सुना - अपने देश के नौजवान क्रुद्ध हैं 
अपने देश की जो है परम्परा - उससे वे रुष्ट और क्षुब्ध हैं 
सच है, यौवन चलता सदा गर्व से 
सिर ताने , शर खींचे  … 
और सच ये भी है कि 
यौवन के उच्छल प्रवाह को
देख मौन , मन मारे
सहमी हुई बुद्धि रहती है
निश्छल खड़ी  किनारे | (रामधारी सिंह दिनकर)

My Photo(डॉ. मोनिका शर्मा)


अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका लांसेट का सर्वे कहता है कि भारत में युवाओं की मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण है आत्महत्या।  हालांकि हमारे समाज और परिवारों का विघटन जिस गति से हो रहा है किसी शोध के ऐसे नतीजे चौंकाने वाले नहीं हैं। जीवन का अंत करने वाले इन युवाओं की उम्र है 15 से 29 वर्ष है। यानि कि  वो  आयुवर्ग जो  देश का भविष्य है। एक ऐसी उम्र जो अपने लिए ही नहीं समाज, परिवार और देश के लिए कुछ स्वपन संजोने और उन्हें पूरा करने की ऊर्जा और उत्साह का दौर होती है। पर जो कुछ हो रहा है वो हमारी आशाओं और सोच के बिल्कुल विपरीत है। 

शिखर पर अकेलापन 

आमतौर पर माना जाता है कि गरीबी अशिक्षा और असफलता से जूझने वाले युवा ऐसे कदम उठाते हैं। ऐसे में इस सर्वे के परिणाम थोड़ा हैरान करने वाले हैं। इस शोध के मुताबिक उत्तर भारत के बजाय दक्षिण भारत में आत्महत्या करने वाले युवाओं की संख्या अधिक है। इतना ही नहीं देशभर में आत्महत्या से होने वाली कुल मौतों में से चालीस प्रतिशत अकेले चार बड़े दक्षिणी राज्यों  में होती हैं । यह बात किसी से छिपी ही नहीं है कि शिक्षा का प्रतिशत दक्षिण भारत में उत्तर भारत से कहीं ज्यादा है। काफी समय पहले से ही वहां रोजगार के बेहतर विकल्प भी मौजूद रहे हैं। ऐसे में देश के इन हिस्सों में भी आए दिन ऐसे समाचार अखबारों में सुर्खियां बनते हैं । इनमें एक बड़ा प्रतिशत जीवन से हमेशा के लिए पराजित होने वाले ऐसे युवाओं का है जो सफल भी हैं, शिक्षित भी और धन दौलत तो इस पीढ़ी ने उम्र से पहले ही बटोर लिया है। 

सच तो यह है कि बीते कुछ बरसों में नई  पीढ़ी पढाई अव्वल आने की रेस और फिर अधिक से अधिक वेतन पाने की दौड़  का हिस्सा भर बनकर रह गयी है । परिवार और समाज में आगे बढ़ने और सफल होने के जो मापदंड तय हुए वे सिर्फ आर्थिक सफलता को ही सफलता मानते हैं । इसके लिए शिक्षित होने के भी मायने बदल गए । पढाई सिर्फ मोटी तनख्वाह वाली नौकरी पाने  का जरिया बन कर रह गयी । इस दौड़ में शामिल युवा पीढ़ी परिवार और समाज से इतना दूर  हो गयी कि वे किसी की सुनना और अपनी कहना ही भूल  गए  । समय के साथ उनकी आदतें भी कुछ ऐसी हो चली  हैं कि मौका मिलने पर भी वे परिवार के साथ नहीं रहना चाहते। उनके जीवन में ना ही रचनात्मकता बची है और ना ही आपसी लगाव का  कोई स्थान रहा है  ।  परिणाम हम सबके सामने हैं । आज  जिस आयुवर्ग के युवा आत्महत्या जैसे कदम उठा रहे हैं वे परिवार और समाज के सपोर्ट सिस्टम से काफी दूर ही रहे हैं। इस पीढी का लंबा समय घर से दूर पढाई करने में बीता है और फिर नौकरी करने के लिए भी परिवार से दूर ही रहना पड़ा है।  इनमें बड़ी संख्या में ऐसे नौजवान हैं जो घर से दूर रहकर करियर के  शिखर पर तो पहुंच जाते हैं पर उनका मन और जीवन दोनों सूनापन लिए है।  उम्र के इस पड़ाव पर उनके पास सब कुछ पा लेने का सुख  है तो पर कहीं कुछ छूट जाने की टीस भी है। कभी कभी यही अवसाद और अकेलापन जन असहनीय हो जाता है तो वे जाने अनजाने अपने ही जीवन के अंत की राह  चुन लेते हैं । 

देखने में तो यही लगता है कि सफलता के शिखर पर बैठे इन युवाओं के जीवन में ना तो कोई दर्द है और ना ही कोई दुख।  ऐसे में ये आँकड़े सोचने को विवश करते हैं कि क्या ये पीढी इतना आगे बढ गयी है कि जीवन ही पीछे छूट गया है ? जिस युवा पीढी के भरोसे भारत वैश्विक शक्ति बनने की आशाएं संजोए है वो यूं जिंदगी के बजाय मौत का रास्ता चुन रही है, यह हमारे पूरे समाज और राष्ट्र के लिए दुर्भागयपूर्ण  ही कहा जायेगा । 

क्यों करते हैं वे ऐसा? कौन है दोषी इसका?

कहा जाता है कि बच्चों का सबसे अधिक संवेदनात्मक और आत्मीय सम्बंध अपनी मां से होता है, किन्तु जब वही बच्चे अपनी मां की निर्मम हत्या कर दें तब क्या कहा जाए? कुछ समय पहले दिल्ली के एक प्रतिष्ठित निजी स्कूल के 12वीं कक्षा के छात्र ने अपनी मां की सिर पर हथौड़े से वार करके हत्या कर दी। यह हत्या क्षणिक आक्रोश में आकर नहीं की गई थी, अपितु सोच-समझकर गुपचुप तरीके से की गई थी। हत्या का कारण यह बताया गया कि बच्चे की मां उसे पढ़ाई और उसकी मित्र के कारण डांटा करती थी। यह बात तो पहले ही सामने आ चुकी थी कि आज के युवाओं की असीम ऊर्जा सही दिशा न मिलने के कारण नकारात्मक प्रवृत्तियों की ओर बढ़ रही है। किन्तु किसी ने यह अनुमान भी न लगाया होगा कि यह आक्रोश इतना बढ़ जाएगा कि वह जीवन की डोर थमाने वाली मां को ही अपना शिकार बना लेगा। आखिर क्यों और कहां से आया यह आक्रोश? ऐसी घटनाएं अपने साथ क्या संदेश लाती हैं? क्या आज की युवा पीढ़ी इतनी असंवेदनशील और संस्कारहीन हो गई है कि वह हत्या करने जैसे आत्यंतिक कदम भी उठा ले? इस विकृत मनोवृत्ति के क्या कारण हैं? कहां तक दोषी हैं माता-पिता और क्या भूमिका है आज की शिक्षा पद्धति की? आज की यह भौतिकतावादी और भागदौड़ भरी जिंदगी हमें किस मंजिल पर पहुंचा रही है? ऐसे कुछ प्रश्नों पर हमने दिल्ली में शिक्षा जगत से जुड़े कुछ विशेषज्ञों से बातचीत की। प्रस्तुत है विशेषज्ञों की राय -

छात्रों को विवेक दे आज की शिक्षा

--सूरज प्रकाश

प्रधानाचार्य, केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल, विद्यालय, दिल्ली

ये घटनाएं इस बात का स्पष्ट प्रमाण हैं कि हमारे युवाओं में हिंसक प्रवृत्ति खतरनाक ढंग से बढ़ रही है। युवाओं का यह रोष पूरी व्यवस्था के विरुद्ध है। उसे अपना भविष्य अनिश्चित नजर आता है। उसके अंदर असीम ऊर्जा भरी हुई है किन्तु उस ऊर्जा के प्रयोग के लिए युवा सही राह नहीं चुन पाता, फलस्वरूप इस ऊर्जा का प्रयोग वह गलत कार्यों में करने लगता है।

आज के बच्चों से अभिभावक बहुत अधिक अपेक्षाएं रखते हैं। जिसके कारण उन पर सामाजिक दबाव बहुत बढ़ गया है। समाज की तथाकथित कसौटियों पर खरा न उतर पाने के कारण उनमें हीन भावना भर जाती है। बच्चों के साथ किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए, उनकी भावनाओं को कैसे समझें, इसके लिए अभिभावकों को भी विशेष रूप से शिक्षित होना चाहिए। आजकल माता-पिता अपनी सभी इच्छाएं अपने बच्चों के द्वारा पूरी करवाना चाहते हैं। यह गलत है। दूसरी ओर, मीडिया उन्हें सब्ज-बाग दिखाता है और सपनों की पूर्ति न होने पर वे कुंठित हो जाते हैं।

हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में यह बहुत बड़ी कमी है कि छात्रों को अपने पैरों पर खड़ा होने में बहुत समय लग जाता है। होना यह चाहिए कि दसवीं कक्षा तक छात्र इतना सक्षम हो जाए कि वह स्वयं आगे बढ़कर उच्च स्तर तक पहुंच सके। हमारी शिक्षा से अध्यात्मवाद गायब हो चुका है जबकि अध्यात्मवाद हमारी बहुत-सी समस्याओं का समाधान है। हमें अपनी शिक्षा में लचीलापन लाना चाहिए। छात्रों के भीतर छिपी कलात्मक प्रतिभाओं को उभारना होगा और उन्हें वि·श्वविद्यालय स्तर तक मान्यता देनी होगी।

आज इक्कीसवीं सदी में शिक्षा अगर छात्रों को कुछ दे सकती है तो उसे विवेक देना चाहिए। उसमें अच्छे-बुरे की पहचान करने की क्षमता विकसित करे। अध्यापकों को भी समय-समय पर प्रशिक्षण देना चाहिए, उन्हें बाल-मनोविज्ञान से परिचित कराना चाहिए। अध्यापकों को चाहिए कि वह केवल विषय न पढ़ाएं अपितु छात्रों को केन्द्र में रखते हुए उन्हें समझें और समझाएं।

आज के भौतिकतावादी युग में हम बच्चों को सार्थक समय नहीं दे पाते। उसकी पूर्ति पैसों से करने का प्रयास करते हैं। यह एक गलत प्रवृत्ति है। माता-पिता के साथ बिताए गए समय की पूर्ति किसी भी वस्तु से नहीं हो सकती। अभिभावकों से मिलने वाले संस्कार, शिक्षा कहीं और से नहीं मिल सकती।

मीडिया में बाल-सुलभ क्रीड़ाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। मीडिया में बढ़ती हिंसा को संयमित करने की बहुत आवश्यकता है। बच्चों को यह सिखाया जाता है कि मां-बाप उनके आदर्श हैं। किन्तु उनमें भी अनेक कमियां होती हैं। जब बच्चा उनकी कथनी-करनी में अंतर देखता है तो वह पूरी तरह भ्रमित हो जाता है।

इस प्रकरण को ध्यान से देखें तो केवल मां की डांट से नाराज होकर ही बच्चे ने हत्या नहीं की होगी। उसके मन में काफी समय से अवसाद भर रहा होगा। मां की डांट ने तो केवल बारूद में चिंगारी लगाने का काम किया। लेकिन फिर भी उसे चाहे कितना ही अपमान क्यों न मिला हो पर हम बच्चों के इस कृत्य को न्यायोचित नहीं ठहरा सकते। हम बच्चों के अधिकार की बात तो करते हैं लेकिन यह भूल जाते हैं कि मां के भी कुछ अधिकार हैं, अध्यापकों के भी कुछ अधिकार हैं। जहां तक मनोवैज्ञानिक परामर्शों की बात है तो उसकी आवश्यकता केवल बच्चों को ही नहीं, माता-पिता और अध्यापकों को भी है।

पाठ्यक्रम के बढ़ते बोझ से बच्चे की निजी जिंदगी भी प्रभावित होती है। किन्तु जब इसमें कमी लाने का प्रयास किया जाता है तो उसे राजनीतिक रंग दे दिया जाता है। यह सही है कि विद्यालय में पढ़ाए जा रहे पाठ्यक्रमों के आधार पर छात्र अपना भविष्य नहीं बना पाते। उन्हें जिस भी कार्य क्षेत्र में जाना होता है उसके लिए वे विशेष पढ़ाई करते हैं। किन्तु हमारे विद्यालय भी दुविधा में फंसे हैं कि वे केन्द्रीय शिक्षा बोर्ड की परीक्षाओं के अनुरूप पढ़ाएं या फिर विभिन्न क्षेत्रों की प्रवेश परीक्षा के अनुरूप। इसके लिए पूरी व्यवस्था में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है।

हमारे देश में शिक्षा को प्राथमिकता नहीं दी जाती। राजनीतिक व्यवस्था में भी शिक्षा को स्थान नहीं दिया जाता। मीडिया में इस विषय पर विशेष चर्चा नहीं की जाती है। सिर्फ शिक्षाविद के चिल्लाते रहने से कुछ नहीं होता। इस विषय पर समाज के हर वर्ग को खुलकर सामने आना चाहिए। इन छात्रों में बढ़ते रोष का तात्कालिक हल तो यही है कि माता-पिता, विद्यालय और बच्चों में लगातार संवाद बना रहे, शिक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन तो बाद की बात है।

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          इस बात से सभी वाकिफ हैं की आज की युवा पीढ़ी अगर बहुत कुशाग्र नहीं है तो उसका रुख अपराधों की ओर अधिक हो रहा है? बैक पर सवार लड़के जंजीर खींचने को सबसे अच्छा कमी का साधन समझ रहे हैं. छोटे बच्चों को अगुआ कर फिरौती माँगना और फिर उनकी हत्या कर देना? सारे बाजार के सामने किसी को भी लूट लेना? ये आम अपराध हैं और इनसे सबको ही दो चार होना पड़ता है. खबरों के माध्यम से, कभी कभी तो आँखों देखि भी बन रहा है. 
                         
                            कभी इन युवाओं के इस अपराध मनोविज्ञान के बारे में भी सोचा गया है. अगर पकड़ गए तो पुलिस के हवाले और पुलिस भी कुछ ले दे कर मामला रफा-दफा करने में कुशलता का परिचय देती  है. ये युवा जो देश का भविष्य है , ये कहाँ जा रहे हैं?  बस हम यह कह कर अपने दायित्व की इतिश्री समझ लेते  हैं कि जमाना बड़ा ख़राब हो गया है, इन लड़कों को कुछ काम ही नहीं है. पर कभी जहाँ हमारी जरूरत है हमने उसे नजर उठाकर देखा , उसको समझने की कोशिश की,  या उनके युवा मन के भड़काने वाले भावों को पढ़ा है. शायद नहीं?  हमने ही समाज का ठेका तो नहीं ले रखा है. हमारे बच्चे तो अच्छे निकल गए यही बहुत है? क्या वाकई एक समाज के सभ्य और समझदार सदस्य होने के नाते हमारे कुछ दायित्व इस समाज में पलने वाले और लोगों के प्रति बनता है कि नहीं? 
                           ये भटकती हुई युवा पीढ़ी पर नजर सबसे पहले अभिभावक कि होनी चाहिए और अगर अभिभावक कि चूक भी जाती है और  आपकी पड़  जाती है उन्हें सतर्क कीजिये? वे भटकने की रह पर जा रहे हैं. आप इस स्वस्थ समाज के सदस्य है और इसको स्वस्थ ही देखना चाहते हैं. बच्चों कई संगति  सबसे प्रमुख होती है. अच्छे पढ़े लिखे परिवारों के बच्चे इस दलदल में फँस जाते हैं. क्योंकि अभिभावक इस उम्र कि नाजुकता से अनजान बने रहते हैं.  उन्हें सुख सुविधाएँ दीजिये लेकिन उन्हें सीमित दायरे में ही दीजिये.  पहले अगर आपने उनको पूरी छूट दे दी तो बाद में शिकंजा कसने पर वे भटक सकते हैं. उनकी जरूरतें यदि पहले बढ़ गयीं तो फिर उन्हें पूरा करने के लिए वह गलत रास्तों पर भी जा सकते हैं.  इस पर आपकी नजर बहुत जरूरी है.
                      ये उम्र उड़ने वाली होती है, सारे शौक पूरे करने कि इच्छा भी होती है, लेकिन जब वे सीमित तरीकों में उन्हें पूरा नहीं कर पाते हैं तो दूसरी ओर भी चल देते हैं. फिर न आप कुछ कर पाते हैं और न वे. युवाओं के दोस्तों पर भी नजर रखनी चाहिए उनके जाने अनजाने में क्योंकि सबकी सोच एक जैसी नहीं होती है, कुछ असामाजिक प्रवृत्ति के लोग उसको सीढ़ी बना कर आगे बढ़ना चाहते हैं, तो उनको सब बातों से पहले से ही वाकिफ करवा देना अधिक उचित होता है. वैसे तो माँ बाप को अपने बच्चे के स्वभाव और रूचि का ज्ञान पहले से ही होता है. बस उसकी दिशा जान कर उन्हें गाइड करें, वे सही रास्ते पर चलेंगे. 

                             इसके लिए जिम्मेदार हमारी व्यवस्था भी है और इसके लिए एक और सबसे बड़ा कारण जिसको हम  नजर अंदाज करते चले आ रहे हैं, वह है आरक्षण का?  ये रोज रोज का बढ़ता हुआ आरक्षण - युवा पीढी के लिए एक अपराध का कारक बन चुका है. अच्छे मेधावी युवक अपनी मेधा के बाद भी इस आरक्षण के कारण उस स्थान तक नहीं पहुँच पाते हैं जहाँ उनको होना चाहिए.  ये मेधा अगर सही दिशा में जगह नहीं पाती  है तो वह विरोध के रूप में , या फिर कुंठा के रूप में भटक  सकती  है . जो काबिल नहीं हैं, वे काबिज हैं उस पदों पर जिन पर उनको होना चाहिए. इस वर्ग के लिए कोई रास्ता नहीं बचता है और वे इस तरह से अपना क्रोध और कुंठा को निकालने लगते हैं. इसके लिए कौन दोषी है? हमारी व्यवस्था ही न? इसके बाद भी इस आरक्षण की मांग नित बनी रहती है. वे जो बहुत मेहनत से पढ़े होते हैं. अगर  उससे वो नहीं  पा  रहे  हैं  जिसके  लिए  उन्होंने मेहनत की है तो उनके मन में इस व्यवस्था के प्रति जो आक्रोश जाग्रत होता है - वह किसी भी रूप में विस्फोटित हो सकता है. अगर रोज कि खबरों पर नजर डालें तो इनमें इंजीनियर तक होते हैं. नेट का उपयोग करके अपराध करने वाले भी काफी शिक्षित होते हैं. इस ओर सोचने के लिए न सरकार के पास समय है और न हमारे तथाकथित नेताओं  के पास. 
                                इस काम में वातावरण उत्पन्न करने में परिवार की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. वे बेटे या बेटियों को इस उद्देश्य से पढ़ातए है कि ये जल्दी ही कमाने लगेंगे और फिर उनको सहारा मिल जायेगा. ये बात है इस मध्यम वर्गीय परिवारों को. जहाँ मशक्कत करके माँ बाप पढ़ाई का खर्च उठाते हैं या फिर कहीं से कर्ज लेकर भी. उनको ब्याज भरने और मूल चुकाने कि चिंता होती है. पर नौकरी क्या है? और कितना संघर्ष है इसको वे देख नहीं पाते हैनौर फिर --
कब मिलेगी नौकरी?
तुम्हें इस लिए पढ़ाया  था कि सहारा मिल जाएगा. 
अब मैं ये खर्च और कर्ज नहीं ढो पा  रहा हूँ. 
सबको तो मिल जाती है तुमको ही क्यों नहीं मिलती नौकरी.
जो भी मिले वही करो.
इस पढ़ाई से अच्छ तो था कि अनपढ़ होते कम से कम रिक्शा तो चला लेते.
                             घर वाले परेशान होते हैं और वे कभी कभी नहीं समझ पाते हैं कि क्या करें? उनकी मजबूरी, उनके ताने और अपनी बेबसी उनको ऐसे समय में कहीं भी धकेल देती है. वे गलत रास्तों पर भटक सकते हैं. सबमें इतनी विवेकशीलता नहीं होती कि वे धैर्य से विचार कर सकें.  युवा कदम ऐसे वातावरण और मजबूरी में ही भटक जाते हैं. अपराध कि दुनियाँ कि चकाचौंध उनको फिर अभ्यस्त बना देती हैं. कुछ तो जबरदस्ती फंसा दिए जाते हैं और फिर पुलिस और जेल के चक्कर लगा कर वे पेशेवर अपराधी बन जाते हैं.
इन सब में आप कहाँ बैठे हैं? इस समाज के सदस्य हैं, व्यवस्था से जुड़े हैं या फिर परिवार के सदस्य हैं. जहाँ भी हों, युवाओं के मनोविज्ञान को समझें और फिर जो आपसे संभव हो उन्हें दिशा दें. एक स्वस्थ समाज के सम्माननीय सदस्य बनने के लिए , इस देश की भावी पीढ़ी को क्षय होने से बचाइए. इन स्तंभों  से ही हमें आसमान छूना है. हमें सोचना है और कुछ करना है. 

(रेखा श्रीवास्तव )

परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना ही, मिलती हूँ कल फिर इसी समय, इसी जगह, तबतक शुभ विदा। आपकी रश्मि प्रभा । 

8 comments:

  1. बहुत कुछ चारों
    ओर हो रहा है
    मैं मुझमें और
    मेरे सिवा भी
    कुछ कहीं है
    किसे मतलब
    हो रहा है
    जिसे मिलगयी
    दिशा खुद ही
    खुशकिस्मत है
    जो दिशाहीन हो गया
    खुद ही तो
    यहाँ हो रहा है
    जो हो रहा है
    अपने आप
    ही तो हो रहा है
    जिसे आ जा रही है
    नींद वो सो रहा है :)

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  2. बहुत उम्दा लिंक्स का संकलन ..... मुझे शामिल किया आभार आपका

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  3. युवा पीढ़ी की ऊर्जा सही दिशा में लगे इसकी कोशिश नितान्त आवश्यक है...उनके गलत आक्रोश को कभी स्वीकार न करें [-(

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  4. Indian society is at the crossroads and confluence of modernity and continuity. Connect to the outer world is so overwhelmingly unruly that the social and family values are under severe stress of erosion and/or upheaval. Technological and economic factors are so grave that society as whole is finding is quite difficult to keep marching, rather galloping, at a warranted pace with these phenomenon. These changing times are alarmingly stressful, as a whole. (Sorry for my comment being in English.)

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  5. आज प्रगति के मायने पैसा और अधिकार कमाने तक सीमित रह गए हैं . पारिवारिक,सामाजिक और नैतिक मूल्यों का महत्व दिन पर दिन कम होता जा रहा है ...ऐसे में क्या तो बच्चे और क्या अभिभावक सब विपरीत दिशाओं में दौड़ रहे हैं . शांत चित्त होकर मंज़िल की और बढ़ने का समय किसी के पास नहीं .
    बहुत सार्थक लेख है

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  6. युवा पीडी को हम दे क्या रहे हैं विरासत में निराशा ..........
    उत्तम

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  7. युवा पीढ़ी के भटकते कदमों को सही दिशा देने की बात सिर्फ अपने घर तक ही न सोचें बल्कि अगर आप कहीं किसी ऐसे घर में समाज में अपनी पैठ रखती हैं तो बच्चों को समझाएं , उन्हें सही दिशा का भान कराएं। फिर लोग खुद ही दिशा देने या फिर आप के पास लाने लगेंगे। हम समाज में रहते हैं तो इसकी मानसिकता को बदलने के लिए प्रतिबद्ध रहें।
    परिकल्पना पर इसा विषय को लेकर जो प्रस्तुति आपने की उसके लिए आप बधाई की पात्र हैं।

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