मैं समय ... सतयुग द्वापर युग और कलयुग .... मैं चलता रहा हूँ , देखता रहा हूँ . सत्य असत्य से परे , सही गलत से परे मैं विभक्त होता रहा हूँ - कभी सुनी हैं मेरी सिसकियाँ ? मैं नहीं रुकता , क्या तुमने ठहर कर सोचा है कभी ? मैं तो आगे बढ़कर भी ठहरा हूँ और देख रहा हूँ =





अचानक बदले दृश्यों के बीच
पलकें झुकाए कैकेयी
अश्रुसिक्त हाथ जोड़े
आँखों में एक ही प्रश्न लिए
आज तलक भरत के पास खड़ी है ....
'मौन तोड़
मेरी आँखों में आँखें डाल बोल भरत
क्या मैं हर माँ से अलग हूँ ?
मन्थरा ने अपनी जगह से जो कहा
क्या वह सबके मन में नहीं था
या आज नहीं है ?
कौशल्या को किस बात पे उद्विग्न होना था
उसके आगे तो वह पलड़ा आया ही नहीं
जो मेरे आगे था
उम्र का फर्क था ही कितना तुम चारों में ?
प्रसूति गृह में हम तीनों थीं
क्षणांश के अंतराल में तुम सब थे
पर जब बचपन के मनमोहक दृश्य ठुमकने लगे
तो सब राम के पीछे थे
क्योंकि राम दशरथ को अधिक प्रिय थे
बोल भरत क्या दौड़ते दौड़ते तुम नहीं ठिठकते थे
जब अपनी माँ को भी राम के पीछे देखते थे ?
क्यूँ नहीं बुलाया तेरे पिता ने राज्याभिषेक से पूर्व तुम्हें
क्या मन्थरा उनके भीतर नहीं थी ?
नारी साधारण हो , रानी हो या महारानी
'माँ' के रूप में वह सिर्फ असाधारण माँ होती है
जानवरों को देख लो
माँ के रूप में कितने सतर्क
कितने भयानक हो उठते हैं !
मैं भी माँ थी भरत
कितनी बार चाहा - खीर का कटोरा पहले तुम्हें दूँ
पर दशरथ की हँसी राम थे
तो मैंने पत्नी धर्म निभाया
हर बार पहले राम को गले लगाया !!!
मन्थरा तो यूँ हीं कारण बन गई
दरअसल उसने मुझे
मेरे ही मन को समझाया !
............
कोप भवन में मैंने सिर्फ तुम्हारे लिए राज्य माँगा था
दशरथ की प्रतिक्रिया ने उनको बाकी वचनों से बाँधा था
होनी कुछ ऐसे खेल खेलेगी
भरत मुझे इसका भान नहीं था ...
..........
दशरथ की मौत ने मुझे कलंकिनी बना दिया
और तू भी समाज के चक्रव्यूह में फंस गया 
तू कहे न कहे मैं जानती हूँ
यमुना की लहरों में मैं ही तुम्हें नज़र आती हूँ
पर आखिर कब तक तू खुद को सज़ा दे
मुझे सज़ा देगा
स्वार्थी समाज की हर माओं से पूछ
क्या उसके अन्दर मैं नहीं ?
........
मैं कुछ नहीं चाहती भरत
दुनिया की बातों , ग्रन्थ में उधृत अपने चरित्र से
मुझे कोई शिकायत नहीं
बस मेरी एक ख्वाहिश है -
तू मेरे गले लग जा
जिसे हर बार बचपन की उपलब्धियों में
मैंने राम को दिया था !
.....
अगर उसी दिन मैंने खुद को न मारा होता
तो मैं जानती हूँ भरत
तू मेरा होता !!!'
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मैं  रश्मि प्रभा 
समय की अंतर्ध्वनियों से  
आपको मुखातिव करती हुई 
अब ले चल रही हूँ 
कार्यक्रम स्थल की ओर 
जहां पहले चरण में उपस्थित हैं -
वेब दुनिया डोट कॉम की प्रखर लेखिका और पत्रकार स्मृति जोशी जी 





............पढ़ते रहिये परिकल्पना, मिलती हूँ एक विराम के बाद

29 comments:

  1. बस मेरी एक ख्वाहिश है -
    तू मेरे गले लग जा
    जिसे हर बार बचपन की उपलब्धियों में
    मैंने राम को दिया था !

    सशक्‍त भावों के साथ अनुपम प्रस्‍तुति ।

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  2. एक मां के मन के परतों को खोलती,यथार्थ से रूबरू करती रचना.

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  3. "मैं रश्मि प्रभा
    समय की अंतर्ध्वनियों से
    आपको मुखातिव करती हुई
    अब ले चल रही हूँ"
    इसी तरह सैर कराते रहे
    नए मंजर दिखाते रहे
    खुशकिस्मत हैं वो
    जिनके साथ आप हैं
    यूँ ही ज़िन्दगी जीते रहे

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  4. रोंगटे खड़े हों गए पढ़ कर

    आभार

    नाज़

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  5. मुझे कोई शिकायत नहीं
    बस मेरी एक ख्वाहिश है -
    तू मेरे गले लग जा
    जिसे हर बार बचपन की उपलब्धियों में
    मैंने राम को दिया था !

    bahut unnat vichaar liye...

    behtareen abhivyakti...

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  6. खूबसूरत कविता... प्राचीन पात्रों की समीक्षा हो रही है इस कविता में... परिकल्पना परिपक्व हो रही है...

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  7. कैकयी के भावों का ऐसा अद्भुत वर्णन ... वाह ...!

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  8. आज जो आपने लिखा है कैकयी की व्यथा के रूप में यह मेरे मन में कई बार आई है ... एक रचना लिखी भी थी काफी पहले भरत विलाप .. कभी पोस्ट करुँगी ...

    बहुत सशक्त रचना ..सोचने के लिए बिंदु देती हुई ..आभार

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  9. कैकयी के गहरे अंतर्मन में दबी भावनाओं की अनूठी अभिव्यक्ति ..एक स्त्री , पत्नी , सौतेली माँ के रूप में चाहे उसका चरित्र कितना ही निंदनीय हो , मगर माँ के रूप में वह आम स्त्री से अलग कैसे हो सकती थी !

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  10. कैकेयी के रूप में आपने हर माँ के मन की सुषुप्त महत्वाकांक्षाओं की बड़ी सुन्दर अभिव्यक्ति की है ! सदियों से तिरस्कृत और धिक्कारी गयी कैकेयी के इस मानवीय कातर रूप ने स्तब्ध कर दिया है ! आपकी लेखनी को नमन ! बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति है ! बधाई स्वीकार करें !

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  11. kaikeyi ki is vyathaa ko yoon varnit karna aap kee hi visheshta hai
    aur ap ke bhavuk man ki daleel bhee

    bahut sundar !!!

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  12. यथार्थ से रूबरू करती अनुपम प्रस्‍तुति ।

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  13. रामायण में एक मात्र कैकेयी ही ऐसी पात्रा थी जो समर्पण का पर्याय थी, बहुत सुन्दर !

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  14. हिंदी ब्लॉगजगत की खुबसूरत कल्पनाओं में से एक है यह परिकल्पना, अनुपम प्रस्तुति !

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  15. ब्लॉगोत्सव अपने लक्ष्य को प्राप्त करे, यही है शुभकामनाएं !

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  16. एक अलग धरातल पर, अलग दृष्टिकोण से रची गयी रचना... सादर...

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  17. सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ शानदार और लाजवाब रचना! उम्दा प्रस्तुती!

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  18. कैकेयी की व्यथा एक माँ की व्यथा है जिसे अपने ही बेटे ने तिरष्कृत किया | कैकेयी की ख्वाहिश को कवयित्री ने सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है :

    तू मेरे गले लग जा

    जिसे हर बार बचपन की उपलब्धियों में

    मैंने राम को दिया था !

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  19. ek maa ke man ki sacchayi to yahi hai baki haalaat aage ja kar kaise bhi bigad gaye aur ban gaye aur itihas kaisa bhi racha gaya....ye naseeb ki baat bhi ho sakti hai.

    sunder marmik chitran kiya aapne kekayi ka.

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  20. नारी साधारण हो , रानी हो या महारानी
    'माँ' के रूप में वह सिर्फ असाधारण माँ होती है
    नवीन दृष्टिकोण उकेरती रचना ..

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