मुझमें कविता है , इसलिए मैं हूँ : सुशांत सुप्रिय
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कविता मेरा आॅक्सीजन है । कविता मेरे रक्त में है , मज्जा में है । यह मेरी धमनियों में बहती है । यह मेरी हर साँस में समायी है । यह मेरे जीवन को अर्थ देती है । यह मेरी आत्मा को ख़ुशी देती है । मुझमें कविता है , इसलिए मैं हूँ । मेरे लिए लेखन एक तड़प है, धुन है , जुनून है । कविता लिखना मेरे लिए व्यक्तिगत स्तर पर ख़ुद को टूटने, ढहने , बिखरने से बचाना है । लेकिन सामाजिक स्तर पर मेरे लिए कविता लिखना अपने समय के अँधेरों से जूझने का माध्यम है , हथियार है , मशाल है ताकि मैं प्रकाश की ओर जाने का कोई मार्ग ढूँढ़ सकूँ । मेरा मानना है कि श्रेष्ठ कविता शिल्प के आगे संवेदना के धरातल पर भी खरी उतरनी चाहिए । उसे मानवता का पक्षधर होना चाहिए । उसमें व्यंग्य के पुट के साथ करुणा और प्रेम भी होना चाहिए । वह सामाजिक यथार्थ से भी दीप्त होनी चाहिए । कवि जब लिखे तो लगे कि वह केवल अपनी बात नहीं कर रहा , सबकी बात कर रहा है । यह बहुत ज़रूरी है कि कवि के अंदर एक कभी न बुझने वाली आग हो जिससे वह काले दिनों में भी अपने हौसले और संकल्प की मशाल जलाए रखे ।उसके पास एक धड़कता हुआ 'रिसेप्टिव' दिल हो ।उसके पास एक 'विजन' हो, एक सुलझी हुई जीवन-दृष्टि हो । श्रेष्ठ कवि की कविता कभी अलाव होती है, कभी लौ होती है , कभी अंगारा होती है...
( जुलाई , २०१४ में प्रकाशित हो रहे मेरे काव्य-संग्रह
" एक बूँद यह भी " में से )
( कविताएँ )
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१. गुजरात : २००२
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--- सुशांत सुप्रिय
जला दिए गए मकान में
मैं नमाज़ पढ़ रहा हूँ
उस मकान में जो अब नहीं है
जिसे दंगाइयों ने जला दिया था
वहाँ जहाँ कभी मेरे अपनों की चहल-पहल थी
उस मकान में अब कोई नहीं है
दरअसल वह मकान भी अब नहीं है
जला दिए गए उसी नहीं मौजूद मकान में
मैं नमाज़ पढ़ रहा हूँ
यह सर्दियों का एक
बिन चिड़ियों वाला दिन है
जब सूरज जली हुई रोटी-सा लग रहा है
और शहर से संगीत नदारद है
उस जला दिए गए मकान में
एक टूटा हुआ आइना है
मैं जिसके सामने खड़ा हूँ
लेकिन जिसमें अब मेरा अक्स नहीं है
आप समझ रहे हैं न ?
जला दिए गए उसी नहीं मौजूद मकान में
मैं लौटता हूँ बार-बार
वह मैं जो दरअसल अब नहीं हूँ
क्योंकि उस मकान में अपनों के साथ
मैं भी जला दिया गया था
----------०----------
२. हर बार
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--- सुशांत सुप्रिय
हर बार
अपनी तड़पती छाया को अकेला छोड़ कर
लौट आता हूँ मैं
जहाँ झूठ है, फ़रेब है, बेईमानी है, धोखा है
हर बार अपने अस्तित्व को खींच कर
ले आता हूँ दर्द के इस पार
जैसे-तैसे एक नई शुरुआत करने
कुछ नए पल चुरा कर
फिर से जीने की कोशिश में
हर बार ढहता हूँ, बिखरता हूँ
किंतु हर हत्या के बाद
वहीं से जी उठता हूँ
जहाँ से मारा गया था
जहाँ से तोड़ा गया था
वहीं से घास की नई पत्ती-सा
फिर से उग आता हूँ
हर बार
शिकार किए जाने के बाद भी
एक नई चिड़िया बन जाता हूँ
एक नया आकाश नापने के लिए ...
----------०----------
३. छटपटाहट भरे कुछ नोट्स
------------------------------ ----
--- सुशांत सुप्रिय
( एक )
आज चारो ओर की बेचैनी से बेपरवाह
जो लम्बी ताने सो रहे हैं
वे सुखी हैं
जो छटपटा कर जाग रहे हैं
वे दुखी हैं
( दो )
आज हमारी बनाई इमारतें
कितनी ऊँची हो गई हैं
लेकिन हमारा अपना क़द
कितना घट गया है
( तीन )
आज विश्व एक
ग्लोबीय गाँव बन गया है
हमने स्पेस-शटल
बुलेट और शताब्दी रेलगाड़ियाँ बना ली हैं
एक जगह से दूसरी जगह की दूरी
कितनी कम हो गई है
लेकिन आदमी और आदमी के
बीच की दूरी
कितनी बढ़ गई है
( चार )
आज दीयों के उजाले
कितने धुँधले हो गए हैं
आज क़तार में खड़ा
आख़िरी आदमी
कितना अकेला है
( पाँच )
आज लम्बी-चौड़ी गाड़ियों में
घूम रहे हैं छोटे लोग
बड़े-बड़े बंगलों में
रह रहे हैं लघु-मानव
बौने लोग डालने लगे हैं
लम्बी परछाइयाँ
----------०----------
४. कोई और
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--- सुशांत सुप्रिय
एक सुबह
उठता हूँ
और हर कोण से
ख़ुद को पाता हूँ अजनबी
आँखों में पाता हूँ
एक अजीब परायापन
अपनी मुस्कान
लगती है
न जाने किसकी
बाल हैं कि
पहचाने नहीं जाते
अपनी हथेलियों में
किसी और की रेखाएँ
पाता हूँ
मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि
ऐसा भी होता है
हम जी रहे होते हैं
किसी और का जीवन
हमारे भीतर
कोई और जी रहा होता है
----------०----------
५. जब दुख मेरे पास बैठा होता है
----------------------------- -------
--- सुशांत सुप्रिय
जब दुख मेरे पास बैठा होता है
मैं सब कुछ भूल जाता हूँ
पता नहीं सूरज और चाँद
कब आते हैं
और कब ओझल हो जाते हैं
बादल आते भी हैं या नहीं
क्या मालूम हवा
गुनगुना रही होती है
या शोक-गीत
गा रही होती है
न जाने दिशाएँ
सूखे बीज-सी बज रही होती हैं
या चुप होती हैं
विसर्जित कर
अपना सारा शोर-शराबा
जब दुख मेरे पास बैठा होता है
मुझे अपनी परछाईं भी
नज़र नहीं आती
केवल एक सलेटी अहसास होता है
शिराओंं में इस्पात के
भर जाने का
केवल एक पीली गंध होती है
भीतर कुछ सड़ जाने की
और पुतलियाँ भारी हो जाती हैं
न जाने किन दृश्यों के बोझ से
सुशांत सुप्रिय
मार्फ़त श्री एच. बी. सिन्हा
5174, श्यामलाल बिल्डिंग ,
बसंत रोड , ( निकट पहाड़गंज ) ,
नई दिल्ली -110055
मो: 09868511282 / 08512050086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com
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१. गुजरात : २००२
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--- सुशांत सुप्रिय
जला दिए गए मकान में
मैं नमाज़ पढ़ रहा हूँ
उस मकान में जो अब नहीं है
जिसे दंगाइयों ने जला दिया था
वहाँ जहाँ कभी मेरे अपनों की चहल-पहल थी
उस मकान में अब कोई नहीं है
दरअसल वह मकान भी अब नहीं है
जला दिए गए उसी नहीं मौजूद मकान में
मैं नमाज़ पढ़ रहा हूँ
यह सर्दियों का एक
बिन चिड़ियों वाला दिन है
जब सूरज जली हुई रोटी-सा लग रहा है
और शहर से संगीत नदारद है
उस जला दिए गए मकान में
एक टूटा हुआ आइना है
मैं जिसके सामने खड़ा हूँ
लेकिन जिसमें अब मेरा अक्स नहीं है
आप समझ रहे हैं न ?
जला दिए गए उसी नहीं मौजूद मकान में
मैं लौटता हूँ बार-बार
वह मैं जो दरअसल अब नहीं हूँ
क्योंकि उस मकान में अपनों के साथ
मैं भी जला दिया गया था
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२. हर बार
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--- सुशांत सुप्रिय
हर बार
अपनी तड़पती छाया को अकेला छोड़ कर
लौट आता हूँ मैं
जहाँ झूठ है, फ़रेब है, बेईमानी है, धोखा है
हर बार अपने अस्तित्व को खींच कर
ले आता हूँ दर्द के इस पार
जैसे-तैसे एक नई शुरुआत करने
कुछ नए पल चुरा कर
फिर से जीने की कोशिश में
हर बार ढहता हूँ, बिखरता हूँ
किंतु हर हत्या के बाद
वहीं से जी उठता हूँ
जहाँ से मारा गया था
जहाँ से तोड़ा गया था
वहीं से घास की नई पत्ती-सा
फिर से उग आता हूँ
हर बार
शिकार किए जाने के बाद भी
एक नई चिड़िया बन जाता हूँ
एक नया आकाश नापने के लिए ...
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३. छटपटाहट भरे कुछ नोट्स
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--- सुशांत सुप्रिय
( एक )
आज चारो ओर की बेचैनी से बेपरवाह
जो लम्बी ताने सो रहे हैं
वे सुखी हैं
जो छटपटा कर जाग रहे हैं
वे दुखी हैं
( दो )
आज हमारी बनाई इमारतें
कितनी ऊँची हो गई हैं
लेकिन हमारा अपना क़द
कितना घट गया है
( तीन )
आज विश्व एक
ग्लोबीय गाँव बन गया है
हमने स्पेस-शटल
बुलेट और शताब्दी रेलगाड़ियाँ बना ली हैं
एक जगह से दूसरी जगह की दूरी
कितनी कम हो गई है
लेकिन आदमी और आदमी के
बीच की दूरी
कितनी बढ़ गई है
( चार )
आज दीयों के उजाले
कितने धुँधले हो गए हैं
आज क़तार में खड़ा
आख़िरी आदमी
कितना अकेला है
( पाँच )
आज लम्बी-चौड़ी गाड़ियों में
घूम रहे हैं छोटे लोग
बड़े-बड़े बंगलों में
रह रहे हैं लघु-मानव
बौने लोग डालने लगे हैं
लम्बी परछाइयाँ
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४. कोई और
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--- सुशांत सुप्रिय
एक सुबह
उठता हूँ
और हर कोण से
ख़ुद को पाता हूँ अजनबी
आँखों में पाता हूँ
एक अजीब परायापन
अपनी मुस्कान
लगती है
न जाने किसकी
बाल हैं कि
पहचाने नहीं जाते
अपनी हथेलियों में
किसी और की रेखाएँ
पाता हूँ
मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि
ऐसा भी होता है
हम जी रहे होते हैं
किसी और का जीवन
हमारे भीतर
कोई और जी रहा होता है
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५. जब दुख मेरे पास बैठा होता है
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--- सुशांत सुप्रिय
जब दुख मेरे पास बैठा होता है
मैं सब कुछ भूल जाता हूँ
पता नहीं सूरज और चाँद
कब आते हैं
और कब ओझल हो जाते हैं
बादल आते भी हैं या नहीं
क्या मालूम हवा
गुनगुना रही होती है
या शोक-गीत
गा रही होती है
न जाने दिशाएँ
सूखे बीज-सी बज रही होती हैं
या चुप होती हैं
विसर्जित कर
अपना सारा शोर-शराबा
जब दुख मेरे पास बैठा होता है
मुझे अपनी परछाईं भी
नज़र नहीं आती
केवल एक सलेटी अहसास होता है
शिराओंं में इस्पात के
भर जाने का
केवल एक पीली गंध होती है
भीतर कुछ सड़ जाने की
और पुतलियाँ भारी हो जाती हैं
न जाने किन दृश्यों के बोझ से
सुशांत सुप्रिय
मार्फ़त श्री एच. बी. सिन्हा
5174, श्यामलाल बिल्डिंग ,
बसंत रोड , ( निकट पहाड़गंज ) ,
नई दिल्ली -110055
मो: 09868511282 / 08512050086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com
बहुत अच्छा लगा सुशांत जी को पढकर |
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचनाएँ साझा करने के लिए आपको व् सुशांत जी दोनों को हार्दिक बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर चयन सुंदर रचनाऐं ।
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ सोचने को मजबूर करती कवितायें ...बहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कवितायेँ हैं सुशांत प्रिय जी की .
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया
जवाब देंहटाएंसुशांत सुप्रिय जी से परिचय और उनकी काव्य कृति झलक प्रस्तुति के लिए धन्यवाद
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