मैं कोई ऋषि मुनि तो नहीं 
पर जन्म से मेरे भीतर कोई समाधिस्थ है 
कई ज्ञान के रहस्यमय स्रोत उसका स्नान करते हैं 
ज्ञान की असंख्य रश्मियाँ उसे सूखाती हैं,तपाती हैं 
लक्ष्मी प्रेम रूप में निकट से गुजरती हैं 
मुक्त हाथों मोतियों के दान की शिक्षा 
वीणा के हर झंकृत तार से सरस्वती देती हैं 
श्राप के शब्द उसकी जिह्वा पर नहीं 
पर  ……

झूठ, अपमान के विरोध में 
जब जब शिव ने उसकी शिराओं में तांडव किया है 
अग्नि देवता की लपटें ही सिर्फ दिखाई देती हैं 
जिसकी चिंगारियों में 'भस्म' कर देने का हुंकार होता है 
सहस्त्र बाजुओं में कई मुंडमाल होते हैं 
……………… 
.......... 
मैं अनभिज्ञ हूँ इस एहसास से 
कहना उचित न होगा 
ज्ञात है मुझे उस साधक की उपस्थिति 
जो द्रष्टा भी है,कर्ता भी है  .... 
और इसे ही आत्मा कहते हैं 
जिसे अपने शरीर से कहीं ज्यादा जीती हूँ 
शरीर तो मिथ्या सच है 
तो उसे मिथक की तरह जीना 
एक बाह्य सच है 
और यह बाह्य जब जब अंतर से टकराता है 
सुनामी आती है 
साधक झेलता है 
शरीर गलता है 
समय की लकीरें उसे वृद्ध बनाती हैं 
!!!
समाधिस्थ आत्मा बाल्यकाल और युवा रूप को ही जीती है 
स्वस्थ-निरोग 
तभी - अमर है - साक्षी है !!!

चाह होना अमरत्व की अलग बात है,होना अलग बात - 

जीवन में सबकुछ सामान्य हो, फिर भी संक्षिप्त जीवन की अभिलाषा रखने वाले मनुष्य संसार में दुर्लभ ही रहे हैं. इतिहास साक्षी है ,अमरत्व पाने के लिए व्यक्ति ने न जाने कितने संधान किये ,इस हेतु क्या क्या न किया....... मृत्यु भयप्रद तथा अमरत्व की अभिलाषा चिरंतन रही है...विरले ही इसके अपवाद हुआ करते हैं..

आधुनिक विज्ञान भी इस ओर अपना पूर्ण सामर्थ्य लगाये हुए है तथा पूर्णतः आशावान है कि इस प्रयास में वह अवश्य ही सफलीभूत होगा.... हमारे भारतीय दंड विधान में तो नहीं परन्तु विश्व के कई संविधानों में आजीवन कारावास के प्रावधान में अक्षम्य,घोर निंदनीय अपराध में कारा वास की अवधि दो सौ ,पांच सौ या इससे भी अधिक वर्षों की होती है.क्योंकि उनका विश्वास है कि विज्ञान जब जीवन काल को वृहत्तर करने या अमरत्व के साधन प्राप्त कर लेगा तो २० ,२५,५० वर्षों को ही सम्पूर्ण जीवन काल मानना अर्थहीन हो जायेगा और ऐसे में ऐसे अपराधियों को जिनका स्वछन्द समाज में विचरना घातक,समाज के लिए अहितकर है,उन के आजीवन कारावास का प्रावधान निरुद्देश्य हो जायेगा...

परन्तु विचारणीय यह है कि क्या हमें अमरत्व चाहिए ? और यदि चाहिए भी तो क्या हम इस अमरत्व का सदुपयोग कर पाएंगे ? कहते हैं अश्वत्थामा को द्रोणाचार्य ने अपने तपोबल से अमरत्व का वरदान दिया था.दुर्योधन के प्रत्येक कुकृत्यों का सहभागी होने के साथ साथ पांडवों के संतानों का वध करने तक भगवान् कृष्ण ने उसे जीवनदान दिए रखा परन्तु जब उसने उत्तरा के गर्भ पर आघात किया तब कृष्ण ने उसके शरीर को नष्ट कर दिया परन्तु उसके मन,आत्मा तथा चेतना के अमरत्व को यथावत रहने दिया...माना जाता है की आज भी अश्वत्थामा की विह्वल आत्मा भटक रही है और युग युगांतर पर्यंत भटकती रहेगी. सहज ही अनुमानित किया जा सकता है कि यदि यह सत्य है तो अश्वत्थामा की क्या दशा होगी....

किंवदंती है की समुद्र मंथन काल में समुद्र से अमृत घट प्राप्य हुआ था.जिस मंथन में ब्रह्माण्ड की समस्त शक्तियां (देवता तथा असुर) लगी थीं,तिसपर भी अमृत की उतनी ही मात्रा प्राप्त हुई थी कि यह उभय समूहों में वितरित नहीं हो सकती थी. तो आज भी यदि संसार की साधनसम्पन्न समस्त वैज्ञानिक शक्तियां संयुक्त प्रयास कर अमरत्व के साधान को पा भी लेती है तो निश्चित ही यह समस्त संसार के समस्तआम जनों के लिए तो सर्वसुलभ न ही हो पायेगी .यह दुर्लभ साधन निसंदेह इतनी मूल्यवान होगी की इसे प्राप्त कर पाना सहज न होगा .मान लें की हम में से कुछ लोगों को अमरत्व का वह दुर्लभ साधन मिल भी जाता है,तो हम क्या करेंगे ?

हम जिस जीवन से आज बंधे हुए हैं, उसके मोह के निमित्त क्या हैं ? हमारा इस जीवन से मोह का कारण साधारणतया शरीर, धन संपदा,पद प्रतिष्ठा,परिवार संबन्धी इत्यादि ही तो हुआ करते हैं.ऐसे में हममे से कुछ को यदि अमरत्व का साधन मिल भी जाय तो क्या हम उसे स्वीकार करेंगे ?

सुख का कारण धन संपदा या कोई स्थान विशेष नहीं हुआ करते,बल्कि स्थान विशेष में अपने अपनों से जुड़े सुखद क्षणों की स्मृतियाँ हुआ करती हैं. धन सुखद तब लगता है जब उसका उपभोग हम अपने अपनों के साथ मिलकर करते हैं....मान लेते हैं कि यह शरीर, धन वैभव तथा स्थान अपने पास अक्षुण रहे परन्तु जिनके साथ हमने इन सब के सुख का उपभोग किया उनका साथ ही न रहे...तो भी क्या हम अमरत्व को वरदान मान पाएंगे.....उन अपनों के बिना जिनका होना ही हमें पूर्णता प्रदान करता है ,हमारे जीजिविषा को पोषित करता है, जीवन सुख का उपभोग कर पाएंगे?

जीवन में किसी स्थान का महत्त्व स्थान विशेष के कारण नहीं बल्कि स्थान विशेष पर कालखंड में घटित घटना विशेष के कारण होती है.किसी स्थान से यदि दुखद स्मृतियाँ जुड़ीं हों तो अपने प्रिय के संग वहां जाकर उस स्थान विशेष के दुखद अनुभूतियों को धूमिल करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए ,परन्तु किसी स्थान विशेष से यदि मधुरतम, सुखद स्मृतियाँ बंधी हों तो वहां दुबारा कभी नहीं जाना चाहिए,नहीं तो कालखंड विशेष में सुरक्षित सुखद स्मृतियों को आघात पहुँचता है,क्योंकि तबतक समय और परिस्थितियां पूर्ववत नहीं रहतीं.......यह कहीं पढ़ा था और अनुभव के धरातल पर इसे पूर्ण सत्य पाया.
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ऐसे में इस नश्वर संसार में अधिक रहकर क्या करना जहाँ प्रतिपल सबकुछ छीजता ही जा रहा है,चाहे वह काया हो या अपने से जुड़ा कुछ भी .मनुष्य अपनों के बीच अपनों के कारण ही जीता और सुखी रहता है,ऐसे अमरत्व का क्या करना जो अकेले भोगना हो...संवेदनशील मनुष्य संभवतः यही चाहेगा.और यदि कोई कठोर ह्रदय व्यक्ति ऐसा जीवन पा भी ले तो क्या वह सचमुच सुखोपभोग कर पायेगा या दुनिया को कुछ दे पायेगा......ययाति ने तो सुख की लालसा में अपने पुत्रों के भाग के जीवन का भी उपभोग किया था,पर क्या वह सचमुच सुखी हो पाया था...

जीवन को सुखी उसकी दीर्घता नहीं बल्कि उसके सकारात्मक सोच और कार्य ही बना पाते हैं,यह हमें सदैव स्मरण रखना होगा। ((रंजना)


अमरत्व किसे नहीं चाहिए। वैज्ञानिक खोज में लगे हैं कि इंसान को कैसे अजर-अमर बनाया जा सकता है। कोई जब बताता है कि हिमालय की कंदाराओं में उसके कोई गुरु 500 सालों से तपस्या कर रहे हैं तो सुनकर बड़ा अचंभा होता है और कुतूहल भी। फिर, आम इंसान यह सोचकर तसल्ली कर लेता है कि चलो आत्मा तो अमर है। हम नहीं रहेंगे, मगर हमारी आत्मा तो रहेगी। वह सर्वदृष्टा है। सब कुछ देखती रहेगी। अमरता की इस अटूट चाहत का केंद्रीय भाव यही है कि हम बने रहें। जिंदा रहें तो लोग जानें-पहचानें और मर गए तब भी दुनिया हमें याद रखे।

मैं अभी इसी अमरत्व की बात कर रहा हूं। गौतम बुद्ध अमर हो गए। कबीर अमर हो गए। महात्मा गांधी अमर हो गए। भगत सिंह अमर हो गए। इसलिए नहीं कि उनकी आत्मा जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर परमात्मा के साथ मिलकर अब भी यहीं कहीं चक्कर काटती है। बल्कि इसलिए लाखों-करोड़ों लोग अब भी उनको याद करते हैं। दूसरों के दिमाग में जगह बनाना ही अमरता है। अमिताभ बच्चन जीते जी अमर हो गए हैं। मायावती तो जिंदा रहते अपनी मूर्तियां लगवा रही हैं ताकि लोग उन्हें याद रखें। 

वैसे, यह अमरता बड़ी सांसारिक किस्म की चीज़ है। और हर कोई इसे थोड़ा कम या ज्यादा हासिल ही कर सकता है। शायद ही कोई होगा जिसके भीतर नौजवानी की दहलीज़ पर कदम रखते वक्त ये विचार न आया हो।

बताते हैं कि किसी यूरोपीय शहर में एक मेयर हुआ करता था। उसने अपने घर में एक खुला हुआ ताबूत बनवा रखा था। वह जब बहुत प्रसन्नचित्त और संतुष्ट होता तो जाकर इसी ताबूत में लेट जाता और अपने जनाजे के निकलने की कल्पना करता। वह यही सोच-सोचकर मगन हो जाता कि कितने सारे लोग उसकी कितनी ज्यादा याद कर रहे हैं, उनके न होने से कितने दुखी हैं, उसकी कितनी कमी महसूस कर रहे हैं। ताबूत में बिताए ये पल उसकी ज़िंदगी के सबसे खूबसूरत लम्हे हुआ करते थे। वह अपने लिए लोगों के रोने की कल्पना कर जीते-जीते अमरत्व में चला जाता था।

जाहिर है, अमरत्व के मामले में सभी लोग बराबर नहीं होते। छोटी या तुच्छ अमरता वो होती है जिसमें आपके हित-मित्र जान-पहचान वाले आपको याद रखते है। जबकि महान अमरता वो होती है जब वे लोग भी आपको याद रखते हैं जो आपको निजी तौर पर नहीं जानते। ज़िंदगी के कुछ ऐसे रास्ते होते हैं जिनमें एकदम शुरुआत से ही इस महान अमरता को हासिल करने की संभावना रहती है। हां, इसे पाना मुश्किल तो होता है, लेकिन इसे एक सिरे से नकारा नहीं जा सकता। कला, लेखन और राजनीति महान अमरत्व हासिल करने के ऐसे ही कुछ रास्ते हैं।(अनिल रघुराज)

आईये गीत सुनें - उसके एक एक शब्द अर्थ से जुड़ें और जीवन का,मन का सत्य जानें -
मैं मिलती हूँ कल फिर सुबह 10 बजे परिकल्पना पर। 

3 comments:

  1. यदि मधुरतम, सुखद स्मृतियाँ बंधी हों तो वहां दुबारा कभी नहीं जाना चाहिए,नहीं तो कालखंड विशेष में सुरक्षित सुखद स्मृतियों को आघात पहुँचता है,क्योंकि तबतक समय और परिस्थितियां पूर्ववत नहीं रहतीं.

    यह अमरता बड़ी सांसारिक किस्म की चीज़ है। और हर कोई इसे थोड़ा कम या ज्यादा हासिल ही कर सकता है

    ~~

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  2. अमरत्व पर बेहद रोचक और जानकारीपरक प्रस्तुति के लिये आभार्।

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