जीवन पात्र मेरा खाली रह जाता
पिता के रूप में जो तुम्हें नहीं पाता
इसके आगे नहीं निष्कर्ष कोई
दूसरा नहीं मेरा आदर्श कोई
………………… नीलम प्रभा की ये पंक्तियाँ लगभग सभी बच्चों के उदगार हैं ! पापा, बाबूजी … इस पुकार में एक विश्वास है कि कुछ भी अनचाहा बाबूजी चाह में बदल देंगे, मन की आँखों से देखे गए सपनों को साकार रूप देंगे . आज इसी विराट कैनवस में हम अलग अलग भावनाओं से गुजरेंगे …
रश्मि प्रभा
यूँ अपने जीवन के इस सशक्त बरगद को देखते हुए कवि बच्चन की पंक्तियाँ कानों में गूंजती हैं -
पित्र पक्ष में पुत्र उठाना
अर्ध्य न कर में,
पर प्याला
बैठ कहीं पर जाना,
गंगा सागर में भरकर हाला
किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी
तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला।
- बच्चन
बाबूजी
बाबू जी बचपन के
किसी कोने में
यादों की परछाई में से झांकते
यही कहीं टहलते हैं
मेंरे घर के दालान में
मेरे कॉलेज की डिग्रियों में
मेरी उदासी में
मेरे पीछे खड़े
चलते हैं साथ साथ .......
दीवार पर लगी
तस्वीर से उभर कर
सामने बैठ
कितना बतियाते हैं
कितने मसले सुलझा जाते हैं
बस वो ही हंसी
मीठी सी झिडकी दे
फिर किसी ऋषि की मुद्रा में कैद हो
आसन लगा बैठ जाते हैं तस्वीर में .......
बाबूजी पुराने थे ख्यालों के
अपने ही असूलों को जीते
अनुशासन में सीते
जब लोगो से मिलते
उन्ही के हो जाते
उन्हीं के गीत गाते ......
उनका दिल भी था
महकती खुशबूओं सा
अजनबी से मिलते
ऐतबार कर जाते
फिर धोखा खाते
झुंझलाते खुद पर ,हम पर भी
आहत हो जाते ........
बस ऐसे ही थे बाबू जी मेरे
जो आज भी रहते हैं
मेरे साथ ,मेरी किताबों में
मेरी कविताओं में
सोते जागते हैं मेरे साथ
वो कही नही जाते ------
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ताकि पापा न कहें कि "मैं हार गया !!"
आज जून महीने का तीसरा रविवार है ... हर साल की तरह इस साल भी जून का यह तीसरा रविवार फदर्स डे के रूप मे मनाया जा रहा है ... पर क्या सिर्फ एक दिन पिता को समर्पित कर क्या हम सब उस के कर्ज़ से मुक्त हो सकते है ... क्या यही है क्या वास्तव मे हमारा संतान धर्म ??? क्या इतना काफी है उस पिता के लिए जिस ने हमें जन्म दिया ... हमें अपने पैरों पर खड़ा होने के काबिल बनाया !!??
एक रिपोर्ट के अनुसार कहने को तो हमारे देश में बुजुर्गो की बड़ी इज्जत है, मगर हकीकत यह है कि वे घर की चारदीवारियों के अंदर भी बेहद असुरक्षित हैं। 23 फीसदी मामलों में उन्हें अपने परिजनों के अत्याचार का शिकार होना पड़ रहा है। आठ फीसदी तो ऐसे हैं, जिन्हें परिवार वालों की पिटाई का रोज शिकार होना पड़ता है।
बुजुर्गो पर अत्याचार के लिहाज से देश के 24 शहरों में तमिलनाडु का मदुरई सबसे ऊपर पाया गया है, जबकि उत्तर प्रदेश का कानपुर दूसरे नंबर पर है। गैर सरकारी संगठन हेल्प एज इंडिया की ओर से कराए गए इस अध्ययन में 23 फीसदी बुजुर्गो को अत्याचार का शिकार पाया गया। सबसे ज्यादा मामलों में बुजुर्गो को उनकी बहू सताती है। 39 फीसद मामलों में बुजुर्गो ने अपनी बदहाली के लिए बहुओं को जिम्मेदार माना है।
बूढ़े मां-बाप पर अत्याचार के मामले में बेटे भी ज्यादा पीछे नहीं। 38 फीसदी मामलों में उन्हें दोषी पाया गया। मदुरई में 63 फीसदी और कानपुर के 60 फीसदी बुजुर्ग अत्याचार का शिकार हो रहे हैं। अत्याचार का शिकार होने वालों में से 79 फीसदी के मुताबिक, उन्हें लगातार अपमानित किया जाता है। 76 फीसदी को अक्सर बिना बात के गालियां सुनने को मिलती हैं।
69 फीसदी की जरूरतों पर ध्यान नहीं दिया जाता। यहां तक कि 39 फीसदी बुजुर्ग पिटाई का शिकार होते हैं। अत्याचार का शिकार होने वाले बुजुर्गो में 35 फीसदी ऐसे हैं, जिन्हें लगभग रोजाना परिजनों की पिटाई का शिकार होना पड़ता है। हेल्प एज इंडिया के मुख्य कार्यकारी अधिकारी मैथ्यू चेरियन कहते हैं कि इसके लिए बचपन से ही बुजुर्गो के प्रति संवेदनशील बनाए जाने की जरूरत है। साथ ही बुजुर्गो को आर्थिक रूप से सबल बनाने के विकल्पों पर भी ध्यान देना होगा।
आज के दिन इन खबरों के बीच याद आती है स्व॰ ओम व्यास 'ओम' जी की यह कविता ...
पापा हार गए…
रात-ठण्ड की
बिस्तर पर
पड़ी रजाईयों को अखाडा बनाता
अक्सर कहता है -
पापा ! ढिशुम-ढिशुम खेले ?
और उसकी नन्ही मुठ्ठियों के वार से मै गिर पड़ता हूँ … धडाम
वह खिलखिला कर खुश हो कर कहता है .... ओ पापा हार गए |
तब मुझे
बेटे से हारने का सुख महसूस होता है |
आज, मेरा वो बेटा जवान हो कर ,
ऑफिस से लौटता है, फिर
बहू की शिकायत पर, मुझे फटकारता है
मुझ पर खीजता है,
तब मै विवश हो कर मौन हो जाता हूँ
अब मै बेटे से हारने का सुख नहीं,
जीवन से हारने का दुःख अनुभूत करता हूँ
सच तो ये है कि
मै हर एक झिडकी पर तिल तिल मरता हूँ |
बेटा फिर भी जीत जाता है,
समय अपना गीत गाता है …
मुन्ना बड़ा प्यारा, आँखों का दुलारा
कोई कहे चाँद कोई आँखों का तारा
- स्व॰ ओम व्यास ‘ओम’
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आज के दिन आइये एक संकल्प लें कि हमारे रहते कभी पापा को यह नहीं कहना पड़ेगा कि................. "मैं हार गया !"
http://jaagosonewalo.blogspot.in/
पापा का पत्र --
रेल हड़ताल में बंद सेंट्रल जेल जबलपुर से- 5 जून 1974
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पप्पू
अब मुझे दिखाई कम देने लगा है,कुछ शिथिल सा पड़ता जा रहा हूँ तुम मेरे बड़े लड़के हो, ट्रेड यूनियन के चक्कर में तुम्हें पूर्ण सुख तो नहीं दे पा रहा हूँ बल्कि उम्र से पहले जवान जरूर बना रहा हूँ, तुम आठ साल की उम्र से मेरा बराबरी से साथ दे रहे हो ख़ुशी है कि अपनी मां और चारों भाई बहनों का भी ख्याल रख रहे हो.रेलवे की छोटी सी नौकरी में गरीबी से लड़ना स्वाभाविक है,तुम्हारे ऊपर बहुत बोझ है पर विश्वास है, मेरे और माँ के संस्कार तुम्हें संघर्ष से लड़ने में ताकत देंगे,दोनों बहनों अंजू और मंजू का बेहद ख्याल रखना उन्हें अपना जीवन साथी चुनने का पूरा मौका देना पर अपना बंधन भी बना के रखना क्योंकि चुनाव गलत भी हो सकता है. मार्ग दिखाना तुम्हारा काम हो.राजू और मुन्ना अभी छोटे हैं. आजकल तुम कवितायेँ भी लिखने लगे हो,तुम्हारे सामने तो तुम्हारी तारीफ़ करता हूँ पर सच बताऊं प्रेम की बचकानी कवितायेँ लिखी हैं,इससे बचो और अपनी कविताओं में जीवन की जद्दोजेहद लिखो,इतना ध्यान रखना कि तुम अपने चरित्र और पवित्र गुणों से पहचाने जाओगे,अगर जरा सा भी कलंक लगा तो मैं सोच लूंगा की मेरी चार संतानें हैं,तुम्हें माफ करना तुम्हें और भी सहारा देने के बराबर होगा क्योंकि तुम पुरुष हो ----
पापा
5.6.1974
सेंट्रल जेल जबलपुर
ज्योति खरे
पिताजी आइये आपको याद करते है आज आप का ही दिन है
आधा महीना जून
का पूरा हुआ
पता चलता है
पितृ दिवस होता है
इस महीने में
कोई एक दिन
नहीं होता है
कई दिन होते हैं
अलग अलग जगह पर
क्या गणित है इसके पीछे
कोशिश नहीं की
जानने की कभी
गूगल बाबा को
भी पता नहीं होता है
यूँ भी पिताजी को गुजरे
कई बरस हो गये
श्राद्ध के दिन पंडित जी
याद दिला ही देते है
सारे मरने पैदा होने
के दिनों का उनके
पास लेखा जोखा
किसी पोटली में
जरूर बंधा होता है
आ जाते है सुबह सुबह
कुछ तर्पण कुछ मंत्र
पढ़ कर सुना देते हैं
अब चूंकि खुद भी
पिता जी बन चुके हैं
साल के बाकी दिन
बच्चों की आपा धापी
में ही बिता देते हैं
पिताजी लोग शायद
धीर गंभीर होते होंगे
अपने पिताजी भी
जब याद आते हैं
तो कुछ ऐसे जैसे
ही याद आते हैं
बहुत छोटे छोटे
कदमों के साथ
मजबूत जमीन ढूँढ कर
उसमें ही रखना पाँव
दौड़ते हुऐ कभी नहीं दिखे
हमेशा चलते हुऐ ही मिले
कोई बहुत बड़ी इच्छा
आकाँक्षा होती होगी
उनके मन में ही कहीं
दिखी नहीं कभी भी
कुछ सिखाते नहीं थे
कुछ बताते नहीं थे
बस करते चले जाते थे
कुछ ऐसा जो बाद में
अब जा कर पता चलता है
बहुत कम लोग करते हैं
ज्यादातर अब कहीं भी
वैसा कुछ नहीं होता है
गाँधी जी के जमाने
के आदमी जरूर थे
गाँधी जी की बाते
कभी नहीं करते थे
और समय भी हमेशा
एक सा कहाँ रहता है
समय भी समय के साथ
बहुत तेज और तेज
बहने की कोशिश
करता रहता है
पिताजी का जैसा
आने वाला पिता
बहुत कम होता
हुआ दिखता है
क्या फर्क पड़ता है
पिताजी आयेंगे
पिताजी जायेंगे
बच्चे आज के कल
पिताजी हो जायेंगे
अपने अपने पिताजी
का दिन भी मनायेंगे
भारतीय संस्कृति में
बहुत कुछ होने से
कुछ नहीं कहीं होता है
एक एक करके
तीन सौ पैंसठ दिन
किसी के नाम कर के
गीत पश्चिम या पूरब से
लाकर किसी ना किसी
बहाने से किसी को
याद कर लेने की दौड़
में हम अपने आप को
कभी भी दुनियाँ में
किसी से पीछे होता
हुआ नहीं पायेंगे
‘उलूक’ मजबूर है
तू भी आदत से अपनी
अच्छी बातों में भी
तुझे छेद हजारों
नजर आ जायेंगे
ये भी नहीं
आज के दिन ही
कुछ अच्छा सोच लेता
डर भी नहीं रहा कि
पिताजी पितृ दिवस
के दिन ही
नाराज हो जायेंगे।
मधुशाला के बाबूजी और उनका फलसफा । सानी नहीं जिसका कहीं कोई । उत्सव का एक और खूबसूरत पड़ाव । ब्लागोत्सव इसी तरह शिखर को छूऐ । 'उलूक' का आभार स्थान देने के लिये ।
जवाब देंहटाएंbahut sundar sanklan ban gaya hai
जवाब देंहटाएंबाबू जी ,सदा साथ रहते हैं ,वो कहीं नहीं जाते .बहुत सुन्दर संकलन .धन्यवाद रश्मि जी मेरी रचना को स्थान देने के लिए .मंजुल भटनागर .
जवाब देंहटाएंsabhi ki abhivyakti dil ko chhuti hui
जवाब देंहटाएंआपकी परिकल्पना मील का पत्थर साबित होगी रचनाधर्मियों के लिये,
जवाब देंहटाएंपिता समूचे जीवन में जिन्दा रहते हैं, विश्वास की तरह,प्रेम के कठोर
तप की तरह ---- पिता को समर्पित बहुत सुन्दर अंक
भावुक और मार्मिक रचनायें--
गौरवान्वित हूँ इस अंक में सम्मिलत होकर
सादर ----
आभार दीदी |
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