स्वागत है आप सभी का पुन:

परिकल्पना पर !

रवीन्द्र जी की परिकल्पना का यह सामूहिक उत्सव इतना प्रभावशाली है, हर स्वर इतना गरिमामय है कि -
मेरे साथ-साथ आप भी नई कल्पना की उन्मुक्त उड़ान के लिए कलम के साथ तत्पर हो जाते होंगे और सपनों को अर्थ देने के लिए वेचैन ...!
इस ब्लोगोत्सव में -
शमा जी ने अपने संस्मरण से खूब शमा बांधा
आज -
उनका एक और संस्मरण परिकल्पना पर जारी है .....आईये आगे बढ़ते हैं और उनके संस्मरण से मुखातिव होते हैं .....
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............वो दिन भी आही गया जब हम मुम्बई के आन्तर राष्ट्रीय हवायी अड्डे पे खडे थे। कुछ ही देर मे मेरी लाडली को एक हवायी जहाज़ दूर मुझ से बोहोत दूर उड़ा ले जाने वाला था। उस वक़्त उसकी आँखोंमे भविष्य के सपने थे। ये सपने सिर्फ अमेरिकामे पढ़ाई करने के नही थे। उनमे अब उसका भावी हमसफ़र भी शामिल था।

उन दोनोकी मुलाक़ात जब मेरी बेटी तीसरे वर्ष मे थी तब हुई थी,और बिटिया का अमेरिका जानेका निर्णय भी उसीकी कारण था। मेरा भावी दामाद भविष्य मे वहीँ नौकरी करनेवाला था।

मेरी लाडली के नयन मे खुशियाँ चमक रही थी,और मेरी आँखोंसे कयी महीनोसे रोके गए आँसू ,अब रोके नही रूक रहे थे। वो अपने पँखों से खुले आसमान मे ऊँची उड़ान भरना चाहती थी,और मैं उसे अपने पँखों मे समेटना चाह रही थी......
मुझे मित्रगण पँछियों का उदहारण देते है..... उनके बच्चे कैसे पँख निकलते ही आकाश मे उड़ान लेते हैं.........इतनाही नही बल्कि मादा उन्हें अपने घोंसले से उड्नेके लिए मजबूर करती है....... लेकिन मुझे ये तुलना अधूरी सी लगती है। पँछी बार बार घोंसला बनाते हैं.....,अंडे देते हैं....,उनके बच्चे निकलते हैं.....,लेकिन मेरे तो ये दो ही है। उनके इतने दूर उड़ जाने मे मेरा कराह ना लाज़िम था।

मेरी लाडली सात समंदर पार चली गयी....... हम वापस लौट आये...... सिर्फ दोनो। पति अपने काम मे बेहद व्यस्त। बड़ा सा, चार शयन कक्षों वाला मकान....... हर शयन कक्ष के साथ दो दो ड्रेसिंग रूम्स और स्नानगृह। चारों ओरसे बरामदोसे घिरा हुआ।सात एकरोमे स्तिथ । ना अडोस ना पड़ोस।

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संस्मरण का अगला हिस्सा कुछ देर बाद , तबतक  चलिए  चलते हैं कार्यक्रम स्थल की ओर जहां मास्को से अमित केशरी लेकर उपस्थित हैं एक कविता : पंख .....यहाँ किलिक करें
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जारी है उत्सव, मिलता  हूँ एक अल्प विराम के बाद

2 comments:

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