किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई
मुनव्वर राना
माँ -
अपने आंसुओं को वह भूल सकती है
अपनी ख्वाहिशों का गला घोंट सकती है
पर अपने बच्चे की एक एक सिसकियों का हिसाब रखती है
रात भर लोरी बन
साथ चलती है
अँधेरे में वह अपने बच्चों पर जब चीखती है
तो एक एक चीख में सुरक्षा की दुआ होती है
जब माँ कमरे में बंदकर बच्चे को डराती है
तो उसके पीछे एक ही चाह होती है
- बन्द रास्तों की चेतावनी !
रश्मि प्रभा
माँ संवेदना है – ओम व्यास जी की कविता
माँ…माँ संवेदना है, भावना है अहसास है
माँ…माँ-माँ संवेदना है, भावना है अहसास है
माँ…माँ जीवन के फूलों में खुशबू का वास है,
माँ…माँ रोते हुए बच्चे का खुशनुमा पलना है,
माँ…माँ मरूथल में नदी या मीठा सा झरना है,
माँ…माँ पूजा की थाली है, मंत्रों का जाप है,
माँ…माँ आँखों का सिसकता हुआ किनारा है,
माँ…माँ गालों पर पप्पी है, ममता की धारा है,
माँ…माँ झुलसते दिलों में कोयल की बोली है,
माँ…माँ मेहँदी है, कुमकुम है, सिंदूर है, रोली है,
माँ…माँ कलम है, दवात है, स्याही है,
माँ…माँ परामत्मा की स्वयँ एक गवाही है,
माँ…माँ त्याग है, तपस्या है, सेवा है,
माँ…माँ फूँक से ठँडा किया हुआ कलेवा है,
माँ…माँ अनुष्ठान है, साधना है, जीवन का हवन है,
माँ…माँ जिंदगी के मोहल्ले में आत्मा का भवन है,
माँ…माँ चूडी वाले हाथों के मजबूत कधों का नाम है,
माँ…माँ काशी है, काबा है और चारों धाम है,
माँ…माँ चिंता है, याद है, हिचकी है,
माँ…माँ बच्चे की चोट पर सिसकी है,
माँ…माँ चुल्हा-धुंआ-रोटी और हाथों का छाला है,
माँ…माँ ज़िंदगी की कडवाहट में अमृत का प्याला है,
माँ…माँ पृथ्वी है, जगत है, धूरी है,
माँ बिना इस सृष्टी की कलप्ना अधूरी है,
तो माँ की ये कथा अनादि है,
ये अध्याय नही है…
…और माँ का जीवन में कोई पर्याय नहीं है,
और माँ का जीवन में कोई पर्याय नहीं है,
तो माँ का महत्व दुनिया में कम हो नहीं सकता,
और माँ जैसा दुनिया में कुछ हो नहीं सकता,
और माँ जैसा दुनिया में कुछ हो नहीं सकता,
तो मैं कला की ये पंक्तियाँ माँ के नाम करता हूँ,
और दुनिया की सभी माताओं को प्रणाम करता हूँ.
माँ
जैसे गरमी के दिनों में लंबी सड़क पर चलते चलते
बरगद की छांव मिल जाये
ऐसी होती है माँ की गोद
चुप चाप बैठ कर घंटों रोने का मन करता है
बहुत से आंसू...जाने कब से इकट्ठे हो गए हैं
सारे बहा सकूं एक दिन शायद मैं
कई बार हो जाती है सारी दुनिया एक तरफ
और सैकड़ों सवालों में बेध देते हैं मन को
उस वक़्त तुम मेरी ढाल बनी हो माँ
आंसू भले तुम्हारी आँखों से बह रहे हो
उनका दर्द यहाँ मीलो दूर बैठ कर मैं महसूस करती हूँ
इसलिये हँस नहीं पाती हूँ
जिंदगी बिल्कुल ही बोझिल हो गयी है
साँसे चुभती हैं सीने में जैसे भूचाल सा आ जता है
और धुएँ की तरह उड़ जाने का मन करता है
कश पर कश...मेरे सामने वो धुआं उड़ाते रहते हैं
मैं उस धुंए में खुद को देखती हूँ
बिखरते हुये...सिमटते हुये
माँ...फिर वही राह है...वही सारे लोग हैं और वही जिंदगी
फिर से जिंदगी ने एक पेचीदा सवाल मेरे सामने फेंका है
तुम कहॉ हो
रात को जैसे bournvita बाना के देती थी
सुबह time पे उठा देती थी
मैं ऐसे ही थोड़े इस जगह पर पहुंची हूँ
मेरे exams में रात भर तुम भी तो जगी हो
मेरे रिजल्ट्स में मेरे साथ तुम भी तो घबरायी हो
पर हर बार माँ
तुमने मुझे विश्वास दिलाया है
कि मैं हासिल कर सकती हूँ...वो हर मंज़िल जिसपर मेरी नज़र है
आज जब मेरी आंखों की रौशनी जा रही है
मेरी सोच दायरों में बंधने लगी है
मेरी उड़ान सीमित हो गयी है
ये डरा हुआ मन हर पल तुमको ढूँढता है
तुम कहॉ हो माँ ?
पूजा उपाध्याय
सपना माँ का ...
मैं देखता था सपने कुछ बनने के
भाई भी देखता था कुछ ऐसे ही सपने
बहन देखती थी कुछ सपने जो मैं नहीं जान सका
पर माँ जरूर जानती थी उन्हें, बिना जाने ही
सपने तो पिताजी भी देखते थे हमारे भविष्य के
समाज में, रिश्तेदारी में एक मुकाम के
हर किसी के पास अपने सपनों की गठरी थी
सबको अपने सपनों से लगाव था,
अनंत फैलाव था, जहां चाहते थे सब छलांग लगाना
वो सब कुछ पाना, जिसकी वो करते थे कल्पना
ऐसा नहीं की माँ नहीं देखती थी सपने
वो न सिर्फ देखती थी, बल्कि दुआ भी मांगती थी उनके पूरे होने की
मैं तो ये भी जानता हूं ...
हम सब में बस वो ही थीं, जो सतत प्रयास भी करती थी
अपने सपनों को पूर्णतः पा लेने की
हाँ ... ये सच है की एक ही सपना था माँ का
और ये बात मेरे साथ साथ घर के सब जानते थे
और वो सपना था ...
हम सब के सपने पूरे होने का सपना
उसके हाथ हमारे सपने पूरे होने की दुआ में ही उठते रहे
हालंकि सपने तो मैं अब भी देखता हूँ
शायद मेरे सपने पूरे होने की दुआ में उठने वाले हाथ भी हैं
पर मेरे सपने पूरे हों ...
बस ऐसा ही सपने देखने वाली माँ नहीं है अब ...
दिगम्बर नासवा
माँ भी कभी
माँ भी कभी लड़की जैसी थी
हंसती मुस्कुराती, नाचती गाती
चिड़िया सी चहकती
पर मन की ना कहती
शक्ति स्तम्भ सी, सतत खड़ी
नियत परिधि में सिमटी
सम्बन्धों का सेतु बनाती
धुरी बनकर सहज भाव से
अनगिनत वचनों को निभाती
कर्म की क्यारी में
संस्कारों के बीज बोती
ऊर्जावान और दिव्यस्वरूपा
जुझारू और जीवंत
पर समय के साथ
सब कुछ बदल गया
यूँ ही सारा जीवन निकल गया
अपनों के जीवन की पगडण्डी
समतल करने और
चिंताओं को बुहारने की
व्यग्रता के निशान
झुर्रियों में ढल गये
देखते ही देखते
माँ के नयन नक्श बदल गये
सच, माँ भी कभी लड़की जैसी थी
डॉ. मोनिका शर्मा
मर्मस्पर्शी रचनाएँ है..... मुझे स्थान देने का आभार ......
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सुंदर रचनाऐं वैसे भी माँ पर लिखा कुछ भी बहुत सुंदर होता है :)
जवाब देंहटाएंमाँ
जवाब देंहटाएंनो कमेंट्स
(h) (h) (h) (h) (h)
मर्मस्पर्शी ... मुझे स्थान देने का आभार ...
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