व्यक्ति व्यक्ति से बने समाज के 
कितने दोहरे मापदंड हैं !
पत्नी की मृत्यु होते 
उम्र से परे,बच्चों से परे 
पति के एकाकी जीवन की चिंता करता है 
खाना-बच्चे तो बहाना होते हैं 
.... 
पत्नी पर जब हाथ उठाता है पति 
तो समवेत स्वर में प्रायः सभी कहते हैं 
"ज़िद्दी औरत है 
…………"
किसी अन्य स्त्री से जुड़ जाए पति 
तो पत्नी में खोट !
पत्नी को बच्चा न हो 
तो बाँझ' बनी वह तिरस्कृत बोल सुनती है 
दासी बनी दूसरी औरत को स्वीकार करती है 
वंश" के नाम पर !

वंश' भी पुत्र से !!!
निःसंदेह, पुरुष एक ताकत है 
शरीर से सक्षम 
पर स्त्री के मन की ताकत को अनदेखा कैसे कर सकते हैं !
या फिर कैसे उस अबला (!!!) के साथ 
न्याय को बदल देते हैं ?

जिस वंश को 9 महीने खुद की शक्ति देती है स्त्री 
और मृत्यु समकक्ष दर्द से जूझकर 
जिसे धरती पर लाती है 
जिसके रुदन को अपने सीने में जब्त करती है 
और प्राणों में ममता का सामर्थ्य भरती है 
उसके साथ सोच की हर कड़ी दूसरा रूप लेती है  .... 

पति की मृत्यु - स्त्री अभागी 
किसी का बेटा खा गई !
विवाह कर लिया तो कलंकिनी !
खुद की रक्षा में हाथ उठा दिया 
तब तो राक्षसी !
पति बच्चा नहीं दे सकता 
तो उसकी इज्जत पत्नी की ख़ामोशी में 
!!!!!!!!!!!!!
परिवार स्त्री-पुरुष से 
समाज स्त्री-पुरुष से 
संतान स्त्री-पुरुष से 
तो कुछ गलत होने का कारण सिर्फ स्त्री क्यूँ ?

पुरुष रक्षक है स्त्री का 
पर जब भक्षक बन जाए 
तो स्त्री के प्रति नज़रिया क्यूँ बदल जाता है ?
कम उम्र में स्त्री विधवा हो जाए 
या तलाकशुदा 
तो उसके विवाह पर आपत्ति क्यूँ ?
उसकी जिंदगी में तो गिद्ध मँडराने लगते हैं 
ऊँगली उठाते लोग 
उसे खा जाने का मौका ढूँढ़ते हैं 
दूर की हटाओ 
घर बैठे रिश्तों की नियत बदल जाती है 
फिर यह दोहरा मापदंड क्यूँ ???

     रश्मि प्रभा 
तुम स्त्री हो... ?

बरसों से दबी हुई
रिवाजों के मलबे तले
समाज की बनाई, आग्नेय चट्टानों के बीच
पिसती गई परत-दर-परत
रिसता रहा लहू अपने ही
लहुलुहान वजूद से
झेलीं अनगिनत यातनाएँ भीं.
तमाम यंत्रणाओं और प्रताड़नाओं के बीच 
जब भी उठना चाहा
होता रहा, देह पर अतिक्रमण.

सुरक्षा के नाम पर हुई नज़रबंद
चलीं अविश्वास की अनगिनत आँधियाँ भी
जलाया अपनों की ही क्रोधाग्नि ने
रिश्तों को जीत लेने का
हर प्रयत्न अब असफल ही था
कि हर उठती कोशिश को
नियति का भीषण प्रहार भेद देता
तमाम झंझावातों के बीच
आख़िर कुचल गयी आत्मा भी
धंसता गया, तन-मन
उन्हीं दो पाटों के बीच.

समय ने और भी गहरा दिए
गर्त के बादल
धूल-धूसरित शरीर अब
खिलता नहीं पहले सा
'मौन' ही बन गया पहचान उसकी
शायद ये प्रायश्चित है
उसके 'होने' का
लेकिन डर है...
कहीं उसे इंतज़ार तो नहीं
कि कोई आकर ढूँढ निकालेगा उसे
उत्खनन में
फिर पा लेगी वो एक नया नाम
हृदय थोड़ा अचंभित और द्रवित हो
चीत्कार ही उठा सहसा
तुम 'स्त्री' हो या 'जीवाश्म'..... ??

*सीता का संघर्ष*


अश्रुपूरित नज़रों से तकती रही, राहें तेरी 
सिर्फ़ एक दिलासे का ही तो था, बेसब्री से इंतज़ार, 
जो मिटा देता,बस इक पल में ही, दिल के सारे रंज़ोग़म
और रहता प्रेम का हर सुगंधित लम्हा बस यूँ ही बरकरार.
पर ना जाने कैसे हुए तुम इतने निष्ठुर, निर्मम,निर्मोही
कि इक कदम भी ना चल सके खुद मुझ तक
और हारकर मायूस पलकों ने भी, ढकेल ही दिया,
आकांक्षाओं के हर, समंदर को वापिस भीतर
देखते रहे , तुम दूर से ही तमाशाई बन.
उलझे रहे, खुद की ही बनाई उलझनों की चादरों में
तार-तार करते गये उन्हें और
एक-एक कर उधेड़ डाले वो सारे धागे भी
जो साथ मिलकर, हमने ही कभी बुने थे
अपने ख्वाबों के उस सुनहरे से करघे पर !
नहीं महसूसा तुमने कोई भी दर्द, और ना ही
वास्ता था तुम्हे ज़रा भी मेरी इस छटपटाहट से
तुम तक पहुँचने की मेरी व्याकुलता ,
इस निश्छल, निस्वार्थ प्रेम ने भी
नहीं कचोटा, तुम्हारी अंतरात्मा को, एक पल को भी
बल्कि तुम तो तलाशते रहे, हर बार ही, एक नया आक्षेप
तो क्या, जो छलनी हुआ, किसी का अथाह विश्वास,
तुम्हारा 'अहं' तो पुष्ट होता रहा ना !
कितनी ही बार, फेंकी गई, अवांछित सवालों के
इस घिनौने, भयावह दावानल में
जिनका कोई सरोकार ही नहीं था,
हमारी इस खूबसूरत, खिलखिलाती दुनिया से.
जवाब जानना चाहते हो ना तुम, तो सुनो...सच कहूँ
रोम-रोम जलता है मेरा वहाँ, 'भय' और 'वितृष्णा' से
'भय' इस अलौकिक प्यार को खो देने का है, और 'वितृष्णा'
असहनीय सी, मुझे अपने आप से ही हो गई है
कि क्यूँ ना बन सकी, तुम सी अब-तलक़
मेरी हर कोशिश आज भी नाकाम ही क्यूँ है
तुम्हारी शंकाओं की गहराई ने गिरा दिया है मुझे
अपनी ही नज़रों से पटककर, इस धरा पर, खंडित होने के लिए
हैरां हूँ, तुम्हारे इस अप्रत्याशित से उद्घोष से, कि
आज मुक्त कर दिया है, तुमने मुझे, उन सारे बंधनों से
छोड़ दिया है, भेड़ियों के इस शहर में निपट, अकेली ही मुझे
कराहता हृदय, और पैर पटकती खामोशी अब भी प्रयासरत है
तुम तक पहुँचने को भरसक, तरसती हैं आज भी ये निगाहें
यूँ तो जाने की अनुमति, दे दी है तुमने मुझे बिन पूछे ही
पर तुम ही कहो, कहाँ जाऊं ?
कहाँ जाऊं ??
कहाँ जाऊं, अब मैं तुमसे बिछुड़कर ???
आख़िर सबसे, बिछूड़ने के बाद ही तो
तुमको था पाया, मैनें........!

*एक टुकड़ा ज़िंदगी...*

एक टुकड़ा ज़िंदगी
अपनों से ही
होती रही भ्रमित
खोती रही
जीवन के मायने.
बदलते चले गये
श्वासों के अर्थ
ग़लत हुआ हर गणित.
शब्दों के पीछे छुपा मर्म
कोसता रहा अपने होने को
कौन पढ़ पाया
अहसासों और हृदय के
उस एकाकी कोने को ?

सबने चुन लीं
अपने-अपने हिस्से
की खुशियाँ
मुट्ठी भर मुस्कानें
समेटीं दोनों हाथों से
भरी रिक्तता स्वयं की
संवार ली अपनी दुनिया.

दर्द, आँसू सर झुकाए
अब भी तिरस्कृत
शून्य के चारों तरफ
निराश, हताश भटकते.
बंज़र ज़मीन पर
चीत्कारें भरता मन
सुन रहा है अट्टहास
बदली हुई दृष्टियों का
भिक्षुक बना प्रेम
स्मृतियाँ बनीं सौत
एक टुकड़ा ज़िंदगी
पल-पल बरसती मौत !


 प्रीति 'अज्ञात' 
साहित्य-रागिनी' वेब पत्रिका में संपादक
* 'साहित्य-प्रोत्साहन संस्थान' कार्यकारिणी सदस्य






ब्लॉगोत्सव में कल अवकाश का दिन है, मिलती हूँ परसों सुबह 10 बजे परिकल्पना पर...... 


6 comments:

  1. सुंदर अभिव्यक्ति सुंदर रचनाऐं ।

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  2. स्त्री के मन की ताकत को अनदेखा कैसे कर सकते हैं !
    स्त्री के अस्तित्व की सुन्दर अभिव्यक्त करती रचनायें
    महत्वपूर्ण संग्रह ----
    सादर :)

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  3. istri ki takat ko jo nazarandaj karta hai ........usko kabhi jindgi me sacchha sukh nahi milta bas ..bhatakta rahta hai jinndgi bhar ......bahut sundar bhawaviyakti rashmi jee .....

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  4. बदली हुई दृष्टियों का
    भिक्षुक बना प्रेम
    स्मृतियाँ बनीं सौत
    एक टुकड़ा ज़िंदगी
    पल-पल बरसती मौत !
    समवेदनाओं से परिपूर्ण :) बेहतरीन अभिव्यक्ति !!

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  5. बहुत-बहुत आभार रश्मि जी ! अपनी रचनाओं को यहाँ देखकर बेहद खुशी हुई !

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