तुम कहो
वो कहे … इस अपेक्षा की ज़िद में
मन के दरवाजों पर जंग लग गई !
स्नेह,रिश्तों का तेल तहखाने में !
अब कितना कुछ खत्म होना बाकी है ?
दुश्मनों को कितनी राहत देंगे हम ?
अकेले घर में
गिनी चुनी हँसी
वो भी नफरत में डूबी
हम क्या हो गए कि आग को बुझाना होगा !
शिकायत से पहले उन पलों को सोचो
जो सिर्फ तुम्हारे लिए थे
क्या उन पलों के सम्मान में
तुम झुक नहीं सकते ?
झुकना हार है - यह तुम्हारी सोच है
पाने के लिए झुकना ही होता है !
हाँ यदि खोने का नशा ही तुम्हें अपना सम्मान लगता है
तब तो …
दरवाजे बंद ही रहेंगे
और एक दिन
अकेले ही मौत हो जाएगी !!!
अब किसे पहले मौत आती है
ये तो ईश्वर जाने !
रश्मि प्रभा
अपना घर
कहाँ है मेरा घर ?
जाना चाहती हूँ ,
रहना चाहती हूँ अब वहीं !
छोटी थी तो समझ में नहीं आता था ,
सुनती थी पराई अमानत हूँ,
अपने घर जाकर जो मन आये करना !
धीरे-धीरे समझ में आता गया
कि यह घर मेरा नहीं ।
बड़ी हुई - घर ढूँढा जाने लगा जहाँ भेज दी जाऊं ,
उऋण हो जायें ये लोग ,भार मुक्त !
चुपचाप चली आई नये लोगों में !
पर ये घर तो उनका था
जो लोग यहीं रहते आये थे !
मैं नवागता ,
ढालती रही अपने को उनके हिसाब से !
नाम उनका ,धाम उनका ,
सारी पहचान उनकी !
बनाये रखने की जिम्मेदारी मेरी थी ,
निभाती रही !
निबटाते -निबटाते चुक गई ,
अब भी रह रही हूँ पराये घरों में ,
सबके अपने ढंग !
ढाल रही हूँ फिर अपने को
कितनी बार ,कितनी तरह !
अंतर्मन बार-बार पुकारता है -
'चलो अपने घर चलो !'
जनम-जनम से गुमनाम भटक रही हूं !
कहाँ है मेरा घर !
प्रतिभा सक्सेना
रिश्ते
अक्सर रिश्तों को रोते हुए देखा है,
अपनों की ही बाँहो में मरते हुए देखा है
टूटते, बिखरते, सिसकते, कसकते
रिश्तों का इतिहास,
दिल पे लिखा है बेहिसाब!
प्यार की आँच में पक कर पक्के होते जो,
वे कब कौन सी आग में झुलसते चले जाते हैं,
झुलसते चले जाते हैं और राख हो जाते हैं!
क्या वे नियति से नियत घड़ियाँ लिखा कर लाते हैं?
कौन सी कमी कहाँ रह जाती है
कि वे अस्तित्वहीन हो जाते हैं,
या एक अरसे की पूर्ण जिन्दगी जी कर,
वे अपने अन्तिम मुकाम पर पहुँच जाते हैं!
मैंने देखे हैं कुछ रिश्ते धन-दौलत पे टिके होते हैं,
कुछ चालबाजों से लुटे होते हैं-गहरा धोखा खाए होते हैं
कुछ रिश्ते अभावों में पले होते हैं-
पर भावों से भरे होते है! बड़े ही खरे होते हैं !
कुछ रिश्ते, रिश्तों की कब्र पर बने होते हैं,
जो कभी पनपते नहीं, बहुत समय तक जीते नहीं
दुर्भाग्य और दुखों के तूफान से बचते नहीं!
स्वार्थ पर बनें रिश्ते बुलबुले की तरह उठते हैं
कुछ देर बने रहते हैं और गायब हो जाते हैं;
कुछ रिश्ते दूरियों में ओझल हो जाते हैं,
जाने वाले के साथ दूर चले जाते हैं !
कुछ नजदीकियों की भेंट चढ़ जाते हैं,
कुछ शक से सुन्न हो जाते हैं !
कुछ अतिविश्वास की बलि चढ़ जाते हैं!
फिर भी रिश्ते बनते हैं, बिगड़ते हैं,
जीते हैं, मरते हैं, लड़खड़ाते हैं, लंगड़ाते हैं
तेरे मेरे उसके द्वारा घसीटे जाते हैं,
कभी रस्मों की बैसाखी पे चलाए जाते हैं!
पर कुछ रिश्ते ऐसे भी हैं
जो जन्म से लेकर बचपन जवानी - बुढ़ापे से गुजरते हुए,
बड़ी गरिमा से जीते हुए महान महिमाय हो जाते हैं !
ऐसे रिश्ते सदियों में नजर आते हैं !
जब कभी सच्चा रिश्ता नजर आया है
कृष्ण की बाँसुरी ने गीत गुनगुनाया है!
आसमां में ईद का चाँद मुस्कराया है!
या सूरज रात में ही निकल आया है!
ईद का चाँद रोज नहीं दिखता,
इन्द्रधनुष भी कभी-कभी खिलता है!
इसलिए शायद - प्यारा खरा रिश्ता
सदियों में दिखता है, मुश्किल से मिलता है पर,
दिखता है, मिलता है, यही क्या कम है .. !!!
- दीप्ति गुप्ता
वाह एक और खूबसूरत पायदान ब्लागोत्सव का ।
जवाब देंहटाएंदोनों रचना उम्दा
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