श्री के० के० यादव का कहना है कि साहित्य के सरोकारों को लेकर आज समाज में एक बहस छिड़ी हुई है।
इस संक्रमण काल में कोई भी विधा मानवीय सरोकारों के बिना अधूरी है, सो साहित्य उससे अछूता कैसे रह सकता है। रीतिकालीन साहित्य से परे अब साहित्य में तमाम विचारधाराएं सर उठाने लगी हैं या दूसरे “शब्दों में समाज का हर वर्ग साहित्य में अपना स्थान सुनिश्चित करना चाहता है।
यही कारण है कि नव-लेखन से लेकर दलित विमर्श , नारी विमर्श , बाल विमर्श जैसे तमाम आयाम साहित्य को प्रभावित कर रहे हैं। कभी साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता था, पर अब साहित्य की इस भूमिका पर ही प्रश्नचिन्ह लगने लगे हैं।
दर्पण का कार्य तो मात्र अपने सामने पड़ने वाली वस्तु का बिम्ब प्रदर्शित .............विस्तार से पढ़ने के लिए यहाँ किलिक करें
उत्सव जारी है मिलते हैं एक अल्प विराम के बाद
yah chitra to nimad ke gangaour parv ko drshata hai ?
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