मैं देख रहा हूँ कि
कैसे आज सच को तपेदिक हो गया है ...कल्पनाएँ लूली-लंगडी हो गयी है और-
मर्यादा के गलियारों में घूमते हुए लोग कैसे सामना कर रहे हैं सच्चाई का
और-
विवस होकर कह रहे हैं-
शायद विधाता को यही मंजूर है !
सामाजिक सरोकार के अंतर्गत पढ़िए -
मीनाक्षी अरोड़ा का आलेख : आँखों को बेनूर कर रहा पानी ....यहाँ किलिक करें
कोई भी उत्सव हो यदि वहां बच्चों के लिए कुछ न हो तो सब कुछ फीका-फीका सा लगता है ....बच्चे नहीं तो उत्सव में रौनक नहीं .....बच्चे नहीं तो उत्सव में धमाल नहीं ....बच्चे नहीं तो उत्सव की प्रासंगिकता नहीं ....बच्चे नहीं तो उत्सव का माहौल नहीं ....या यों कहे तो बच्चे नहीं तो उत्सव नहीं .....इसलिए आज हम लेकर आये हैं बच्चों के लिए जाकिर अंकल की एक कविता ....यहाँ किलिक करें
उत्सव जारी है मिलते हैं एक अल्प विराम के बाद यानी सायं ०४ बजे परिकल्पना पर
इस उत्सव में बच्चों के आ जाने से उत्सवमयी चहल पहल हो गई है. बड़ा रंग बिरंगा माहौल हुआ है. रविन्द्र जी की परिकल्पना बहुत ऊँचा मकाम प्राप्त कर गई. आपका साधुवाद!!
जवाब देंहटाएं