है जाने क्यूँ ?
और सबसे सच्चा लगता है
सिंह शावक से क्रीडा करते
भरत को देख दुष्यंत का मुग्ध होना !!
क्या दुष्यंत तब भी मुग्ध होता ?
यदि भरत खेल रहा होता मृग शावक से
भावी सम्राट दिखा उसे
याद आई शकुन्तला ,प्रेम ,भरत
वात्सल्य पुनः अभिनय पुनः छल .
न्याय
आज तक सोचती रही हूँ सिर्फ अपने लिए
उस औरत के लिए ,
और मैं मुट्ठियाँ भींचे चुप रहती हूँ
किसी के निजता की रक्षा के लिए
जबकि मैं ये अच्छी तरह जानती हूँ
कि उसकी पीठ के नीले निशान पड़ते है पूरी औरत जात पर
मैं तब भी चुप रहती हूँ आँखों मैं आंसू लिए
जब वो जला दी जाती है
एसिड से या फिर दहेज़ की आग में
मैं पट्टी बाँध लेती हूँ आँखों पर गांधारी के तरह,
जब हम सडको पर घुमाई जाती हैं निर्वस्त्र
मैं तब भी चुप रहती हूँ
जब !
जब !
जब !
मगर क्या आज भी चुप रहूँ जब
उसे तो औरत
बनने से पहले ही मिल गयी पूरी औरत जात की सजा
जब तुम सर झुका कर कहते हो
मैं शर्मिंदा हूँ
तब मैं तुम्हारे लिए कुछ करना चाहती हूँ !
आज तक मेरे लिए तो किया नहीं कुछ
अब खुद के लिए तो करो
या फिर दे दो न्याय दंड मेरे हाथों में
समय है एक अल्प विराम का, मिलती हूँ एक छोटे से विराम के बाद ....
मृदुला जी की कवितायेँ लीक से हटकर लगी ।fb मित्र में तो वो शामिल हैं ही bloger मित्र भी बन गई ।आपका योगदान सराहनीय है रश्मि आंटी ।बेहतरीन लेखन से हमें अवगत करवा रही हैं ।
जवाब देंहटाएंमृदाला जी की कविताएं जीवन के नरम अहसासों को करीब लाती है
जवाब देंहटाएंबधाई
(c) रश्मि जी
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत शुक्रिया रश्मि जी .इस ब्लॉग को पढने और परिकल्पना में इसे स्थान देने के लिए ...आभारी हूँ मित्र
जवाब देंहटाएंएक और सुंदर कड़ी बहुत खूब ।
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