पेशा सख्त,बनावट कोमल और सोच स्वप्निल … पर यथार्थ से जुड़े .... देखा आज वर्तिका नंदा का ब्लॉग http://vartikananda. blogspot.in/ और आदतन मैं इस ब्लॉग की धरती का चप्पा चप्पा आँखों से पीने लगी, कुछ मिठास, कुछ तीखापन,कुछ खट्टा-मीठा आपके लिए भी ले आई हूँ, - एहसास,सपने,जमीनी हकीकत के विशिष्ट पहलुओं को मैं कभी अकेले नहीं देखती . मैं विशिष्ट पाठकों तक विशिष्ट लेखन लाती हूँ, विशिष्ट लेखन को नए विशिष्ट पाठक देती हूँ - यह मेरा साहित्यिक प्रयास है और इस प्रयास की एक कड़ी हमारी परिकल्पना -
वह पेड़...
लोकाट को वो पेड़
पठानकोट के बंगले के सामने वाले हिस्से में
एक महिला चौकीदार की तरह तैनात रहता था।
फल रसीला
मोटे पत्तों से ढका।
तब घर के बाहर गोलियां चला करती थीं
पंजाब सुलग रहा था
कर्फ्यू की खबर सुबह के नाश्ते के साथ आती थी
कर्फ्यू अभी चार दिन और चलेगा
ये रात के खाने का पहला कौर होता था।
बचपन के तमाम दिन
उसी आतंक की कंपन में गुजरे
नहीं जानते थे कि कल अपनी मुट्ठी में आएगा भी या नहीं
मालूम सिर्फ ये था कि
बस यही पल, जो अभी सांसों के साथ सरक रहा है,
अपना है।
लेकिन लोकाट के उस पेड़ को कोई डर नहीं था
गिलहरी उस पर खरगोश की तरह अठखेलियां करती
चिड़िया अपनी बात कहती
मैं स्कूल से आती तो
लोकाट के उस पेड़ के साथ छोटा सा संवाद भी हो जाता।
पंजाब में अब गोलियों की आवाज चुप है
तब जबकि बचपन के दिन भी गुजर गए
लेकिन आज भी जब-तब याद आते हैं
कर्फ्यू के वे अनचाहे बिन-बुलाए डरे दिन
और लोकाट का वह मीठा पेड़।
मैं-मैं और मैं- यानी एक पत्रकार
कसाईगिरी
तुम और हम एक ही काम करते हैं
तुम सामान की हांक लगाते हो
हम खबर की ।
रूपए वसूलते हो
हम बेकार को 'खास' बताकर टीआरपी बटोरते हैं
लेकिन तुममें और हममें कुछ फर्क भी है।
तुम्हारी रेहड़ी से खरीदी बासी सब्ज़ी
कुकर पर चढ़कर जब बाहर आती है
तो किसी की ज़िंदगी में बड़ा तूफान नहीं आता।
तुम जब बाज़ार में चलते हो
तो खुद को अदना सा दुकानदार समझते हो
तुम सोचते हो कि
रेहड़ी हो या हट्टी
तुम हो जनता ही
बस तुम्हारे पास एक दुकानदारी है
और औरों के पास सामान खऱीदने की कुव्वत।
तुम हमारी तरह फूल कर नहीं चलते
तुम्हें नहीं गुमान कि
तुम्हारी दुकान से ही मनमोहन सिंह या आडवाणी के घर
सब्ज़ी जाती है
लेकिन हमें गुमान है कि
हमारी वजह से ही चलती है
जनसत्ता और राजसत्ता।
हम मानते हैं
हम सबसे अलहदा हैं
खास और विशिष्ट हैं।
पर एक फर्क हममें और तुममें ज़रा बड़ा है
तुम कसाई नहीं हो
और हम पेशे के पहले चरण में ही
उतर आए हैं कसाईगिरी पर।
एक मामूली औरत
आंखों के छोर से
पता भी नहीं चलता
कब आंसू टपक आता है और तुम कहते हो
तुम देख आए तारे ज़मी पे
तो तुम्हें लगा कि सपने
यूं ही संगीत की थिरकनों के साथ उग आते हैं।
नहीं, ऐसे नहीं उगते सपने।
मैं औरत हूं
अकेली हूं
पत्रकार हूं।
मैं दुनिया भर के सामने फौलादी हो सकती हूं
पर अपने कमरे के शीशे के सामने
मेरा जो सच है,
वह सिर्फ मुझे ही दिखता है
और उसी सच में, सच कहूं,
सपने कहीं नहीं होते।
तुमसे बरसों मैनें यही मांगा था
मुझे औरत बनाना, आंसू नहीं
तब मैं कहां जानती थी
दोनों एक ही हैं।
बस, अब मुझे मत कहो
कि मैं देखूं सपने
मैं अकेली ही ठीक हूं
अधूरी, हवा सी भटकती।
पर तुम यह सब नहीं समझोगे
समझ भी नहीं सकते
क्योंकि तुम औरत नहीं हो
तुमने औरत के गर्म आंसू की छलक
अपनी हथेली पर रखी ही कहां?
अब रहने दो
रहने दो कुछ भी कहना
बस मुझे खुद में छलकने दो
और अधूरा ही रहने दो।
मीडिया नगरी
किताब में पढ़ लिया
और तुमने मान भी लिया
कि मीडिया सच का आईना है !
तुमने जिल्द पर शायद देखा नहीं
वो किताब तो पिछली सदी में लिखी गई थी
तब से अब तक में 'सच' न जाने कितनी पलटियां ले चुका
और तुम अभी भी यही मान रही हो
कि मीडिया सच को दिखाता है !
सुनो
नई परिभाषा ये है कि
मीडिया सच पर नहीं
टीआरपी पर टिका है
पर एक सच और है
मीडिया मजबूर है
और जो खुद मजबूर है
वो तुम्हें रास्ता क्या-कैसे दिखाए
हां, तुम ठीक कहती हो
हम-तुम दोनों मिलकर एक नए मीडिया की तलाश करते हैं
बोलो, मंगल पर चलें या प्लूटो पर
अब यह तो तुम ही तय करो
लेकिन सुनो
वक्त गुजारने के लिए
ये सपना अच्छा है न!
डॉ वर्तिका नन्दा
इसी के साथ आज का कार्यक्रम सम्पन्न,
मिलती हूँ कल फिर सुबह 10 बजे परिकल्पना पर ...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति.... स्त्री तो स्वयं शक्ति होती है ..
जवाब देंहटाएंक्योंकि तुम औरत नहीं हो
जवाब देंहटाएंतुमने औरत के गर्म आंसू की छलक
अपनी हथेली पर रखी ही कहां?
तुमसे बरसों मैनें यही मांगा था
जवाब देंहटाएंमुझे औरत बनाना, आंसू नहीं
तब मैं कहां जानती थी
दोनों एक ही हैं।
बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति है वर्तिका जी की रचनाओं में
आज बहुत दिनों के बाद बहुत कुछ बहुत अच्छा पढ़ने को मिल गया :)
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