घर के सबसे उपेक्षित कोने में
बरसों पुराना जंग खाया बक्सा है एक
जिसमें तमाम इतिहास बन चुकी चीजों के साथ
मथढक्की की साड़ी के नीचे
पैंतीस सालों से दबा पड़ा है
माँ की डिग्रियों का एक पुलिन्दा
बचपन में अक्सर देखा है माँ को
दोपहर के दुर्लभ एकांत में
बतियाते बक्से से
किसी पुरानी सखी की तरह
मरे हुए चूहे सी एक ओर कर देतीं
वह चटख पीली लेकिन उदास साड़ी
और फिर हमारे ज्वरग्रस्त माथों सा
देर तक सहलाती रहतीं वह पुलिंदा.......!
पूरी कविता पढ़ने के लिए यहाँ किलिक करें
........... और अब एक ऐसी माँ की कविता से आप सभी को मैं रूबरू कराने जा रहा हूँ जो एक चार्टर्ड एकाउंटेंट बैंक एक्जीक्यूटिव की पत्नी हैं , साथ ही एक कुशल गृहिणी भी हैं कॉलेज की पढ़ाई के लिए बच्चों के घर छोड़ते ही , एकाकी होते हुए मन ने कलम उठा ली.....जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ नैनीताल निवासी शारदा अरोरा जी की ....आईये उनकी कविता :इश्क वफ़ा की सीढियाँ चढ़ कर....पढ़ते हैं और उनकी गहरी सवेदानात्मक अभिव्यक्तियों को आत्मसात करते हैं ........यहाँ किलिक करें
उत्सव जारी है मिलते हैं एक अल्प विराम के बाद
दोनो रचनाएं बहुत ही अच्छी लगी .. आभार !!
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