दिनेश मालीसुप्रसिद्ध वेब-पत्रिका srijangatha में ओड़िया कहानियों का दो साल से स्तम्भ ‘ओड़िया माटी’ का लेखन । इसके अतिरिक्त, वेब-पत्रिका नव्या और परिकल्पना में ओड़िया कविताओं एवं ओड़िया दलित कहानियों का लेखन। आज इनकी कलम से अनुवादित रचनाओं से हम मुखातिब होंगे -

जलते-पहाड़
मूल कहानी: गायत्री सर्राफ
उस रात को भी सरोजिनी बहुत समय तक कहानी लिख रही थी। कहानी के क्लाईमैक्स के बारे में वह सोच रही थी। कुछ शब्द लिख रही थी, कुछ शब्द काट   रही थी। अचानक उसे लगने लगा कि हवा के साथ कोई  उसकी कोठरी में घुस आया है। वह थोडी सहम गई। कहानी की दुनिया से बाहर निकल कर कोठरी के भीतर नजर घुमाने लगी। उसे एक औरत की छाया नजर आने लगी। अंधेरे में उडकर वह छाया उसके पास खडी हो गई और तेज स्वर में कहने लगी, “तुम कहानियां लिखती हो.हैं न  ? किंतु कौन-सी कहानियां ? कभी लिखी है मुझ जैसी नारी की कहानी ? नारी शब्द कहने से तुम्हें केवल शिक्षित और शहरी औरतें ही नजर आती है। झोपड़ी में शरीर को छिपाने वाली साड़ी के अंदर तिल- तिलकर मरकर बचने वाली और फिर मर जाने वाली - क्या हम सभी औरतें नहीं हैं ? हमारे लिए वह कितना कीमती शब्द। तुम्हें समझाने के लिए कह रही हूँ। तुमने हमारे जैसे लोगों को कभी देखा है ? गांवों में आकर कभी मह्सूस किया है हमारी दिनचर्या को ? दुर्दशा को ? कभी दूसरे लोगों को हमारी  भूख-प्यास की कहानी भी कही है  ?”
उसकी तेज आवाज - दुख से भीगे शब्दों के तीर ने सरोजिनी के हृदय  को छलनी-छलनी कर दिया। वह आहत हो गई। उसकी तरफ सीधा देख नहीं सकी। लिखने वाले कागज को देखने लगी- कलम पर केप लगाकर वह पूछने लगी, “तुम कौन हो ? क्या कहना चाहती हो ?”
वह थोड़े तेज स्वर में कहने लगी," मै मेरी कहानी तुम्हें सुनाना चाहती हूँ। और मैं जानती हूँ तुम मेरी बात नहीं टालोगी । सुनाती हूँ। कहानी लिखने के अलावा मेरे जीवन को पढ़। अपने शरीर में मेरी दुर्दशा का अनुभव कर। मैं कहूंगी मेरी भाषा में। तुम कहोगी उस भाषा और भाव में जिसे तुम्हारा समाज समझ सकेगा - जिनके पास प्रचुर मात्रा में खाने का सामान, पानी, प्रकाश और अनेक तरह-तरह की वस्तुएं हैं।
छाया के स्वर को सरोजिनी ने अपनी भाषा और शैली में सुना पूरी तरह भावुक होकर।
“ क्या है मेरे पास जो मैं अपना परिचय दूँ  ? हमारा परिचय क्या होता है ?  हाँ ,एक नाम ही है ?”
मेरा नाम- उकिया, उकिया  बर्मे। उकिया  का  अर्थ होता है प्रकाश। परंतु मेरे जीवन में प्रकाश की एक किरण भी नहीं थी। अंधेरे से शुरू हुआ और अंधेरे में खत्म। फिर भी मैं चुप थी। मैं अपना दुख किसके सामने बताती ? किस पर आरोप लगाती ? मेरी कहानी, मेरे जैसे आम लोगों की कहानी कौन समझेगा  ? मिल जाती है, गांव की  धूल में धूल बनकर। मगर आज  ईर्ष्या  में जलकर मेरा मुहं खोलने की इच्छा हो रही है। मैं ईर्ष्या  में जल रही हूँ। तुम्हारे फूल और चाँद जैसे उज्ज्वल भविष्य को लेकर नहीं। मेरे जैसे एक दुखियारी , उसके भाग्य को लेकर। वह प्रेमशीला थी, भूख-प्यास से बिलख-बिलखकर मर गई। जिसको मृत्यु ने भाग्यशाली बना दिया। जिसके लिए कुछ दिनों तक सनसनी फ़ैल गई । उसे मरे हुए  कुछ ही दिन हुए हैं। तुम सभी उसे पहचान गए । उसके और उसके बच्चों का फोटो देखा। मगर क्या तुम मुझे जानती हो ? देखा है  मुझे या मेरी बेटी को कभी अखबार के पन्नो में ? मेरे  लिए  कैमरा नहीं था। अखबार नहीं था, मेरी कहानी सुनने के लिए कोई अखबारनवीश  नहीं आया था- इसलिए तुम ही कहो प्रेमशीला के भाग्य को लेकर मुझे ईर्ष्या  नहीं होगी ? प्रेमशीला के गाँव  के पास तो मेरा भी गांव था। गांव कहने से जैसे तुम समझती हो वैसे गाँव नहीं। जंगलों से भरा  गांव था हमारा । हरे-भरे जंगल, नीले पहाड़, झर-झर करते झरने कुछ भी तो हमारा नहीं था। हाँ, कुछ दिनों तक पेड -पौधों, फूल-फलों से लदे जंगल थे। उसमें थे केंदू, महूली, बेर और फूलों के जंगल। उनकी मधुर खुशबू। भूख होने से जंगल में हम खाने के लिए जाते थे। भरपेट खाते थे। सिर पर बड़ी-बड़ी लकडियों की गठरी लादकर आते  थे। जंगल था हमारी मां, हमारी  भूख मिटाने के लिए उसने भंडारे खोल रखे थे। छाया देते थे। हवा देकर  पसीना पोंछते थे । खेतों के लिए झर-झर वर्षा करते थे। किंतु कौन जानता है किसने हमारे सारे पेड़ों को काट लिया। उसकी चोट सब जगह पड़ी, हमारी  छाती, पेट और पीठ पर। हम जैसे  मातृविहीन हो गए। पेड़-पौधों की खुशबू, महूली और केंदू की महक सारे गांव से खत्म हो गई। धीरे-धीरे गांव में बारिश होनी  बंद हो गई । मिट्टी सूखने लगी। हमारे खेतों के धान खत्म होने लगे। पैसे वाले लोगों को कुछ भी फर्क नहीं पड़ा। उन्होंने बैंकों से लोन लिया। कुएँ खोदे । पंप लगाए । वे बच गए। उनके खेत और अनाज बच गए। हम आकाश की तरफ देखने लगे तो कभी सूखी मिट्टी की तरफ, कभी जलते हुए पहाड़ों की तरफ। खेत पड़े रह गए। धूल उड़ने लगी लहलहाते खेतों की जगह  क्या करते हम ? क्या खाते ? कैसे जान बचाते ? नहीं- नहीं करते मेरा आदमी समारू एक साहूकार के घर में मजदूरी का काम करने लगा, मगर साहूकार बहुत कंजूस आदमी था। काम ज्यादा करवाता था, पैसे कम देता था। उन पैसं से हम दोनों तथा बेटी का पेट नहीं भरता था। बांटकर आधा-आधा खाते थे। उसके बाद आधे का भी आधा। किंतु गांव में हमारे लिए कौन-सा काम था जो एक काम पसंद नहीं आने पर उसे छोड़कर कोई दूसरा काम करते अधिक पैसा पाते और सब दिन भरपेट खाना खाते ? यह केवल हमारे घर का दुख नहीं था। यह दुख बहुत लोगों का था । अनेक समारू, अनेक- अनेक उकियों के पेटों का दुख। एक दिन साहूकार ने कहा, “समारू ! तुम  अपना रास्ता देखो। मेरा व्यापार घट गया है और मुझे किसी नौकर की जरूरत नहीं है।”
समारू असहाय होकर मेरे पास लौट आया। मैं केवल उसे ढांढस बंधाती रही। उसने मुझसे पीने के लिए पानी मांगा। मैने कहा, “गांव के किसी हैंडपंप में  और पानी नहीं आ रहा है।” कहते-कहते मेरी आंखें आंसूओं से भर आई। वह धरती मां को कोसने लगा। कोसने लगा आकाश को, भूख को, प्यास को और अपने भाग्य को। एक मुट्ठी चावल  और एक लोटा पानी भी हमारे लिए किसी सपने से कम नहीं था । एक दिन हम यह सपना पूरा करने के लिए भूखे-प्यासे सरपंच के घर पहुंचे। एक प्रकार की खुशबू  महक थी उधर - उस घर की हवा में। किसी ने कहा, यह चावल की खुशबू है।
किसी ने कहा, ये पैसों की महक है। और किसी ने कहा : यह सरपंच के शरीर की खुशबू है.
हमने कहा, हमारे हाथों में काम दो। खाने के लिए खाना दो....।
इतने सारे लोगों की आवाज सुनकर सरपंच गुस्से से कहने लगा- “जाओ, भागो मेरे घर के सामने से। भिखारियों को केवल दो... दो... तमाशा लगाकर रखे हो ?”
किसी ने कहा, “आपको नहीं कहेंगे तो और किसे कहेंगे ? सरकार को तुम देखते हो, जानते हो। हमारी आवाज उन तक पहुंचाओगे।”
“हाँ,..... कहूंगा जाओ.. अभी कहता  हूँ।”
हम लौट आए। उसने कहा कि वह किसी को भी नहीं जानता है। सरकार कौन,  कितनी दूर है- कितनी ज्यादा भूख होने पर सरकारी चावल मिलते हैं, कितने अधिक बांध सूखने पर नलकूप खोदे जाते हैं, हमें पता नहीं था। मेरे मन में कई सवाल थे. किसको कहने से हमारी बात सुनेगा ? क्या मांग रहे थे जो हम ? चीनी, गुड़, दाल, सब्जी, आटा या सिर पर लगाने वाला तेल ?  एक वक़्त खाने के लिए चावल और गला तर करने जितना थोड़ा-सा पानी। मुफ्त में भी नहीं - काम दो - हम मेहनत करेंगे और खाएंगे। सुना था पिछले वर्ष कहीं पर पानी का प्रकोप आया था। घर द्वार धंस गए थे । लोग बाहर में रहे थे भूखे-प्यासे। उनके लिए चारों तरफ रोना-धोना शुरू हुआ था।
हवाई जहाज से खाने के पैकेट फैंके गए थे। कितना कुछ सामान उनके पेट के लिए मिला था। हमारे लिए अकाल पड़ा है - भूख से लोग छटपटा रहे हैं - पहनने के लिए कपड़ा नहीं सही मगर पेट के लिए तो एकाध दाना मिलता। किंतु हमारे लिए किसी का भी मन दुखी नहीं हुआ- हवाई जहाज नहीं उड़े- क्यों ? क्यों हमारे लिए हवाई जहाज उड़ेंगे ? क्यों कोई हमारी बात सुनेगा ? 
एक ने सुनी थी।
एक दिन वह आया था। हाथ में था नोटों का एक बंडल। इतने नोट एक साथ हमने  कभी देखे नहीं थे। एक आदमी के पास इतने सारे पैसे कहां से और कैसे आते हैं ?
नोटों के उस बंडल को देखना हमारे लिए एक विरल और खुशी देने वाली घटना थी ।
उसने कहा, “तुम सब यदि चाहोगे- इतने नोट अपने हाथ में रख सकते हो...।”
“हम कौन  और नोटों का बंडल कौन - तुमको क्या सरकार ने हमारे लिए भेजा है ?” किसी एक ने पूछा।
“चुप रहो। सरकार का नाम मत लो, मुझे भेजा है मेरे मालिक ने। उन्होंने तुम्हारी  भूख की कहानी सुनी है। तुम लोगों पर उन्हें दया आ रही हैं। जो भी आना चाहोगे, आओ। मैं तुम लोगों को आंध्रप्रदेश ले जाऊंगा। र्इंट बनाओगे, पैसा पाओगे। इतना मिलेगा जिससे भात तो क्या बहुत कुछ चीजें खा सकोगे। खरीद सकोगे साड़ी, चूड़ी, ब्लाऊज... आओ, नाम लिखाओ, पैसा ले लो एडवांस....।”
यह बात सुनकर दूसरे लोगों के लिए गांव की सूखी मिट्टी भीग सी गई। मरणासन्न पेड़ों पर कोपलें फूटने लगी। मेरे पति समारू ने मेरी तरफ देखा। हाथ पकड़कर खड़ी मेरी बेटी को मैने गोद में ले लिया। “आंध्र प्रदेश बहुत दूर है। हम वहां नहीं जाएंगे तुम शहर जाओगे। मजदूरी नहीं मिलने से कम से कम र्इंट बनाने का काम तो मिलेगा। सांझ को फिर लौटकर आ सकते  हैं... ”
उदास होकर समारू कहने लगा, “टाऊन में र्इंट बनाने का काम नहीं होता है। हर दिन मजदूरी भी नसीब नहीं होती है। अब तो शहर में भी पानी की किल्लत है। जैसे भी हो जान तो बचाना है। पेट की  खातिर ही तो इस गांव को छोड़ना पड़ रहा है। यह गांव... यह सरकार हमें ठग रही है- ... गांव का मतलब भूखे, प्यासे रहना, कब तक रहेंगे ? तुम्हारे जिस्म की हड्डियां नजर आ रही है - बेटी केवल भात- भात कहती है... मेरी उम्र है मगर ताकत नहीं ... मर जा रहा हूँ।”
मैने समारू को देखा। बेटी को देखा। उसके पेट की भूख देखी। कौन कितने दिन जिंदा रह सकता है बिना खाए ? मेरे शरीर की सस्ती साड़ी को देखा। खाली पेट घर से बाहर निकल सकते है मगर खाली शरीर घर से बाहर कैसे निकले ? एक कपडे के लिए... पेट के सपने के लिए... यह गांव छोड़ना होगा.. पहले पेट पूजा फिर दूसरी बात, उसके बाद गांव की मिट्टी की बात ! 
मैने कहा, “जा समारू नाम लिखा। मेरा नाम भी। दोनो जाएंगे। खटेंगे, बचेंगे। जो हमे खाना देगा वही होगा हमारा भगवान। छोड देंगे यह जगह... यह गांव... जाओ नाम लिखवाओ।”
उस आदमी ने हमे कुछ पैसा दिया जिससे हाथों की अंजली  भर गई।
वह कहने लगा, “दो दिन के बाद आऊंगा। सामान पैक कर देना।”
जीवन मधुर हो गया। उन दो दिनों में हर घर की छत से धुंआ उठा। समारू पास के किसी बाजार में  जाकर एक डेगची और दो कटोरियां खरीद कर लाया। उन सामानों को देखकर बहुत कुछ सोचने लगा। डेगची में चावल उबलेंगे। चावल पकने की खुशबू से सारा घर महक उठेगा। दोनों थालियों में चावल बांटा जाएगा। समारू खाएगा। हसेगा। खेलेगा। विश्वास  तक नहीं हो रहा था। वास्तव में क्या ऐसे भी दिन आएंगे हमारे लिए ? 
दो दिन के बाद कांटाभाजी से यात्रा। रेल में बैठते समय बेटी भय से रोने लगी। मेरी छाती जोर से धड़कने लगी। रेल हमें एक अनजान रास्ते की तरफ ले गई। पीछे छूट गए गांव... जमीन... खेत.. कांटे... तालाब। 
उसके बाद ठेकेदार हम से तागीद करने लगा, “कहां जा रहे हो- क्या करने जा रहे हो, किसी को कुछ  कहने की जरूरत नहीं है। समझे ? कोई अगर पूछता भी है तो कहोगे, मामा के  घर को, मौसी के पास- समधी  के घर मेहमान होकर जा रहा हूँ।”
रात खत्म होकर सुबह हो गई। खाना खाने के समय उस जगह पहुंच गए। ट्रक भरकर और बहुत सारे आदमी र्इंटाभट्टी के पास में उतरे। गांव से भी बडी थी वह जगह। आदमियों और औरतों के झुंड ही झुंड। कतारबद्ध  ताल के पेड़ं से बनी झोपडियां, दरवाजे पर लटकते बोरे। ठेकेदार ने हमको गिनाकर अपने मालिक के हवाले कर दिया। उन दोनों में क्या बातचीत हुई , ये हम नहीं समझ पाए। ठेकेदार गायब हो गया। मालिक हमारे पास आया। वह हमारी भाषा में ही टूटी-फूटी बात करने लगा, “एडवांस पैसे लेकर जाओ और अपना घर बनाओ। तीन दिन के बाद काम मिलेगा। मुझे एकदम पक्का काम चाहिए।काम पसंद नहीं आने पर निकाल दिए जाओगे।”
जितने भी लोग इकट्ठे हुए थे सब अलग-अलग हो गए। कैसे घर बनाया जाएगा सोचते समय एक आदमी ने पास में आकर हिंदी में पूछा, “घर कैसे करोगे ? आओ, हमारी दुकान है। वहां बोरें, बांस, तालपत्र, सुतली सभी मिलती हैं। लकड़ी और चावल भी मिलता है।”
हमने बोरों से कुटिया तैयार की। ऊपर बिछा दिए तालपत्र। वह थी हमारे सपनों की कुटिया , लक्ष्मी घर। यहां मिलेगा हर दिन का खाना। तीन दिन के बाद हमें काम मिला। पहले-पहल हजार र्इंटों का  लक्ष्य। मैं मिट्टी गुंथने के काम में रह गई। समारू रह गया र्इंट बनाने और साइज करने के काम में। बेटी बैठ गई मेरा पास। खेल रही थी अपनी  उम्र के बच्चों के साथ। नया- नया खूब खराब लग रहा था। मन नहीं लग रहा था। किंतु धीरे-धीरे लगने लगा। मालिक आता था बीच-बीच में, काम देखकर चला जाता था। एक दिन मेरे पास आकर वह कहने लगा, “नए आए हो ? कांटाभाजी से ? साथ में और कोई नहीं केवल तुम दो लोग ? तुम्हारे आदमी का नाम क्या है ? र्इंटे बनाता है ?
चिकनी मिट्टी के ऊपर मेरा पांव नाच रहा था। मेरा शरीर नाच रहा था। मैने उसके सारे प्रश्नों का उत्तर दे दिया था। वह कह रहा था- “ठीक है। ताकत लगाकर काम करो...”
ताकत लगाकर ही मैं काम कर रही थी । शाम होते मैं थकी हारी घर लौटती थी। सोने का मन करता था। किंतु चावल और डेगची देखकर फिर से ताकत आ जाती थी। गरम भात बनाती और नयी थाली में दोनो के लिए डाल देती थी। मैं भी खाती --- इस तरह खाना मिलने से कई साल आराम से जी लेती। खाते-खाते ख़ुशी  से मेरी आंखों से आंसू गिरने लगते। सुबह के लिए पखाल रख देती- नहीं खाने से दिनभर पर  मेहनत कैसे करते ?
एक रात समारू ने खाना खाने के बाद अंगीचे से हाथ पोछते हुए कहा , “मालिक को मेरा काम पसंद नहीं आ रहा है। कहता है तुम अच्छी र्इंटे नहीं बना सकते हो। खाली ठग रहे हो, बैठे रहते हो। जानती हो उकिया, मैने सुना है, मालिक ने कहीं अपनी गुप्त कोठरी बना रखी है। उसकी बात नहीं मानने पर या किसी के ऊपर क्रोध आने से वह उसे वहां बंधी बनाकर रखता है और  वहां पिटाई करता है।”
बेटी के सो जाने के बाद उस रात उसके पास जाकर मैने कहा- “तुम अच्छी तरह काम करो। तुम हो तो मेरा सब कुछ है।”
एक दिन मालिक ने मेरे पास आकर कहा- “मेरे घर में खाना पकाना और बर्तन धोना तुम औरत लोगों का काम हैं . जो भी वहां खाना बनाता है ,उसे खाने को भी मिलता है। एकाध साड़ी भी मिल जाती है। आज से खाना बनाने की तुम्हारी बारी। इसलिए इस काम से छुट्टी....”
मुझे उस समय मालिक भगवान की तरह लगा। दुखियारों की अवस्था समझता है वह। काम देता है। खाने को देता है। साड़ी भी देता है। हाथ धोकर बेटी को लेकर मैं उसके घर गई। वह इतना बड़ा आदमी था। फिर वह हमारे हाथ का बना खाना खाएगा ? कितनी तरह की सब्जियां खाते होंगे ? क्या मैं स्वादिष्ट पकवान बना सकती हूँ ? उसने कहा हैं ,किसी भी तरह से ... खाना बनाना ही पडेगा।”
मना करने से अगर उसने उसे उस कोठरी में कैद कर लिया तो- क्या होगा उसकी बेटी और समारू की हालत ? मैं गई। बैटी को बैठाकर झूठे बरतन मांजे। घर में झाडू लगाते समय मालिक आ गया। सिर से पैर तक देखा- छाती की तरफ नजर दौड़ाई  और कहने लगा, “ऐसे खड़े-खड़े झाडू नहीं लगाते।कमर से झुककर झाडू लगाओ। तुम लोगों को गरीब मजदूर बनाकर भगवान ने वास्तव में ठीक ही काम किया है। झाडू नहीं होता है तो... आओ रसोईघर में... रसोई बनाना जानती हो ?”
भयभीत होकर मैने कहा, “दाल- चावल बनाना जानती हूं।”
“मगर हम मांसाहारी हैं, दाल भात से हमारा पेट नहीं भरता है।” वह हंसते-हंसते कहने लगा। मेरे पास आकर उसने मुझे पकड़ लिया। गाल पर अपना मुँह रगड़ते हुए अपनी भाषा  में वह कुछ कहने लगा। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया, मगर इतना समझ में आ गया था कि वह कुछ अच्छी बात  नहीं कर रहा है। रसोई बनाने के लिए उसने मुझे नहीं बुलाया। उसके मन में पाप था। मैने अपनी सारी ताकत लगाई और वहां से भाग आई। बेटी को लेकर मैं समारू के पास भाग आई। दुखी होकर कहने लगी, “मालिक को भगवान समझ रहे थे, मगर वह अच्छा आदमी नहीं है। रसोई बनाने के लिए उसने मुझे अपने घर बुलाया, मगर वह मेरी इज्जत लूटना चाहता था... चलिए हम यहां से भाग जाते हैं... मालिक तो हमसे भी ज्यादा भूखा है....।”
समारू की दोनों आँखें जल उठी। माटी से सने हुए हाथ लिए वह कहने लगा- “तुम घर को जाओ... मैं मालिक के घर से आ रहा हूँ. ”
मैने उसकी आंखें, क्रोधाग्नि देखकर कहा, “नहीं,, तुम उसके पास मत जाओ। हम क्या उसके साथ लड़ पाएंगे ? आज रात को चुपचाप यहां से चले जाएंगे।”
मगर समारू नहीं माना। फन निकालकर बैठ  गया। वह उसके घर गया फिर नहीं लौटा। खाना खाने का समय हुआ मगर वह नहीं लौटा। मेरा दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। समारू को मालिक ने कहीं उस कोठरी में बंद तो नहीं कर दिया ? उस इलाका में वह राजा है। यहां उसकी मर्जी के बिना पत्ता नहीं हिलता है। मुझे डर लगने लगा, मगर कुटिया से बेटी को लेकर बाहर कदम रखा। मालिक के घर जाकर चिल्लाने लगी, समारू !... समारू... !
भीतर से आवाज आई, “तुम्हारा  समारू एक बदमाश आदमी था। मेरे  घर आकर मुझसे बदतमीजी करेगा ? जिन हाथों को मैने काम दिया था उन्हीं हाथों से मुझे मारेगा ? उसको बंद करके रखा है....।”
“छोड दो बाबू उसे... हम चले जाएंगे...” मैने गिडगिडाते हुए कहा।
“हां, छोड़ देंगे। सुबह छोड़ देंगे। तुम भीतर आओ। खाना खाओ। तुम्हारी लड़की को भी खिलाओ। पलंग पर रानी की तरह सोओ। सुबह समारू को लेकर घर जाओगी... साड़ी.. और पैसा भी पाओगी।”
उसकी बात अनसुनी कर घर लौट रही थी। मगर यमदूत की तरह मुझ पर दो आदमी झपट पड़े। एक ने बेटी को मेरे पास से जबरदस्ती छुड़ा लिया, और दूसरे ने मुझे भीतर धक्का देकर बाहर से चिटकनी लगा दी। मैं खूब रो-रोकर चीत्कार करने लगी। मगर वह चीत्कार कहां खो गई, पता नहीं। 
कमर की गांठ खोलने पर खोसे से पैसे झनझनाकर नीचे गिर गए, बालों की चोटी खुल गई। चूड़ियां टुकडे-टुकडे हो गई। पलंग में मालिक ने मुझे रानी नहीं बनाया , भिखारण बना दिया । उसके बाद भी उसे चैन नहीं। यम के बाद आए यम के दो दूत। मेरी छाती फट गई। मैं बेहोश हो गई। होश आते समय सुना, “समारू नहीं है। वह कहीं भाग गया है। बदमाश ओडिया मजदूर।”
यह बात सुनकर मुझे लगा कि मैं एक बार फिर बेहोश हो जाऊँ। मगर बहुत कष्ट के साथ उठी । हिम्मत कर मैने अपनी साड़ी पहनी। मेरी बेटी बेफिक्र होकर सो गई थी । उसे क्या पता किसने उसकी मां का हरण किया और उसके पिता का। मैने लोगों को समारू को खोजने में व्यस्त देखा। मुझे तो उन्होंने बीडी  के ठूंट की तरह फेंक दिया था। मेरी तरफ उनका ध्यान नहीं था। मैं अपनी बेटी को लेकर बाहर आ गई। चारों तरफ मुझे अंधेरा ही अंधेरा नजर आने लगा। कहां जाऊंगी ? कुटिया को लौट जाऊँगी ? समारू कुटिया में नहीं होगा। वहां जाकर क्या करूँ ? गांव को चली जाऊँ ? मगर कैसे ? किस रास्ते  से ? कोई रेल मुझे पहुंचा देगी समारू के पास ? मेरे गांव ? मैं आगे चलने लगी। पीछे रह गई हमारी बनाई हुई लक्ष्मी-कुटिया। हमारी खरीदी हुई डेगची और कटोरियां। पहली बार मैने दर्पण देखा था। दौड़कर सब सामान एक बार उठाकर लाने की इच्छा हुई, मगर पीछे लौटकर नहीं देखा। मैने मेरी असली पूंजी इस जगह खो दी। इस जगह ने मेरे  समारू को मुझसे अलग कर दिया....मन भीतर ही भीतर  रो रहा था। आंखें मानों पत्थर की बन गई हो। इसके बाद मैं ईट-भट्टे की आग लिए बहुत कष्ट के साथ नदी पारकर के कांटाभाजी पहुंची। मुझे पता है। उसके बाद मेरा वहीं गांव। ... वही झोंपडी। वहां पहुंचकर इन पत्थर आंखों से आंसू बहने लगे। छाती की  क्षत जगहों से खून बहने लगा। अब क्या करूंगी ? क्या खाऊंगी ? बेटी को क्या दूंगी ? फिर वही भूख। फिर वही प्यास। लडाई करने की और ताकत नहीं थी। सहन करने की और शक्ति नहीं थी। गांव के लोग मुझे देखने आए और पूछने लगे, समारू कहां गया ?  तू अकेली कैसे आई ?
आशा की एक किरण देखकर मैं कहने लगी, “वह आएगा। वह आएगा... पैसे लेकर।”
मगर मेरे जीवन में आशा क्या, उजाला क्या ? वह  नहीं आया। बेटी का रोना धोना बंद नही हुआ। ‘भात दे...’ भात की रटकर पकडकर वह  मुझे मुक्के मारने लगी। मेरे भीतर ममता का झरणा सूख गया था। मैं निष्ठुर हो गई थी, सारा क्रोध उसके ऊपर उतारने लगी। जैसे उसके लिए मेरी इज्जत लूटी गई हो, समारू को खो दिया हो- भूख रह गई हो। गुस्से की आग में जलते हुए उसे कहने लगी- “चुडैल ! बाप को खा गई.. मां को खा ले। शरीर में जितना खून है सब पी ले, जितना मांस है सब खा ले।” भात का सपना देखना छोड़। उसका नाम मत ले। जन्म क्यों नहीं ली पैसे वालों के घर ? मेरा ही पेट मिला था तुझे  ? वह असहाय होकर और रोने लगी।"
मुझे और गुस्सा आने लगा। उसको हाथों से घसीटकर ले गई गांव के मुखिया के घर। मुखिया  को कहने लगी, “इसको रख लो। जो करना है करो... मैं बेच रही हूँ... मुझे कुछ पैसे दो... मैं पेट नहीं भर पाती हूं। अपनी भूख सहन करूंगी या उसकी ? ले लो... ले जाओ... मेरी जान बचाओ।” और तरह-तरह की अंट-संट मैं बकने लगी। जब उसने मेरी बेटी को लेकर मुझे बीस रूपए पकड़ा दिए तो मैं जोर-जोर से रोने लगी। बेटी दौड़कर आकर मुझसे लिपट गई और रोने लगी। वह मेरे लिए रो रही थी। उसके आंसूओं की झडी से न जमीन फटी न आकाश। हां, मेरी छाती दहल गई। मेरा कलेजा फट गया। मेरे शरीर की सारी धमनियां बिखर गई। बेटी के हाथों को छुड़ा लिया उस मुखिया की पत्नी ने। कभी दिन थे जब मैं पेड़ के फल बेचती थी और आज अपनी बेटी बेच रही हूँ अपने खून को। बेटी बेचकर निर्लज्जता के साथ दुकान  पर गई।
बड़ा, पकौड़ी, जलेबी खरीदकर अपनी झोपड़ी में लौट गई। सब कुछ खा लूंगी। खा लूंगी दोना, पत्र, कागज, धूल-मिट्टी.... सारा गांव... सारा जिला.. सारा राज्य सारा भारतवर्ष। धरती कांपने लगी। आकश घूमने लगा। नीचे बैठ गई । बिखर गया था,वडा, पकौडी, जलेबी का संसार। दीवार को देखकर बहुत कष्ट से पुकारने लगी... बेटी ! बेटी रे... आ... वडा खाएंगे...आ...आ...। खिला दूंगी.. तुझे पकौडी... जलेबी... आशा, स्वप्न।
किंतु कहां है मेरी बेटी ?
कहां है उसका रोना ? उसके आंसू ? उसकी भूख ? उसकी मां, मां की आवाज ?
कुछ भी सुनाई नहीं दिया।
कुछ भी दिखाई नहीं दिया। केवल अंधकार ही अंधकार।
उसके बाद सारे शब्द निखोज।
भाषा, भाव निखोज।
सरोजिनी अस्त-व्यस्त हो गई। अति करुणा के स्वर में पुकारने लगी- उकिया, उठ उकिया... उसके बाद क्या हुआ, कहो।
मगर कौन ? कहां ? किधर ?
सरोजिनी दीवार की ओर देखने लगी। चारो तरफ नीरव, निस्तब्ध। केवल थे रात के स्वर। कहां गई उकिया ? वह खोजने लगी। घर के भीतर-बाहर। कागज के अंदर।
कहां जा सकती है वह ?
वह यहीं- कहीं है, कहीं कहीं। दारूण सत्य बनकर।
हम लोगों से बहुत दूर।
गांव की फटी धरती में।
जलते हुए पहाड़ों के सीने में।
हां- अन्न के चीत्कार के भीतर।
ये सब आंखों को देखने का साहस नहीं है, इसलिए वह नहीं है, कहकर घोषणा कर दी जाती है।
बलात्कृता
मूल ओड़िया कहानी: सरोजिनी साहू

कहानी का मूल शीर्षक 'धर्षिता' था, पर 'धर्षिता' शब्द हिंदी में न होने के कारण दिनेश माली ने इस कहानी का शीर्षक 'बलात्कृता' रखना उचित समझा। 

क्या सभी आकस्मिक घटनाएँ पूर्व निर्धारित होती है? अगर कोई आकस्मिक घटना घटती है तो अचानक अपने आप यूँ ही घट जाती है; जिसका कार्यकरण से कोई सम्बन्ध है?

बहुत ही ज़्यादा आस्तिक नहीं थी सुसी, न बहुत ज़्यादा नास्तिक थी वह। कभी-कभी तो ऐसा लगता था कि ये सब बातें मन को सांत्वना देने के लिए केवल कुछ मनगढ़ंत दार्शनिक मुहावरों जैसी हैं।

सुबह से बहुत लोगों का ताँता लगने लगा था घर में। एक के बाद एक लोग पहुँच रहे थे या तो कौतुहल-वश देखने के लिए या फिर अपनी सहानुभूति प्रकट करने के लिए। घर पूरी तरह से अस्त-व्यस्त था। जीवन तो और भी अस्त-व्यस्त था! दस दिन हो गए थे, इधर-उधर घूमने-फिरने में, आज ही ये लोग अपने घर लौटे थे। रास्ते भर यही सोच-सोचकर आ रहे थे, घर पहुँचकर शांति से गहरी नींद में सो जायेंगे। रात के तीन बजे उनकी ट्रेन अपने स्टेशन पर आनेवाली थी। इसलिए मोबाईल फ़ोन में 'अलार्म' सेट करने के बाद भी, आँखों में नींद का नामोनिशान नहीं था। पलकें एक मिनट के लिए भी नहीं झपकी थी। थोड़ी-थोड़ी देर बाद नींद टूट जाती थी। ट्रेन से उतरकर घर लौटकर देखा था, कि घर अब और कोई आश्रय-स्थल नहीं रहा था।

सुबह से ही घर में लोग जुटने लगे थे। कभी-कभी तीन-चार मिलकर आ रहे थे तो कभी-कभी कोई अकेला ही। सभी को शुरू से उस बात का वर्णन करना पड़ता था, कि यह घटना कैसे घटी होगी। यहाँ तक कि डेमोंस्ट्रेशन करके भी दिखाना पड़ता था। सब कुछ देखने व सुन लेने के बाद, वे लोग यही कहते थे कि आप लोगों को इतना बड़ा ख़तरा नहीं उठाना चाहिए था। अगर कोई एक आदमी भी घर में रुक जाता तो, शायद आज यह घटना नहीं घटती। ऐसा प्रतीत होता था जैसे कि अपराधी को हर हालत में अपराध करने का पूरा-पूरा हक़ है। और सुसी के परिवार वालों की भूल है कि उन्होंने कोई सावधानी नहीं बरती।

इन्हीं 'सावधानी' व 'सतर्कता' की बातें सुनने से सुसी को लगता था, कि बारिश के लिए छतरी, साँप के लिए लाठी, अँधेरे के लिए टॉर्च का प्रयोग कर जैसे उसकी सारी ज़िंदगी बीत जायेगी! ऐसा कभी होता है क्या? चारों-दिशायें, चारों-कोने, ऊपर-नीचे देख-देखकर साबुत ज़िन्दगी जीना संभव है? 
"आप इंश्योरेंस करवाए थे क्या?"
"इंश्योरेंस, नहीं, नहीं।"
"करवाना चाहिए था ना!"
सुसी और क्या जबाव देती? इस संसार में सब कुछ क्षणभंगुर और अस्थायी है। जो आज है, कल वह नहीं रहेगा। किस-किस चीज़ का इंश्योरेंस करवाएगी वह? और किस-किस का नहीं ! घर, गाड़ी, जीवन, आँखें, कान, नाक, हृदय, यकृत और वृक्क? इंश्योरेंस कर देने के बाद, 'पाने और खोने' का खेल बंद हो जायेगा? किसी भी रास्ते से तब भी आ पहुँचेगी दुःख और यंत्रणा, तक्षक साँप की तरह!
"कितना गया?"

"क्या-क्या गया? "धीरे-धीरे, कुछ -कुछ याद कर पा रही थी सुसी। एक के बाद एक चीज़ें याद आ रही थीं उसको। क्या बोल पाती वह? आते समय, जिस हालत में उसने अपने घर को देखा था बस उसी बात को दुहरा रही थी सभी के सामने।

उस दिन जब उन्होंने अपने घर की खिड़की के टूटे हुए शीशे के छेद में झाँककर देखा, तो दिखाई पड़ी थी अन्धेरे आँगन में चाँदनी की तरह फैली हुई रोशनी। आश्चर्य से सुसी ने पूछा था, "अरे! बेबी के कमरे की लाइट कैसे जल रही है?" जब कभी वे लोग बाहर जाते थे, तो घर की लाइट बंद करना और ताला लगाने का काम अजितेश का होता था। इसलिए यह प्रश्न अजितेश के लिए था। "आप क्या बेबी के कमरे की लाइट बुझाना भूल गए थे?" गाड़ी से सूटकेस व अन्य सामान उतार रहा था अजितेश। कहने लगा था, "मैंने तो स्विच ऑफ किया था।" बेबी बोली थी -"पापा, आप भूल गए होगे। याद कीजिये जाते समय लोड-शेडिंग हुआ था ना?"

ग्रिल का ताला खोल दी थी सुसी। इसके बाद वह मुख्य-द्वार का ताल खोलने लगी थी। ताला खोलकर, धक्का देने लगी थी। पर जितना भी धक्का दे पर दरवाज़ा नहीं खुल रहा था। "अरे! देखो," चिल्लाकर बोली थी सुसी, "पता नहीं क्यों, दरवाज़ा नहीं खुल रहा है। लगता है किसीने भीतर से बंद किया है? कौन है अंदर?" सुसी का दिल धड़कने लगा था। वह काँपने लगी थी। "दरवाज़ा क्यों नहीं खुल रहा है?" भागकर आया था अजितेश, पीछे-पीछे वह ड्राईवर भी। सुसी ग्रिल के दरवाज़े के पास आकर, टूटे शीशे से बने छेद में से झाँककर देखने लगी वह दृश्य। बड़ा ही हृदय विदारक था वह दृश्य! उसकी अलमीरा चित्त सोयी पड़ी थी। दोनों तरफ बाजू फैलाते हुए। खुले पड़े थे अलमीरा के दोनों पट। सुसी की छाती धक्-धक् काँपने लगी थी ज़ोर ज़ोर से रुआँसी होकर बोली थी,- "हे, देखो!""ऐसा क्यों कर रही हो?" बौखलाकर अजितेश बोला था। इसके बाद उसने बड़े ही धैर्य के साथ पड़ोसियों को जगाया था। ड्राईवर और पड़ोसियों को साथ लेकर पीछे वाले दरवाज़े की तरफ गया था अजितेश। पीछे का दरवाज़ा खुला था। पर किसीने बड़ी सावधानी के साथ, उस दरवाज़े को चौखट से सटा दिया था। दूर से ऐसा लग रहा था जैसे दरवाज़ा वास्तव में बंद है।

 ड्राईवर कहने लगा- "चलिए,सर! पुलिस स्टेशन चलेंगे।" पड़ोसी सहानुभूति जता रहे थे। कह रहे थे,- "दो-चार दिन पहले, आधी रात को, धड़-धड़ की आवाज़ें आ रही थीं आपके घर की तरफ़ से। हम तो सोच रहे थे कि शायद कोई पेड़ काट रहा होगा।"

अजितेश ड्राईवर को लेकर पुलिस स्टेशन जाते समय यह कहते हुए गया था- "किन्हीं भी चीज़ों को इधर-उधर मत करना। छूना भी मत। थाने में एफ.आई.आर देकर आ रहा हूँ।" अजितेश के जाने के बाद पड़ोसी भी आपस में चलो-चलो कहते हुए अपने घर को लौट गये।

सुसी ने देखा था कि उसका पूरा घर बिखरा-बिखरा, अस्त-व्यस्त पड़ा था। जो चीज़ जहाँ होनी चाहिए थी, वहाँ पर नहीं थी। किसी ने सभी तकियों को फर्श पर बिछा कर, उसके उपर सुला दिया था उसकी अलमीरा को। पास में मूक-दर्शक बनकर खड़ी हुई थी बेबी की वह अलमीरा। ज़मीन पर बिखरी हुई थी बाज़ार से खरीदी हुई इमिटेशन ज्वैलरी जैसे कान के झुमके, बालियाँ और गले का हार। यहाँ तक कि, भगवान के पूजा-स्थल को भी किसी ने छेड़ दिया था। सुसी ने सभी कमरों में जाकर देखा था। टीवी अपनी जगह पर ज्यों का त्यों था, कंप्यूटर भी वैसे का वैसे ही पड़ा था। माइक्रो-ओवेन रसोई घर में झपकी लगाकर सोयी हुई थी। और बाकी सभी वस्तुयें अपनी-अपनी जगह पर सुरक्षित थी। पर चोर ने नोकिया का पुराना मोबाइल सेट और एक पुराने कैमरे को अनुपयोगी समझकर बेबी के बिस्तर में फेंक दिया था।

परन्तु जब सुसी ने बेड रूम के बाहर का पर्दा हटाकर देखा, तो वह आर्श्चय-चकित रह गयी यह देखकर कि उस रूम का ताला ज्यों का त्यों लगा हुआ था। अरे! किसीने उस कक्ष को छुआ तक नहीं, उसे ज्यों का त्यों अक्षत छोड़ दिया।
बेबी ने आवाज़ लगायी, "मम्मी, देखो, देखो।"
"क्या हुआ," बेबी के कमरे में घुसते हुए सुसी ने पूछा।

"जिस चोर ने तुम्हारी अलमीरा को तोड़ा, उसने मेरी अलमीरा को क्यों नहीं तोड़ा?" आस-पास ही थी दोनों अलमीरा, बेबी के कमरे में। एक सुसी की अलमीरा, तो दूसरी बेबी की। बेबी की अलमीरा में बेबी की हरेक चीज़ तथा कपड़ा रखा जाता था। सुसी की अलमीरा में लॉकर को छोड़ बची हुई जगह में साड़ी का इतना अधिक्य था कि और साड़ी रखने से उसे अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ता था।देखते ही देखते सुबह हो गयी। ड्राईवर और अजितेश, पुलिस स्टेशन में थानेदार को न पाकर, उसके घर चले गए थे। थानेदार की किडनी में स्टोन था। वह वेल्लोर से कुछ दिन हुए लौटा था। "मैं सुबह नौ बजे से पहले नहीं आ पाऊँगा" बड़ी ही कटु आवाज़ में बोला था थानेदार, "आप लोग जाइये, सब कुछ सजा कर रख दीजिये, मैं नौ बजे तक पहुँचता हूँ।"

ड्राईवर की सहायता से नीचे मूर्छित पड़ी अलमीरा को उठाकर खड़ा किया था अजितेश ने। अब, दोनों अलमीरा पास-पास खड़ी हुई थीं। ड्राईवर ने जाने की इजाज़त माँगी, "तो, मैं जा रहा हूँ,सर।" अजितेश को थानेदार के ऊपर पहले से ही काफी असंतोष था, और ड्राईवर से कहने लगा, "ठीक है, तुम जाओ, और रुककर करोगे भी क्या?" ड्राईवर रात दो बजे से प्रतीक्षा कर रहा था स्टेशन पर। अजितेश की अनुमति पाते ही वह तुरंत रवाना हो गया। किस रस्ते से चोरी हुई होगी, छान-बीन करने के लिए सुसी और अजितेश इधर-उधर देखने लगे। पता चला कि बाथरूम के रोशन दान में लगा हुआ शीशा टूट कर नीचे गिरा हुआ था। चोर ज़रूर उसी इसी रास्ते से होकर अंदर घुसा होगा, जिसका वह प्रमाण छोड़कर गया कोमोड़ के ऊपर रखा हुआ था फूलदान। आरी-पत्ती की मदद से सब ताले टूटे हुए थे। सूटकेस, एयर बैग, तब तक ड्राइंग रूम में रखा जा चुका था। इतनी देर तक हाथ-मुँह धोने की भी फ़ुरसत नहीं थी सुसी को। सवेरे-सवेरे टहलते हुए लोग बाहर चारदीवारी का दरवाज़ा खोलकर घर के भीतर आ गये थे। पता नहीं, इतनी सुबह-सुबह इस घटना की जानकारी लोगों को कैसे मिल गयी? 
"अरे, ये सब कैसे हो गया?"
"आप लोग कहाँ गये थे?"
"चार दिन पहले, मोर्निंग-वाक में जाते समय मैंने देखा था की आपके कमरे की एक लाइट जल रही थी। मैंने सोचा कि आप लोग बंद करना भूल गये होंगे।"
"दस दिन के लिए बाहर गये थे? किसी को तो बताकर जाना चाहिए था।"

"आपको पता नहीं है, ये जो जगह है, यहाँ चोरों की भरमार है।" उस समय तक पूरा शरीर थक कर चूर-चूर हो चूका था। एक, उपर से लम्बी यात्रा की थकान; दूसरी, रात भर की अनिद्रा। ऐसा लग रहा था मानो शरीर का पुर्जा-पुर्जा ढीला हो गया हो। लेकिन लोगों का आना-जाना जारी था। जल्दी-जल्दी, घर साफ़ कर पहले जैसी साफ-सुथरी अवस्था में लाने की कोशिश कर रही थी सुसी। 

उसने हाथ घुमा कर भीतर से देखा था कि लॉकर के भीतर फूटी कौड़ी भी नहीं थी और लॉकर बाहर से टूटकर टेढ़ा हो गया था। सोना चाँदी के गहने और अब कहाँ होंगे? घर सजाते-सजाते, बाद में सुसी को यह भी पता चला कि पीतल का एक बड़ा शो-पीस, कांसे की लक्ष्मी की मूर्ति, चाँदी का कोणार्क-चक्र भी शो-केस में से गायब हैं। यह सब देखकर बेबी को तो मानो रोना आ गया हो। अजितेश डाँटते हुए बोला था, "रो क्यों रही हो? ऐसा क्या हो गया है?"

"मम्मी, देख रही हो, मेरे कान के दो जोड़ी झुमके भी चोर ले गया। चोर मर क्यों नहीं गया? मैं उसको, श्राप देती हूँ कि उसको सात जन्मों तक कोई खाना नहीं मिलेगा?" 
"चुप हो जा, पागल जैसे क्यों हो रही हो?"
सुसी डाँटने लगी थी। बेबी को कान के झुमकों के लिए रोते देखकर सुसी को याद आने लगा था अपने सारे गहनों के बारे में।
"तुम्हारी सोने की एक चेन, मेरा मंगल सूत्र, दो चूडियाँ इतना ही तो घर में था न?" पूछने लगी थी सुसी बेबी से।
"और मेरी अँगूठी?" पूछने लगी थी बेबी।
"हाँ, हाँ, वह अँगूठी भी चली गयी।"
"पापा की गोल्डन पट्टे वाली घड़ी?"
"ठीक बोल रही हो, वह भी।"
"और याद करो तो बेबी और किस-किस चीज़ की चोरी हुई होगी?"
"आप के सोने का हार, उसको आपने कहाँ रखा था?"
"इमिटेशन डिब्बे में ही तो था। क्रिस्टल के साथ गूँथकर रखा हुआ था।" सुसी बेबी के नकली गहनों के सब डिब्बे खोल कर देखने लगी थी। 
"नहीं, नहीं, यहाँ तो कहीं भी नहीं है।" बेबी कह रही थी।
"एक और बात, अगर आपको पता चल जायेगा तो आपका मन बहुत दुखी हो जायेगा, इसलिए मैं आपको नहीं बता रही हूँ।"
सुसी की आँखों में आँसू देखने से जैसे उसको ख़ुशी मिलेगी, उसी लहजे में चिढ़ाते हुए बोली थी बेबी, "बोलूँ?"
"ज़्यादा नाटक मत कर, गुस्सा मत दिला। बोल रही हूँ, ऐसे भी मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। तुम्हारे कह देने से और क्या ज़्यादा हो जायेगा?"
"वह बहुमूल्य पत्थरों से जड़ित चौकोर पेंडेंट, जो आपके बचपन की स्मृति थी, कहाँ गया?"

बेबी ठीक बोल रही थी, पुराना पेंडेंट चेन से कटकर बाहर निकल आ रहा था, इसीलिए चेन से निकाल कर अलग से रख दी थी सुसी। क्या, किसी ज़माने की एक अनमोल धरोहर थी वह? जब वह हाई-स्कूल में पढ़ती थी तब माँ ने उसके लिए बनवाई थी बहुमूल्य पत्थर जड़ित अँगूठी, कान के झूमके तथा पेंडेंट के साथ एक सोने की चेन। अब तो माँ भी मर चुकी है।, और वह सोनार भी। उस समय तो वह सोनार जवान था। अगर उसको एक अच्छा शिल्पी कहें, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। नए-नए डिज़ाईन के चित्र बनाकर, नई-नई डिज़ाईन के गहने गढ़ना उसकी एक अजीज़ अभिरुचि हुआ करती थी। छोटे-छोटे छब्बीस नग, बीच में एक बड़ा सा सफ़ेद नग लगा हुआ चौकोर आकार का था वह पेंडेंट। सबसे ज़्यादा सुन्दर था वह। सभी बहनें बराबर शिकायत करती रहती थीं उस सोनार ने उनके लिए इतनी सुन्दर डिज़ाईन क्यों नहीं बनाया? कितनी सारी यादें जुड़ी हुई थी उस पेंडेंट से। इतने दिनों तक पेंडेंट था उसके साथ। माँ ने अपनी बचत किये हुए पैसों से बनवाया था उसको। उसकी याद आते ही माँ की बहुत याद आने लगी थी। जब माँ ज़िन्दा थी, वह उसके महत्त्व को नहीं समझ पाई थी। अभी समझ में आ रहा था कि किस प्रकार एक मध्यम-वर्गीय परिवार की माँ ने अपने जीवन में पैसा-पैसा जोड़कर बच्चों के लिए बहुत कुछ कर लिया था। आखिर, उसे भी चोर ले गया?

"आप दुखी हो गयी हो क्या? माँ, मेरी भी तो चेन और कान की बालियाँ चोरी हो गयी है।"

"बेबी, तुम्हारी माँ तो अभी ज़िंदा है। तुम्हारे लिए फिर से बनवा देगी। पर, वह पेंडेंट तो मेरे शरीर पर बहुत दिनों तक साथ-साथ था, इसलिए लगाव हो गया था, जैसे कि शरीर का कोई अंग हो।"बेबी ने फिर एक बार किसी गँवार औरत की भाँति चोर को गाली देना शुरू कर दिया था।

"तू ज़्यादा बक-बक मत कर, बहुत काम पड़ा हुआ है, उसमें मेरा हाथ बटा।" कहते हुए बाहर से लाये हुए सूटकेस को खोल रही थी सुसी।एक घंटे के बाद अजितेश लौट कर आ गया था। साथ में पुलिस वाले और मटन कि थैली। ऐसे समय में मटन देख कर सुसी का मन आश्चर्य और विरक्ति भाव से भर गया था। पुलिस के सामने अजितेश को कुछ भी न बोलते हुए, चुपचाप मटन की थैली भीतर रख दी थी सुसी ने। बाथरूम के रोशनदान के पास जाकर थानेदार अनुमान लगाने लगा था कि एक फुट चौड़े रास्ते से तो केवल सात-आठ साल का लड़का ही पार हो सकता है। लेकिन आठ साल का लड़का आरी-पत्ती से सब ताले कैसे खोल पायेगा? इतने बड़े अलमीरा को कैसे सुला पायेगा? ऐसी बहुत सारी अनर्गल बकवास करने के बाद अजितेश, सुसी और बेबी का पूरा नाम, उम्र आदि लिखकर वापस चला गया था। जाते समय यह कहते हुए गया था, अगर मेरी तक़दीर में लिखा होगा, तो आपको आपका सामान वापस मिल जायेगा।

'थानेदार की तक़दीर?' पहले-पहले तो कुछ भी समझ नहीं पाई थी सुसी। तभी अजितेश झुंझलाकर बोला,- "पहले जाओ, गेट पर ताला लगाकर आओ, जल्दी-जल्दी खाना बनाओ, फिर खाना खाकर सोया जाय।"

"जल्दी-जल्दी कैसे खाना पकाऊँगी? क्या सोचकर अपने साथ मटन लेकर आ गए? लोग देखेंगे, तो क्या कहेंगे? इधर तो इनके घर में चोरी हुई है, और उधर ये असभ्य लोग मटन खाकर ख़ुशी मना रहे हैं।"

"लोगों का और कुछ काम नहीं है, जो तुम्हारे घर में क्या पक रहा है देखने के लिए आएँगे?"
तपाक से बेबी बोल उठी, "पापा, मुझे आश्चर्य हो रहा है, आपको तनिक भी दुख नहीं लगा?"
अजितेश सुलझे हुए शब्दों में कहने लगा, "जो गया, सो गया। क्या इन चीज़ों के लिए हम अपना जीवन जीना छोड़ देंगे? मेरी बड़ी दीदी की शादी के पहले दिन, चोर घर में सेंध मारकर शादी के सभी सामान लेकर फरार हो गया। सवेरे-सवेरे जब लोगों ने देखा, तो ज़ोर-ज़ोर से रोना धोना शुरू कर दिए। परन्तु मेरे पिताजी तो ऐसे बैठे थे जैसे उन पर कोई फर्क नहीं पड़ा हो, एकदम निर्विकार। भोज का सामान फिर से ख़रीदा गया। तथा स्व-जातीय बंधु-बांधवों के सामने वर के पिता को हाथ जोड़कर उन्होंने निवेदन किया था कि एक हफ्ते के अन्दर दहेज़ का सभी सामान खरीदकर पहुँचा देंगे। 

प्रेशर-कुकर की सिटी बज रही थी। भाप से मीट पकने की ख़ुशबू भी चारों तरफ फैलने लगी थी। फिर एक बार, 'कालिंग-बेल' बजने लगी थी। कौन आ गया इस दोपहर के समय? रसोई घर से सुसी चिल्लाई,- "बेबी, दरवाज़ा खोलो तो।"
"माँ, आँटी लोग आये हैं?" बेबी ने कहा था। 
संकोचवश जड़वत हो गयी थी सुसी। कालोनी के सात-आठ औरतें। इधर रसोई घर से मटन पकने की सुवास चारों तरफ फैल रही थी। कोशिश करने से भी वह छुपा नहीं पायेगी। देखो, कितना पराधीन है इंसान? अपनी मर्जी से वह जी भी नहीं सकता। 
फिर एकबार दिखाना पड़ा सबको वह टूटी हुई अलमीरा को खोलकर। 
"हाँ, देख रहे हैं न?"
"अन्दर का लॉकर भी।"
"हाँ, उसको तो पीट-पीटकर टेढ़ा कर दिए हैं।"
फिर एकबार बाथरूम का टूटा हुआ रोशनदान, फिर एकबार शो-केस की वह खाली जगह, फिर एकबार कितना गया की रट। फट से बेबी बोली, "६ जोड़ी कान के झुमके, मेरी चेन, माँ का मंगल सूत्र..."
"इतना सारा सामान आप घर में छोड़कर बाहर चले गए थे? फिर भी मोटा-मोटी कितने का होगा?"
"सत्तर या अस्सी हज़ार के आस-पास।"
"लाख बोलिए न, जो रेट बढ़ा है आजकल सोने का। चोर के लिए छोड़ कर गए थे जैसे। चोर की तो चांदी हो गयी।"फिर एक बार प्रेशर-कुकर की सिटी बजने लगी। अब सुसी का चेहरा गंभीर होने लगा। ये औरतें जा क्यों नहीं रही हैं? दोपहर में भी इनका कोई काम-धन्धा नहीं है क्या? घूम-घूमकर सारे कोनों को देख रही हैं। घर की बहुत सारी जगहों पर मकड़ी के जाले झूल रहे थे, धूल-धन्गड़ जमा था। ये सब उनकी नज़रों में आयेगा। और जब ये घर से बाहर जायेंगे, तो इन्हीं बातों की चर्चा भी करेंगे। फिर, उपर से आ रही थी पके हुए मटन की महक। धीरे-धीरे सुसी उनसे हट कर चुप-चाप रहने लगी। ये सब औरतें गप हाँक रही थीं। कब, किसके घर कैसे चोरी हुई। इन्हीं सब बातों को लेकर वे रम गयी थीं। 
अजितेश कंप्यूटर के सामने बैठे-बैठे खों-खों कर खांसने लगा था। नहीं तो पता नहीं, कितनी देर तक वे औरतें बातें करती? 
उस समय तक सुसी को ज़्यादा दुःख नहीं हुआ था। लोग आ रहे थे, देख रहे थे, सहानुभूति जता रहे थे। सबको टूटी-फूटी अलमीरा, चोर के घुसने का रास्ता दिखा रही थी। पर जब सुसी पूजा करने गयी, तो मानो उसके धीरज का बाँध टूट गया हो। भगवन की छोटी-छोटी मूर्तियाँ, अपने-अपने निश्चित स्थान से गिरी हुई थीं। डिब्बे में से प्रसाद नीचे गिर गया था। धूप, अगरबत्ती, सब बिखरा हुआ था इधर-उधर। सिंदूर की डिब्बिया भी गिरी हुई थी। होम की लकड़ियाँ भी बिखरी हुई थी इधर-उधर। चोर उपवास-व्रत वाली किताबों की पोटली खोलकर लगभग तीस चाँदी के सिक्कों को भी ले गया था। कितने सालों से धन-तेरस पर खरीद कर इकट्ठी की थी सुसी ने। एक ही झटके में सारी स्मृतियाँ विलीन सी हो गयी। भगवान की मूर्ति को किसी गंदे हाथों ने ज़रूर छुआ होगा। उनकी अनुपस्थिति में चोर ने ज़रूर इधर-उधर स्पर्श किया होगा। मन के अन्दर से उठते हुए विचार, तुरन्त ही असहायता में बदल गए हो जैसे। सुसी के घर में और कुछ छुपी हुई चीज़ बाकी नहीं थी। चोर को तो जैसे हरेक जगह का पता चल गया था। उसका घर अब उसे घर जैसा नहीं लगा। फटे-पुराने कपड़ों से लेकर, कीमती सिल्क की साड़ी कहाँ रखती थी सुसी, मानो चोर को सब मालूम हो गया था। दीवार की छोटी से छोटी दरार से लेकर घर की बड़ी से बड़ी, गुप्त से गुप्त जगह की जानकारी भी थी चोर के पास।
तुरन्त ही सुसी को याद आ गया टूटे हुए शीशे के अन्दर से दिखा हुआ अलमीरा का वह हृदय-विदारक दृश्य। ऐसे चित्त सोयी पड़ी थी वह अलमीरा, जैसे किसी ने उसे ज़मीन पर लिटाकर ज़बरदस्ती उसके साथ बलात्कार कर दिया हो। खुले हुए दोनों पट ऐसे लग रहे थे, मानो उस नारी ने अपनी कमज़ोर बाहें विवश होकर फैला दी हो। पूरे शरीर पर दाग ही दाग। ... मानो शैतान के नाखूनों से लहू-लुहान होकर हवश का शिकार बन गयी हो। रंग की परत हटकर प्राइमर तो ऐसे दिख रहा था मानो लाल-लाल खून के धब्बे दिख रहे हो। दुखी मन से सुसी की छाती भर आयी थी। फिर अपने-आपको सँभालते हुए बोली थी,- "अरे, सुन रहे हो?" खाने का इंतज़ार करते-करते नींद से बोझिल सा हो रहा था अजितेश। सुसी की आवाज़ सुनकर नींद में ही बड़बड़ाने लगा, "क्या हुआ?"
क्या बोल पाती सुसी? उसके अन्दर तो फूट रही थी एक अजीब से अनुभव की ज्वालामुखी! कैसे बखान कर पायेगी किसीको? चुप हो गयी थी सुसी।
"क्या हो गया? क्यों बुला रही थी?"
फिरसे अजितेश ने पूछा, "जल्दी पूजा खत्म करो, मुझे ज़ोरों की नींद लग रही है। खाना खाते ही सो जाऊँगा।"
भगवान की मूर्तियाँ अब उसे अछूत लगने लगी थीं। चोर ने उन सबको बच्चों के खिलौनों के भाँति लुढ़का दिया था। उसके कठोर, गंदे हाथों ने स्पर्श किया होगा उन मूर्तियों को। उसने संक्षिप्त में ही सारी पूजा समाप्त कर दी।
खाना परोसते समय और एक बार अनमने ढंग से बोलने लगी थी सुसी, "सुन रहे हो?"
"क्या हुआ?" इस बार गुस्से से बोला था अजितेश, "क्या बोलना है, बोल क्यों नहीं रही हो? एक घंटा हो गया सिर्फ 'सुनते हो' 'सुनते हो' बोल रही हो।"
"मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा है," बोली थी सुसी।
"कौनसी बड़ी बात है? यह तो स्वाभाविक है। चोरी हुई है, मन को तो ज़रूर ख़राब लग रहा होगा।"
"नहीं ऐसी बात नहीं,
"फिर, क्या बात है?"
"मुझे ऐसा लग रहा है हमारे घर का कुछ भी गोपनीय नहीं बचा है। किसी ने अपने गंदे हाथ से सब कुछ छू लिया है। ऐसा कुछ बचा नहीं जो अन-देखा हो"
अजितेश आश्चर्य-चकित हो कर देखने लगा था सुसी को। ऐसा लग रहा था, जैसे सुसी के सभी दुखों का बाँध ढहकर भी अजितेश के हृदय को छू नहीं पा रहा हो।

हिंदी अनुवाद दिनेश कुमार माली

अब समय है एक छोटे से विराम का.......

2 comments:

  1. ब्लॉगोत्सव-२०१४ में बारहवाँ दिन दिनेश माली जी की सशक्त अनुवादित कहानी प्रस्तुति के लिए आभार!

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