तुमने 
हाँ तुमने 
मेरी आँखों में अर्जुन की आँखों की खूबी दे 
जो लक्ष्य से परे न देखे 
कर्ण कवच के भीतर मुझे सुरक्षित किया 
ताकि कोई आँधी मुझे बिखराये नहीं 
लक्ष्य और कवच ने 
मुझे संजय सी दृष्टि दी 
ताकि मैं वह सब देख सकूँ 
जो अक्सर ओझल हो जाता है 
या फिर दिखाई देते हुए भी 
अनदेखा होता है  … 

          रश्मि प्रभा 

ब्लॉग जो हैं, लेकिन कम पढ़े गए -

ज़िंदा कातिल पर भारी पड़ता है एक मुर्दा सन्नाटा


"ज़िंदा कातिल पर भारी पड़ता है एक मुर्दा सन्नाटा
काँप जाता है ज़िंदा आदमी
तुम अहिंसक गांधी को पराक्रम से नहीं, पैर छू कर गोली से मार सकते हो
तुम ईसा को सूली पर चढ़ा सकते हो ...तो चढ़ा दो उसे
ठोक दो कीलें उसके दिल दिमाग हाथ और पैरों पर
क़त्ल कर दो उसे सरेआम
उसकी मौत तुम पर भारी पड़ेगी एक दिन
वातावरण में व्याप्त हो जाएगा कातिलों को कफ़न उढाता उसका नाम
मंडेला से मिश्र तक क्यूबा से कुवैत तक हर क्रान्ति पर दर्ज होगा उसका नाम
राजनीतिक भूगोल में क़त्ल कर दिए गए लोग कातिल से अधिक कामयाब हैं
तुमने गांधी को मारा था
और चुनाव लड़ते में तुम्हारी जुबान पर गांधी का दिया ही नारा था
स्वदेशी हो रामराज्य या स्वराज्य गांधी का दिया नारा था
जो आज भी तुम्हारा सहारा था
गांधी की ह्त्या करनेके के बाद तुम एक नारा भी नहीं गढ़ सके ?
जब कातिलों ने सूली पर टांगा था ईसा को तो उन्हें नहीं पता था
खंडित हो जाएगा काल
और फिर वह "काल-खंड" कहलाएगा
टांगा था ईसा को तो देखलो यह सच लटकता हुआ ...खंडित काल खंड
युग बाँट गया "ईसा पूर्व" और "ईसा बाद" में .
पर याद रखो
ईसा मसीह के अनुयायी
साल दर साल सलीब सजाते हैं
लाखों नयी सलीब बनाते हैं
और उसपर ईसा को टांग कर जश्न मनाते हैं
सलीबें तोड़ते नहीं देखे
याद रहे
ईसा के अनुयाईयों ने ही टांगा था गैलीलियो को मौत के सलीब पर
गैलीलियो सच था और फिर ब्रम्हांड बाँट गया
सलीब पर टंगे लोगों की आह से
दुनिया बाँट गयी पहली दूसरी और तीसरी दुनिया में
सलीब पर टंगा असहाय दिखता सच
काल खंड को बाँट देता है
क्योंकि सच के लिए मर चुका आदमी दोबारा मर नहीं सकता
इसलिए निर्भीक होता है ...पूरी तरह एक मुर्दा मृतुन्जय
सच के लिए सचमुच मर चुके लोगो
अब तुम्हारे ज़िंदा होने का समय आ गया है
पहले से भी ज्यादा ज़िंदा और धड़कते हुए
ईसा पूर्व ...ईसा बाद, ...शताब्दी, ...साल महीने ..सप्ताह ..दिल में धड़कते हुए
बता दो उन्हें क़ि तुम जिन्हें वक्त की सूली पर टंगा मरा हुआ सा असहाय समझते थे
वह सभी सत्य ज़िंदा होगये हैं
तारीख बदलेगी तो तवारीख भी बदलेगी ...तश्दीक कर लेना
जब जब दमन होगा तुमको गांधी याद आयेंगे गौडसे नहीं
बदल दो नए साल का केलेंडर
कितना बदलोगे कितनी बार बदलोगे
विश्व के क्रान्ति पटल पर गांधी ज़िंदा है
विज्ञान में गैलीलियो और अभिमान में सूली पर टंगा ईसा ज़िंदा है
मुर्दा कातिलों को कफ़न उढाओ,
यह सभ्यता इनकी करतूत से शर्मिंदा है ." ----

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राजीव चतुर्वेदी






समय और वृक्ष

तूफान से उखड़कर जमीं पर पड़े
अपनी अंतिम सांस-प्रश्वांस ले रहे
उस विशालकाय वृक्ष को देखकर
समय ने मुस्करा कर बात छेड़ी –
कहो दरख्त ! अकड़ कैसी रही?
मैंने कहा था न, समय को पहचानो
समय है अवसर, अवसर को जानो,
नमनीयता है दीर्घायु पाने का सूत्र,
परन्तु तूने मेरी बात नहीं मानी,
जो झुक गए, आज भी वहीं खड़े
और तुम कैसे असहाय से पड़े?
इस असह्य दर्दनाक क्षणों मे भी
वृक्ष ने अपनी मर्यादा को नहीं छोड़ा
इस व्यंग्य-वाणी के प्रत्युत्तर मे उसने
संयमित आशावादी स्वर का रस घोला,
गिरा हुआ ठूंठ भी प्रकृति के साहचर्य मे
जब हरा - भरा होकर उठ सकता है तो
मैं तो फल-फूलों से भरपूर लदा हूँ
एक दिन मेरी संतति उग आएगी
तुम एक पेड़ की बात करते हो
वह बाग– उपवन– जंगल बसाएगी।

समय ! तूने मेरा भूत देखा है
आज वर्तमान देख रहे हो तो
कल भविष्यत भी अवश्य देखना,
मुझपर न हँसो, हँसना है तो हँसो
उनपर, जो तूफानों के तलवे चाटते हैं,
उनपर, जिन्हे अकड़ना तो आता है
परंतु उगना और उठना नहीं आता ।

सुनो समय !
जिसे तुम जीवित कहते हो, वे मृत हैं
क्या कोई जीवित रहा है, ‘स्व’ खोकर?
स्वाभिमानी ‘थू करता है’ ऐसे जीवन पर,
मृत्यु है ... उससे सहस्र गुना बेहतर ... ।

अवचेतन हूँ तो क्या हुआ
इतना नासमझ भी तो नहीं,
नियम से यदि बंधे हो तुम भी
तो नियति से बंधे हैं हम भी,
जानता हूँ, आता है जीवन मे
कभी-कभी ऐसा कोई क्षण जहाँ
मृत्यु, जीवन से बाजी मार ले जाती है
जहाँ जीवन, मृत्यु की दासी बन जाती है।  

कभी कहा था तुम्ही ने –
जीवित रहते हैं केवल दो ही
स्वाभिमानी और निराभिमानी,
वे ही भोगते राज-सुख या स्वर्ग-सुख
क्योकि ‘स्व’ को तो, दो ही जानते  
स्वाभिमानी और निराभिमानी ।
‘स्व’ ही सत्व है, आत्म-तत्व है
और आत्म-तत्व यह अजर-अमर है ।
रहस्योद्घाटन किया था उस धर्मक्षेत्र मे,
उस कुरुक्षेत्र मे तुम्ही ने– ‘मैं समय हूँ’,

समय ! तू सचमुच मनमोहन है
थोड़ा नटखट है और छलिया भी ...
कालिंदी तट पर मैं ही खड़ा था
जिसपर टांगे थे तुमने  गोपियों के पट
यह कहकर कि आत्म-परमात्म ऐक्य मे
बाधक है तन-मन का कोई भी आवरण,
हो सकता है तुम्हें पसंद न आया हो
ओढ़े रहना मेरा ‘स्व’ का यह आवरण।

समय! यह प्रलाप मेरा नहीं, तुम्हारा गीत है
स्वाभिमानी जीवन उसी गीत का संगीत है,
याद है तुम्हें, बर्बरीक का सिर काटकर
तूने मेरी ही एक शाखा पर टांगा था,
मैं तब भी था मूर्तमान, अब भी हूँ मूर्तमान ।
समय ! यदि अतीत को मैं नहीं पा सकता
तो तुम भी भूतकाल को नहीं पा सकते,
समय ! मैं पुनः पुनः खड़ा हो सकता हूँ
परंतु तुम? तुम पीछे नहीं लौट सकते ॥ 
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 डॉ॰ जयप्रकाश तिवारी     





अब समय है एक विराम का, मिलती हूँ एक छोटे से विराम के बाद....

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