उसका कहना है कि वह , उसके पति और बच्चे सुबह का बना हुआ खाना रात को नहीं खा सकते, और खाने मैं उन्हें नित नई वेराइटी चाहिए, इसके लिए उसने भारत के पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण ,चाइनीज़ से लेकर, थाई ,मेक्सिकन तक सारे व्यंजन बनाने सीख लिए हैं, ऐसा वह सिर्फ कहती है कभी किसी ने इस बात की पुष्टि नहीं करी .उनके पति यह नहीं खाते, उनके बच्चे वह नहीं पसंद करते. मुझे सुबह के तीन बजे उठना होता है, मैं रात की बनाई हुई सब्जी के साथ रोटी बनाकर सबके टिफन भर देती हूँ , मेरे पति और बच्चों को फरमाइश करने की इज़ाज़त नहीं है.

वह कहती है ''मैं अपने पति से हर महीने की पहली तारीख को एक नई साड़ी और एक नया सूट लेकर रहती हूँ , नौकरी नहीं करती हूँ तो क्या हुआ ?,आखिर मेरा भी कुछ हक़ बनता है'' हर करवाचौथ पर उसे व्रत करने की एवज़ में एक मुआवज़े के तौर पर सरप्राइज़ में सोने का बड़ा सा गहना ज़रूर मिलता है,

उसकी रात को पहनने वाली नाइटी पर भी प्रेस की क्रीज़ इधर से उधर नहीं होती, सुबह उठते ही उसके होंठों पर पुती हुई लिपस्टिक की लाली देर शाम तक बरकरार रहती है .वह हर हफ्ते कान के टॉप्स और मंगलसूत्र बदल देती है, एक हफ्ते से ज्यादा कोई गहना पहिनने पर उसे घबराहट होने लगती है, उसकी सास जब भी मुझे देखती है मुँह बिचकाकर कहती है ''छिः ! कैसी सुहागन हो तुम ? ना सिन्दूर, ना मंगलसूत्र'' लिहाज़ा एक दिन उसे देख कर मैंने भी अपने कान की बाली पहनी और इतराती हुई बस में बैठ गई, सुबह की उठी हुई थी, खिड़की से सर टिकाया और ठंडी हवा के झोंके लगते ही झपकी लग गई, और तब ही आँख खुली जब चोर कानों से बाली खींच ले गया, खून से लथपथ आँखों में आँसू लेकर लौटी और आकर सबकी डांट खाई सो अलग.

कई बार बस स्टॉप पर खड़ी होकर ही मुझे पता चलता है कि जल्दीबाजी में बाथरूम स्लीपर पहिन कर आ गई हूँ, वापिस जाना संभव नहीं होता क्यूंकि बस का समय निश्चित है ,इसीलिए ऐसे ही जाना पड़ता है और सबकी हँसती , मज़ाक उड़ाती नज़रों का सामना करने की शक्ति वह सर्वशक्तिमान ईश्वर मुझे प्रदान कर ही देता है.

कभी पति से किसी चीज़ की फरमाइश करने का मन करता है तो टका सा जवाब मिलता है, '' क्या आम औरतों की तरह नखरे करती हो ?खुद जाकर खरीद लाओ, अपने आप कमाती तो हो''

वह नियम से सुबह शाम दो घंटे योग करती है, उसका चेहरा पैंतालीस की उम्र में भी दमकता रहता है. मैं पैंतीस की उम्र में ही स्पोंडिलाइटिस, आर्थरआइटिस, माइग्रेन से ग्रसित हो गई हूँ , जाड़ों के दिनों में एक - एक सीढ़ी चढना भी दूभर हो जाता है.

वह अक्सर गुस्से में कहती है कि इस साल वह अपनी गृहस्थी अलग कर लेगी अन्यथा पति से तलाक ले लेगी, क्यूंकि उसकी सास कभी - कभी उससे सबके सामने ऊँची आवाज़ में बात करती है, जिससे उसे बहुत बेईज्ज़ती महसूस होती है.

 शेफाली पांडे की कथा का शेष  भाग एक  अल्प  विराम  के  बाद  .....
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लेकिन उससे पहले आईये चलते हैं कार्यक्रम स्थल की ओर जहां  कोलकाता के मीत उपस्थित हैं अपनी दो कविताओं के साथ ......यहाँ किलिक करें
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