एक नहीं - कई बार  … 
ज़रूरी है -
कि हम अपनी ही व्याख्या ईमानदारी से करें 
क्योंकि सत्य हमसे बेहतर क्या 
हमारे अतिरिक्त कोई नहीं जानता !
दूसरों के बारे में जानने का दावा एक मिथक है 
खुद के किये को न समझ पाने की बात 
सामनेवाले को भरमाना है 
किसी और की रग रग से हम उतने वाकिफ नहीं होते 
जितनी अपनी हर चाल को बखूबी समझते हैं !
व्याख्या करनी ही है तो अपनी अपनी करें 
किसी और की छानबीन का कोई अर्थ नहीं !!

             रश्मि प्रभा 


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मैं उसके बारे में जितना सोचती हूं उसकी होती जाती हूं। एक उम्र के बाद खूबसूरती मायने नहीं रखती। पहचान वालों की मुस्कुराहट, मोटे लोगों के किसी खास पर उसकी अपनी खास मौलिक प्रतिक्रिया, फलाने का संशय, चिलाने का चिंताग्रस्त होकर घूमना, मीता का अनजाने में सीटी बजा उठना, किसी काले के आंखों की चमक, किसी गोरे की माथे की सिलवट, गंजे का खिखिलाकर हंसना, बूढ़े की भलमनसाहत दिल को भली लगने लगती है। कुछ के सीने के बाल याद रह जाते हैं, कुछ की बेसुरी आवाज़ भी मन को हांट करती है। कुछ के मेकिंग लव के दौरान बने क्षण याद रह जाते हैं। कुछ के जुबान से निकला शब्द सहलाते हुए से लगते हैं, कुछ की आवाज़ ही आराम दे जाती है। 

मुझे उसके प्यार करने का तरीका बहुत पसंद है। यह सच है कि वह मुझे पसंद करता है लेकिन एक स्त्री होने के नाते जाने अनजाने मेरा सिक्थ सेंस मुझे यह भी इंगित करता है कि उसकी यह चाहना मेरे शरीर के कुछ खास अंगों के प्रति ज्यादा है। वह मेरे गोरे रंग को लेकर अक्सर हैरतजदा रहता है। हम जब मिलते हैं, मेरा मतलब हमारा जब कभी भी बाहर मिलना होता है, कनॉट प्लेस के के एफ सी में, हौज खास के बरिस्ता में, ग्रीन पार्क के कोस्टा कॉफी में मैंनें उसकी आंखों में झांकते हुए कुछ और अनजाने रास्तों की तरफ खुद को ट्रैक से फिसलता पाया है। 

यह अजीब है कि 28 साल बाद भी मैं प्यार के मसलों में उदार हूं। और लगता है अब जैसे यह आदत ही बन गई है। मैं चीजों को वैसा का वैसा नहीं ले पाती जैसा वह कहा या किया गया है। उल्टे यह जरूर लगता है कि मैं उसमें थोड़ी अपनी सोच मिलाकर ग्रहण करती हूं। या कभी कभी जब अपनी स्वभाव के उलट जब जानबूझ कर थोड़ी से अपना विचार रखती हूं, वैसे ही दूसरों की बातों में अंर्तमन में यह अनुमान लगा लेती हूं कि शायद इसका मंतव्य भी कुछ वैसा ही हो। दरअसल प्यार नाम की इस शै को आप बहुत हल्के में नहीं ले सकते। यह कई जगह निशान लगाता हुआ निशाना करता है। या शायद प्यार को हल्के में लेकर ही जिया जा सकता है। कुछ भी हो यह ताउम्र मुझ जैसी लड़की के लिए अपने बालों को संभालते रहने जैसा है। हां इन बालों पर जिसपर आड़े कुछ वक्तों में आपको झल्लाहट भी होती है और कई बार जब किसी उधेड़बुन में हों या आपके बॉयफें्रड के साथ यदि हो रहा फ्लर्ट अपने सीरियस होने के उस मकाम पर पहुंच रहा हो जब उसमें तेज़ सांसों की मिलावट होने की गंध आने लगे, वह आपके हाथों के रोओं को सहलाते हुए, आपकी बांहों की तरफ बढ़ने लगे, उसके होंठ सूखने लगे, इन हरारतों से आप अपना दम साधने लगें और किम्कत्वर्यविमूढ़ता की स्थिति आ जाए। अब इस एकआध को जीयें या उसे यही से धकिया दें कि लड़ाई मन में चलने लगे। वैसे इस तरह के अनुभव के साथ साथ आप पर्टिकुलर इस अनुभव शब्द के बारे में आप क्या सोचते हैं? मुझसे शेयर कीजिएगा। लेकिन मुझे लगता है कि अनुभवों का दोहराव दरअसल अनुभव नहीं होता।

मैं अनालाइज बहुत करने लगती हूं। हां तो मैं कहां थी?। हां तो हमारा जब भी बाहर मिलना होता है। यप। यहीं थी मैं। वह मेरे प्रति ज़रा चौकन्ना रहता है। थोड़ा आगे की तरफ झुका हुआ। मुझे ज्यादा से ज्यादा कंफर्ट फील कराने की आड़ में चिंतित। जूझता हुआ सा। ऐसे वक्तों में हमारी आंखों एक दूसरे से बहुत ज्यादा मिलती है। कई बार मिलती है लेकिन कई बार वह नज़र बचा भी ले जाता है। जैसे उसे इस बात का पता होता है कि मैं उसकी आंखें पढ़ना चाहती हूं। चूहे बिल्ली के इस खेल में मैं मुर्गी की तरह कुट-कुट करते हुए उसे चुग लेती हूं। 

सरेआम उसके कोहनियों के स्पर्श में एक आग्रह है। ऐसा लगा है जैसे वह बंद कमरे में ही खुल सकने को अभिशप्त है। कुछ प्रमी होते हैं ऐसे खासकर दक्षिण पूर्व एशिया में। वे प्रेम में कई स्तरों पर जूझते हैं, यही वजह है कि मैं उन्हें एक सम्मानित प्रेमी नहीं मानती। इसके उलट वे एक डरपोक पिता, कंजूस बेटे और बीवी से चार बच्चों को जनकर भी वे शिखंडी पुरूष होते हैं। वे पूरी जवानी प्रेम करने के बाद अपनी खोल में घुसे चले जाने वाले चूहे होते हैं और तब उन्हें वो दुनिया सुरक्षित लगती है। यह सच है कि इंसान रूप में हम प्रेम करने को बाध्य हैं लेकिन मैं इसे हम स्त्रियों की खूबी मानती हूं कि हम प्रेम कर उन पुरूषों के उलट ज्यादा उदार, ज्यादा साहसी और निडर हो जाती हैं। माफ कीजिए, अगर आप मुझे ऐसे में आवारा समझेंगे तो मैं आपकी इस दयनीय सोच पर 'हुंह' भी नहीं कर सकती। 

वह मुझे रूचता है। मुझे ठीक ठीक याद है। उस दिन वह परतों वाला टी-शर्ट पहने था जिसका गला दो बटन से खुलता था। बिना मीन्यू देखे वह ऑर्डर देकर अपना सर नीचे झुकाए बैठा था। गौर से देखने की शुरूआत दरअसल ऐसे लम्हों में ही होती है जब सामने वाला आपसे अंजान हो। मैंने उस दिन उसके शरीर के खूबसूरती के बारे में महसूस किया। एम सपाट चौड़ा सीना जो उस वक्त और समय के बनिस्पत ज्यादा ही चौड़ा लग रहा था। वो शेव की हुई छाती थी जिसपर हल्के हल्के बाल उग आए थे। मैंने ख्याल किया वे अपने में उमस सेमेटे छाती है। मेरी उंगलियां कसमसाई। मन हुआ उनपर उल्टे हाथ उंगलियां फिराऊं। प्रेम करने का उद्वेग ऐसे ही रूटीन से हटकर अचानक से जगता है। दरअसल नाजो अदा से छूने का मन ऐसे ही कुछ चोर लम्हों में होता है। मेरी सांसे छोटी पड़ने लगी। अपने युवा प्रेमी की इस तरह कामना करने से मेरे ज़हन में उसकी उभरी हुई पिंडलियां, उसके जांघों की मजबूत पकड़, उठी हुई हड्डियां और उसकी गर्म सांसों से मेरा उलझाव उभर आया। पुरूष इस तरह कहां हमारी सेक्सुएलिटी के बारे में सोच पाते हैं! ऐसे अंतरंग पलों में खुद मेरी पीठ में एक तनाव उभर आता है। पीठ के कैनवस पर सर्दियों के दिन लद आते हैं और लगता है दो किस्सापसंद औरतें वहां ऊन कांटा लेकर लगातार फंदों पर फंदे बुनती जा रही है। और तब मेरी पीठ को आंच की जरूरत होती है।
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सागर





जीवन के उत्तरार्ध में

यूँ तो कुछ सीखना
उतना आसान नहीं होता अब
फिर भी मैं
कुछ प्रयत्न करता हूँ
जीवन के उत्तरार्ध में।

असंभव वानप्रस्थ के बीच
मैं एक ऐसा गृहस्थ
बने रहना चाहता हूँ
जो नहीं हुआ किसी हादसे का शिकार
और बचा ले गया पुरखों की पगड़ी।

इसी अवधि में
मैं सीख लेना चाहता हूँ
सीली तीलियों से आग सुलगाना
और राख के ढेर में उसे बचाये रखना
और गठानें खोलने जैसे मामूली काम।

मैं चाहता हूँ 
कि निकलूँ जब बाज़ार की तरफ
तो चौंधिआया न करें आँखें
और बचा रहे
दोबारा वहाँ आने का हौसला।

मेरा मन है
कि अब भी सुनाई पड़ें मुझे
चिड़ियों के गीत
और उन्हें मैं
चीखों के अंतराल में
गुनगुना भी लूँ।

लंबी यात्राएँ अब मुमकिन भी नहीं
और ज़रूरी भी
लेकिन कुछ बची रह गई दूरियों को
चल लेने की बेचैनी
खाये जाती है दिन रात।
मैं भटक कर भी
कुछ ऐसे रास्ते खोजना चाहता हूँ
जो इन दूरियों की ओर जाते हैं।

ऐसे तो कोई शौक बचे नहीं अब
और नींद भी
आती नहीं उतने भरोसे की
फिर भी कुछ एक
टूटे फूटे सपनों में
मैं नाव चलाते देखता हूँ खुद को
मेरे साथ एक परछाईं होती है
दोनों जन बैठे हैं
एक एक किनारे पर।

सच पूछिए तो अब
निकालते निकालते चक्रविधि ब्याज
परीकथाएँ लिखने का होता है मन
कि कुछ तो ऐसा छोड़ सकूँ
जिन्हें बच्चे छोड़ सकें
अपने बच्चों के लिए।

जाने कौन यक्ष
रोज़ पूछता है मुझसे प्रश्न
और यह जानते हुए
कि युधिष्ठिर नहीं हूँ मैं
उनके उत्तर खोजना चाहता हूँ
जीवन के उत्तरार्ध में।

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विमलेन्दु द्विवेदी 


7 comments:

  1. बलागोत्सव का एक और खूबसूरत पड़ाव वाह ।

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  2. बहुत सुंदर प्रस्‍तुति‍.....मैं पढ़ती चली गई....लेखक को मेरी शुभकामनाएं...

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  3. वह मेरे गोरे रंग को लेकर अक्सर हैरतजदा रहता है। हम जब मिलते हैं, मेरा मतलब हमारा जब कभी भी बाहर मिलना होता है, कनॉट प्लेस के के एफ सी में, हौज खास के बरिस्ता में, ग्रीन पार्क के कोस्टा कॉफी में मैंनें उसकी आंखों में झांकते हुए कुछ और अनजाने रास्तों की तरफ खुद को ट्रैक से फिसलता पाया है।
    शायद प्यार को हल्के में लेकर ही जिया जा सकता है।
    यप। यहीं थी मैं।
    मुझे ठीक ठीक याद है।
    (h)
    सागर .... यथा नाम तथा कम .....
    आप को क्या कहना
    ============
    मैं चाहता हूँ
    कि निकलूँ जब बाज़ार की तरफ
    तो चौंधिआया न करें आँखें
    और बचा रहे
    दोबारा वहाँ आने का हौसला।

    सच पूछिए तो अब
    निकालते निकालते चक्रविधि ब्याज
    परीकथाएँ लिखने का होता है मन
    कि कुछ तो ऐसा छोड़ सकूँ
    जिन्हें बच्चे छोड़ सकें
    अपने बच्चों के लिए।
    बेजोड़ अभिव्यक्ति
    (h) (h) (h)

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