सागर की लेखनी जब फुर्सत पाती है...तो जीवनरूपी सागर का मंथन करती है, विचारों का घट यूँ ही हिस्से नहीं आता ! 

फ्योदोर दास्तोएवस्की की पंक्तियों को अपने सिरे से सोचते हुए सागर ने लेखन के आरम्भ में ही बहुत कुछ सोचने को दिया है, यही इनके ब्लॉग की विशेषता है !

आप देखते हैं महानुभाव कि तर्क एक अच्छी चीज़ है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन तर्क सिर्फ मनुष्य के बौद्धिक पक्ष को ही संतुष्ट कर सकता है, जबकि ‘स्वतन्त्रयेच्छा’ संपूर्ण जीवन की अभिव्यक्ति है। मेरे कहने का अर्थ है जिसमें तर्क और कल्पना भी सम्मिलित है, हालांकि इसके अनुसार चलने में खतरे ही खतरे हैं। लेकिन इसके बावजूद एक जीवन है, किसी संख्या का स्क्वायर रूट निकालना नहीं। उदाहरण के लिए मैं अपने जीवन को अपने समस्त सामर्थ्य के साथ जीने में विश्वास करता हूं। सिर्फ बौद्धिकता के साथ नहीं, जो कि मुश्किल से मेरी जिजीविषा का 1/20वां अंश है। बुद्धि से आप अधिक से अधिक क्या जान सकते हैं? बुद्धि उतना ही समझ सकती है जितनी उसकी सीमा है। और शायद कुछ चीज़ें ऐसी हैं जिन तक यह कभी नहीं पहुंचेगी। मनुष्य चेतन और अंतश्चेतन की पूर्ण इकाई के रूप में कर्म करता है और हालांकि यह कुछ अतर्क्य सी स्थिति है, फिर भी वह इसे जीता है। ---  

निजता से परे बहती शाश्वत नदी


सीखचों में बाँध दो मुझको 
या भेज दो दूसरी दुनिया में
ख़त्म नहीं होऊंगा मैं 
मुझे अमरता का वरदान है.

आलते के पत्तों पर रख दो या 
फिर मेरी घडी फोड़ दो
तुम्हारे मन पर रेंग जाऊँगा मैं या 
फिर मेरे होने की सूई तुम्हारे वजूद के डायल में घूमती रहेगी

रंग बनाओगे मुझे?
या चिता पर जलाओगे
सूई की तरह तुम्हारे शिराओं से बिंध जाऊँगा.

नहीं रहूँगा मैं तो विभिन्न किरणों में बँट जाऊँगा
कपास के रेशे में मिलूँगा
गेंहूं से उसके छिलके के छिटकन में,
किसी दूर देस की औरत के कतरन में 
और जब कहीं नहीं दिखूंगा तो सबके जीवन में मिलूँगा.
मुझे जितने कोष्ठक में बंद करोगे
मैं लम्बे समीकरणों में सत्यापित होऊंगा 
तुम्हारे देह में नेफ्रोन हूँ मैं
तुम्हारे देश को ढँक लूँगा.

सभ्यता का पवित्र संस्कार हूँ.
तुम्हारे ज्ञान की जिज्ञासा का मूल जानकार हूँ मैं.
निवेदन के बाद भी जिसका आग्रह बचा रहता है
बहुत सख्तजान, एक चमत्कृत करता तलवार हूँ मैं.


कान एक विशाल समुद्र तट है

मौन बोलता है चुप चुप
रात्रि के इस नीरव अन्धकार में 
रात का अँधेरा नदी की मानिंद बहा जाता है.
रात की नायिका भरे बाहों वाला ब्लाउज पहन 
दोनों आँखों पर कोहनी धरे रात भी रोती है चुप चुप 
आँखों के कोर से काजल बह चली है धीमे धीमे
ब्लाउज पर जहाँ तहां उमेठे हुए दाग लगे हैं. 

तारे रात भर बोलते हैं चुप चुप
पाइप से पानी टंकी में उतरता रहता है.
मुंडेरों पर झपकी लेते कबूतरों की नींद अपनी ऊँघ में है.
तलवे से झड़ते हैं थोड़ी सी बचे हुए उड़ान 
मुठ्ठी से गिरती है इस समय चुप चुप दृश्य हवा 
बातूनी तारे रात भर मुखर होकर बोलते हैं चुप चुप
दूसरा "हूं" "हाँ" करता है 
जैसे मुंह में भूजा फांक कर बैठा हो.
तारे का टिमटिमाना भूजे को दाँतों से दरना है
कुर्र कुरर्र ...

केले के नए पत्ते नीम बेहोशी में हवा करते हैं
जैसे बथानों में नीद में खलल पड़ी हो गाय की 
और टालने को उसने अपने कान के पंखे पटके हैं. 
टेबल लैम्प की रौशनी छनती है दीवार के उस पार भी 
चुप चुप प्रतीक्षा करो 
एक ज़रा कुछ चुप्पी के अंतराल में कोई रील चल पड़ेगी.

चुप हुए तो बहुत बोलने लगे हम.
दिन बहुत बोलता है रात के चुप होने के लिए
जीवन बहुत बोलता है मृत्यु के लिए.
उजाले को पढने के लिए अँधेरे का पाठ चाहिए. 

गमले की मिटटी खींच रही है आसपास का पानी चुप चुप 
जैसे माँ और बच्चे नींद की जुगलबंदी के बीच 
खींचना शुरू कर देता है बच्चा दुधियाये स्तन से दूध
और माँ बनती है उसके लिए आरामदायक आसन.

बालियों में पकता है दाना चुप चुप 
डंका बजा कर नहीं आता ज्ञान
सिरहाने मीर के आहिस्ता बोलने की शर्त है. 
बड़ा सा उपन्यास कहता एक शब्द "मानवीयता"
बहुत संयम के बाद भी प्यार में चुप चुप ही शोर करता है आता है स्पर्श
और जागने में चुप चुप पैर का अंगूठा चूसता सोता है सपना.


बदन तंदूर है


तुम मेरी बाहों में हो, कितना कुछ हो आया है 
पृथ्वी अपने अक्ष पर घूर्णन करती रुक गयी है. 
जैसे बरसों के किसी घाव से निकल आये ढेर सारा मवाद
मुझे बताओ कि आग बाहर लगी है
या तुम्हारा बदन तंदूर है.

तुम्हारी ताम्बाई पीठ; एक आईना
मैंने बारहा लपटों को उठते यहाँ देखा है.
तुम्हारा जिस्म चाय की एक केतली 
सुराहीदार गले को धुंआ उलगते देखा है. 
इन तरह देखने में कोई  बर्फ की भारी सिल्ली टूटता रहता है मुझमें लगातार.

तुम्हारी कातर नज़रों में मिले प्रेम की बेहिसाब मांग 
अर्थव्यवस्था के मांग और आपूर्ति के नियम से उलट हैं. 
मैं बस हर बार देह से कर रहा उसे पूरा
मैदान में खुले सीमेंट की बोरी सा जमता रहा हूँ मैं.

मुझे बताओ मैं कैसे हो गया ख़राब !
जब खुद से ही बांधे जाएँ अपने हाथ और तकिये का एक कोना लगभग चबाते हुए रोयें रात भर
क्या करे कोई तुम मिलो तो बाहों में भर कर चूमें भी नहीं ?

कोई फर्क नहीं बदन और दुनियावी चीजों में 
कारखाने में काम कर जाना कि
भावुक लौह अयस्क से निर्मित मेरे शरीर के कारखाने में बनते रहते  है तमाम अवयव 
रंदा पड़ा नाज़ुक गला; चिमनी,
उगलता; काला धुंआ,
तुम्हारे नितम्ब और घुटने के बीच का हिस्सा: लाईटर की दिपदिपाती लौ.
मुझे सिगार बना कर फूंक डालो
रजाई में गठ्ठर बन आये रूई की चिंदी उड़ा दो
मजहबी टोपी के रंग उड़ा दो.

एक गर्म गुज़रता लावा सा तारकोल, बहता अन्दर 
तुम मरम्मत मांगती सड़क, मैं जालीदार बर्तन
[Saagar.JPG]अपने वजूद  को ही कर तार तार हों छलनी 
तुम पर बरसता रहूँ मैं.
लपक कर चूमना, चूमना, चूमना. 
इसे कविता में यूँ पढ़ना कि चूमना, घूमना, चूमना जैसे 
प्रेमी करे दशों दिशाओं से आलिंगन.

उतार दो लिबास अपना 
चूल्हे को बिना जलाए नहीं पकाई जा सकती रोटी.
प्रेम में पेट का भरना मजबूरी नहीं
वार देना खुद को, मिलाना फफूंद लगे शराब में, नाचना तांडव, मिटाना पीठ के छाले, बनना जोगी, चढ़ाना हथकरघे पर.
सागर 
http://kalam-e-saagar.blogspot.in/

इसी के साथ आज का कार्यक्रम संपन्न, मिलती हूँ कल फिर सुबह 10 बजे परिकल्पना पर...

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