थोक भाव से दर्द,अपमान,दुविधा की बिक्री
कीमत - एक क्षण का कमजोर हुआ मन 
परिस्थिति की रस्सी से बंधा मन 
.... ना खरीदना चाहो 
तो भी दिन की समाप्ति तक 
बाजार उठने से पहले 
बिना कीमत 
झोली में डाल दिया जाता है 
… वो तो भला हो हिम्मत और एक चुटकी मुस्कान की 
कि लोरी की तरह मन और आँखों को सहला देती है !
फिर एक नींद 
थोड़े सपने 
अगले दिन के बाजार में खड़े होने का मनोबल दे जाते हैं  … 
ग्यारह हज़ार, तीन सौ बाइस दिन-रात 
इस हौसले और मुस्कान के कायल हैं 
क्या नहीं दिया इन्होने 
उम्मीदों की टोकरी में 
मकसदों के पुष्ट बीज 
उनके लिए तैयार जमीन !
- कितने आंधी-तूफ़ान बेरोक टोक आए 
लेकिन न पौधे मुरझाये 
न उनको वृक्ष बन फल देने से 
समय रोक पाया  … 
यूँ बाजार आज भी गर्म है 
पर साथ है हौसला 
और एक चुटकी मुस्कान 
…… सफर जारी है 
खोने की शतरंजी बिसात पर 
नामुमकिन से मुमकिन होती जीत की मुस्कान  … 

                रश्मि प्रभा 

महबूब की तुलना चाँद से ही क्यों? चपाती से क्यों नहीं??? 

जबसे होश संभाला, गानों को समझना शुरू किया, तभी से ये गाना भी सुनता आ रहा हूँ, 'चाँद सा रोशन चेहरा, जुल्फों........'. कभी-कभी ये भी सुनाई दे जाता,'चाँद सी हो महबूबा मेरी..'.

तब कुछ ख़ास समझ नहीं थी, 'महबूब और चाँद' के संबंधों के बारे में. हाँ कभी-कभी सोचता जरूर था, कि ये 'चंदा मामा' महबूब कैसे हो जाते हैं. उस वक़्त कन्हैया की ये हठ भी पढता था,'मैया मोहे चन्द्र खिलौना लैहो..'.
ये दोनों विरोधाभाषी बातें मन में कभी-कभी ही उठा करती थीं. जब तक छोटे थे 'चन्द्र-खिलौना' चला, फिर धीरे धीरे 'चाँद सी महबूबा' हो गयी....

समय के साथ-साथ ये प्रश्न मन में आने लगा, कि आखिर ये महबूबा चाँद जैसी ही क्यों है?
चाँद में वो कौन सी खासियत है, जिसकी वजह से उसे सुन्दरता के साथ जोड़ा जाने लगा..

चाँद गोल है, लेकिन गोल तो चपाती भी है. फिर चपाती जैसा चेहरा क्यों नहीं है??

फिर सोचा कि शायद चाँद रौशनी करता है, इसलिए ऐसा कहते होंगे, शायद इसीलिए उसे सुन्दरता का प्रतीक बना दिया गया. लेकिन रौशनी तो सूरज उससे बहुत ज्यादा करता है, तब फिर उसे क्यों नहीं माना गया?
और मान लो सूरज जलता है, लेकिन घर में जो CFL ट्यूब लाईट है, वो तो एकदम चाँद के जैसी रौशनी देता है, तब फिर लेटेस्ट वर्जन में सुन्दरता को CFL क्यों ना कहा जाए.??

फिर सोचा कि चाँद की शीतलता की बहुत चर्चा रहती है, क्या पता इसीलिए उसे सुन्दरता से तुलना करते हों! वैसे भी आजकल सुन्दरता भी आँखों को शीतल करने के काम आने लगी है...!! लेकिन 'बर्फ' तो उससे भी कहीं ज्यादा शीतल है, तब फिर बर्फ की तुलना क्यों ना की जाए सुन्दरता से??? फिर बर्फ तो सफ़ेद भी होता है, एकदम उजला-धप्प..

कोई भी तर्क संतुष्टि नहीं दे पाया. सब के सब यही साबित करते रहे, कि चाँद में ऐसा कुछ खास नहीं है. वो तो बस पुराने कवियों ने कहा, तब से सब लकीर के फ़कीर बने उसी लीक पर चलते जा रहे हैं.

लेकिन ऐसा नहीं है. चाँद में ऐसी ही एक बात है, जो उसके चरित्र को सुन्दरता के चरित्र के पास ले आती है.
चाँद जब पूर्ण हो जाता है, तब उसमे ह्रास होने लगता है. चाँद की सम्पूर्णता ही उसके क्षरण का प्रारंभ बिंदु है. जिस दिन चाँद पूरा हो जाता है, बस अगले ही दिन से वह घटने लगता है.

यही चरित्र सुन्दरता का भी है. जब सुन्दरता पूर्ण हो जाती है, तभी उसमे ह्रास शुरू हो जाता है. सुन्दरता भी चाँद की कलाओं की तरह बढती है, और फिर पूर्ण होते ही उसका भी क्षरण शुरू हो जाता है. पूर्ण सौंदर्य स्थिर नहीं होता...और पूर्ण चन्द्र भी स्थिर नहीं रहता.. जैसे चाँद का आकर्षण उसकी अपूर्णता में है, क्योंकि तारीफ भी 'चौदहवी के चाँद' की या फिर 'चौथ के चंदा' की होती है, कोई पूर्णिमा के चाँद सी महबूबा नहीं खोजता... उसी तरह सौंदर्य का आकर्षण भी उसकी अपूर्णता में ही है.

यही चरित्र फूल का भी है, उसका सारा आकर्षण उसके खिलने की प्रक्रिया में है. जिस दिन वह पूरा खिल जाता है, मुरझाना शुरू हो जाता है. इसीलिए 'फूलों सा चेहरा तेरा..' है. वरना खुशबू तो 'ब्रीज' साबुन में 17 सेंटों की है.


प्रेम क्या है? 

प्रेम क्या है? 
एक छोटा सा प्रश्न लेकिन अनेक उत्तर. एक ऐसा प्रश्न जिसके लिए हर किसी के पास अपना एक अलग उत्तर है. जिस जिस से पूछा जाए वह इसके लिए कुछ अलग उत्तर दे देता है. सबकी अपनी परिभाषाएं हैं प्रेम को लेकर. बहुत बार बहुत सी विरोधाभाषी परिभाषाएं भी. 
मैं सोच रहा हूँ कि क्या प्रेम वास्तव में ऐसा है कि जिसकी कोई नियत परिभाषा ही नहीं बन पायी है. क्या प्रेम सचमुच ही ऐसा है कि इसका स्वरुप देश-काल और परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित होता रहता है? क्या प्रेम का अपना कोई स्वरुप, अपनी कोई पहचान नहीं है?
क्या वास्तव में लोगों की भावनाओं के अनुरूप रूप ग्रहण कर लेना ही प्रेम का स्वरुप है? क्या प्रेम व्यक्तिगत या वस्तुगत हो सकता है? जिसके नाम पर हर रोज़ इतनी घृणा फैलाई जा रही है, क्या वही प्रेम है? क्या प्रेम महज एक दैहिक अभिव्यक्ति से अधिक कुछ भी नहीं? क्या किसी विपरितलिंगी के प्रति मन में उठ रही भावनाएं ही प्रेम हैं? 
कदापि नहीं !!! 
यह जो कुछ भी है वह प्रेम नहीं हो सकता. वह प्रेम हो ही नहीं सकता कि जो लोगों की भावनाओं के अनुरूप रूप ले लेता हो. वह प्रेम कदापि नहीं हो सकता है जिसके मूल में ही घृणा पल रही हो. प्रेम तो स्वयं एक सम्पूर्ण भाव है. प्रेम किसी के चरित्र का हिस्सा नहीं वरन स्वयं में एक पूर्ण चरित्र है. 
प्रेम तो कृष्ण है, वह कृष्ण जिसके पाश में बंधकर गोपियाँ-ग्वाले और गायें सब के सब चले आते हैं. 
प्रेम तो राम है, वह राम जिसके पाश में कोल-किरात भील सभी बंधे हुए हैं. 
प्रेम तो ईसा है, वह ईसा जो मरते समय भी अपने मारने वालों के लिए जीवनदान की प्रार्थना करता है. 
प्रेम बुद्ध है, वह बुद्ध जिसकी सैकड़ों साल पुरानी प्रतिमा भी करुणा बरसाती सी लगती है. 
प्रेम बस प्रेम है.
प्रेम पुष्प की वह सुगंध है, जो बिना किसी भेद के सबको आह्लादित कर दे. प्रेम की गति सरल रेखीय नहीं है. प्रेम का पथ वर्तुल है. वह अपनी परिधि में आने वाले हर जीव को अपनी सुगंध से भर देता है. प्रेम करने का नहीं, वरन होने का भाव है. प्रेम स्वयं में होता है. प्रेम किसी से नहीं होता है, वरन वह किसी में होता है और फिर जो भी उस प्रेम की परिधि में आता है उसे वह मिल जाता है, बिना किसी भेद के. प्रेम किसी भी प्रकार से व्यक्ति-केन्द्रित भाव नहीं है. 
यह कहना कि "मैं सिर्फ तुमसे प्रेम करता/करती हूँ." इस से बड़ा कोई झूठ नहीं हो सकता है. 
लेकिन फिर ऐसे में यह भ्रम होना स्वाभाविक है कि आखिर वैयक्तिक रूप से अपने किसी निकटवर्ती साथी, सम्बन्धी, मित्र या किसी के भी प्रति मन में उठने वाली भावना क्या है? 
वह निस्संदेह प्रेम नहीं हैं, वरन प्रेम से इतर भावनाएं हैं, जिन्हें प्रेम मान लिया जाता है. प्रेम को समझने से पहले हमें कुछ शब्दों के विभेद को भी समझ लेना होगा. 
प्रेम, प्यार, मोह (मोहब्बत) और अनुराग (इश्क) परस्पर समानार्थी शब्द नहीं हैं, बल्कि इनके अपने अर्थ और अपनी मूल भावनाएं हैं. 
प्रेम शक्ति चाहता है, (Prem seeks Power )
प्यार को अपनी अभिव्यक्ति के लिए काया चाहिए. ( Pyar seeks Body ).
मोह (मोहब्बत) माधुर्य चाहता है, (Moh seeks Maadhurya ).
अनुराग (इश्क) आकर्षण चाहता है. ( Anurag seeks Attraction ).
प्रेम शक्ति चाहता है. यह शक्ति शरीर की नहीं, मन की शक्ति है. एक कमजोर व्यक्ति सब कुछ तो कर सकता है. वह विश्व-विजयी हो सकता है, प्रकांड विद्वान् हो सकता है, परन्तु उसमे प्रेम नहीं हो सकता है. 
प्रेम का मूल निर्मोह है. निर्मोह के धरातल पर ही प्रेम का बीज अंकुरित होता है. निर्मोह की शक्ति के बिना प्रेम की प्राप्ति नहीं हो सकती है. पुष्प अगाध और निस्वार्थ प्रेम का प्रतीक है. वह प्रेम रुपी सुगंध बिना किसी भेद के फैलाता है, लेकिन कभी किसी के मोह में नहीं आता. कोई दिन-रात बैठकर पुष्प के सुगंध की चर्चा करता रहे, लेकिन फिर भी पुष्प उसके मोह में नहीं आता. वह उसके जाने के बाद भी उसी प्रकार सुगंध फैलाता रहता है. वह एक निश्छल बालक के लिए भी उतना ही सुगन्धित होता है, जितना कि किसी भी अन्य के लिए. 
प्रेम प्राप्ति का माध्यम नहीं है. प्रेम बंधन भी नहीं है. प्रेम तो मुक्त करता है. प्रेम जब अंकुरित हो जाता है तब प्राणिमात्र के बीच भेद नहीं रह जाता. 
किसी की माँ को गाली देने वाला, अपनी माँ से प्रेम नही कर सकता. किसी भी स्त्री का अपमान करने वाला, अपने परिवार की स्त्रियों से प्रेम नहीं कर सकता. किसी के बच्चे पर हाथ उठा रही माता को अपने पुत्र से मोह तो हो सकता है, लेकिन उसके मन में सहज प्रेम नहीं हो सकता. 
प्रेम जब होता है, तब सिर्फ प्रेम ही होता है. प्रेम किसी से नहीं होता है, प्रेम किसी में होता है, ठीक वैसे ही जैसे कि पुष्प की सुगंध हमसे या आपसे नहीं है, वह पुष्प में है, जो सबके लिए है. 
बस यही प्रेम है. 


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अमित तिवारी
http://punarjanmm.blogspot.in/

''बहुत हुई यह शल्यचिकित्सा कटे हुए अंगों की, कब तक यूँ तस्वीर संवारें बदरंगी रंगों की. बीत गया संवाद-समय, अब करना होगा कर्म; नए समय की नयी जरूरत है ये पुनर्जन्म'' अब समय मात्र संवाद का नहीं रहा.. समय परिवर्तन का है, परिणामोत्पादक प्रक्रिया का है, परिणाम का है, पुनर्जन्म का है.. 'पुनर्जन्म' हर मर चुकी व्यवस्था का, समाज की शेष हो चुकी रूढ़ियों का, बजबजाती राजनीति का.. बहुत से शेष प्रश्नों को सामने रखने और उन्हें एक तार्किक परिणति तक
पहुँचाने का एक प्रयास... नेशनल दुनिया। 


इसी के साथ आज का कार्यक्रम संपन्न, मिलती हूँ कल फिर सुबह १० बजे परिकल्पना पर.....

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