मेरे ऑफिस में साहब तो एक तरफ , बड़ा बाबू तक मेरी खुलेआम बेईज्ज़ती करता है, कहता है, कि मुझे ठीक से इनकम टेक्स के कागज़ भरने भी नहीं आते . और सहकर्मियों के कागज़ स्वयं भरता है लेकिन मेरे लिए कोई मदद नहीं. पीठ फिरते ही सारा कार्यालय हंसने लगता है . कभी पानी को भी नहीं पूछने वाला, काम के समय दसियों बहाने बनाने वाला , आठवीं पास चपरासी तक कहने से ही चूकता '' बेकार है इन औरतों को नौकरी देना , ये बस घर का चूल्हा ही संभाल सकती हैं ''
उसका पति उसे अकेले बाहर नहीं जाने देता , कहते हुए वह शर्म से लाल हो जाती है, मेरे माथे पर आत्मनिर्भर का ठप्पा लगा हुआ है लिहाज़ा घर से लेकर बाहर तक सभी काम अकेले मेरे ही जिम्मे आ गए. चार - चार बैग अकेले कंधे पर लटकाए सोचना पड़ता है कि आत्मनिर्भरता क्या इसी दिन के लिए चुनी थी. मेरा अस्त व्यस्त घर देखकर उसके माथे पर शिकन आ जाती है,'' में तो ज़रा सी भी धूल बर्दाश्त नहीं कर सकती, घर फैला हुआ देखकर मुझे हार्ट अटैक होने लगता है,'' कहकर वह माथे पर आया हुआ पसीना पोछने लगती है.में डर जाती हूँ कि भगवान् ना करे कि कभी यह अचानक मेरे घर में बिना बताए घुस जाए , तो खामखाह ही मुझ पर इसकी मौत का इलज़ाम आ जाएगा.
वह हर मुलाक़ात में मेरी तनखाह पूछना नहीं भूलती, मेरे बहुत मज़े हैं, उसे याद रहता है, लेकिन तनखाह में लिपटी जिम्मेदारियां, मकान की किस्तें, पुराने उधार कई बार बताने पर भी उसकी मेमोरी से डिलीट हो जाते हैं. वह सबकी चहेती है , सामाजिक कार्यक्रमों में बढ़ -चढ़ कर भाग लेती है, शादी - ब्याह के अवसरों पर उसकी बहुत पूछ होती है, सब जगह से उसके लिए बढ़िया कपड़े बनते हैं, मुझसे कोई खुश नहीं रहता, अक्सर बगल के घर वाले भी मुझे निमंत्रण देना भूल जाते हैं. ससुराल से लेकर मायके तक सभी असंतुष्ट रहते हैं , कितने ही गिफ्ट ले जाओ फिर भी सुनना पड़ता है ''दो - दो कमाने वाले हैं और गिफ्ट सिर्फ एक, छाती पर रखकर कोई नहीं ले जाता , खाली हाथ दुनिया में आए थे, और खाली हाथ जाना है'', गीता का अमूल्य ज्ञान देने से छोटे - छोटे बच्चे भी नहीं चूकते .
कभी वह मेरे मामूली कपड़े देखकर परेशान रहती है, तो कभी चप्पल व पर्स देखकर, मेरी दुर्दशा देख कर उसने पिछले महीने शलवार - सूट का बिजनेस शुरू किया है, इस हफ्ते वह चप्पल और साड़ियों को पंजाब से मंगवाने वाली है, उसने मेरे लिए ख़ास सिल्क के सूट दक्षिण से मंगवाए हैं , उसने शपथ खाकर कहा है कि वह मुझे बिना कमीशन के बेचेगी, क्यूंकि मेरे स्टेंडर्ड को लेकर उसे बहुत टेंशन है.
उसका दृड़ विश्वास है कि नौकरीपेशा औरतों को सदा तरोताज़ा दिखना चाहिए . मैं मेंटेन रहूँ , मेरा स्वास्थ्य अच्छा रहे, इसके लिए वह ओरिफ्ल्म, एमवे की एजेंट बन गई है. जबरदस्ती मुझे महंगे केल्शियम और प्रोटीन के उत्पाद पकड़ा गई . मैंने पैसे नहीं होने की बात कही तो हिकारत भरी नज़रों से बोली ''छिः - छिः कैसी बात करती हो ? नौकरी वाली होकर भी पैसों को लेकर रोती हो, अरे, अगले महीने दे देना , पैसे कहाँ भागे जा रहे हैं ''
मेरी अनुपस्थिति में अक्सर वह किसी न किसी गृह उद्योग वाली महिला के साथ नाना प्रकार के अचार, पापड़, बड़ी के बड़े बड़े पेकेट लेकर आ जाती है, उसके अनुसार मुझ जैसों की निःस्वार्थ मदद करना उसकी होबी है.
जब वह कहती है मेरे बहुत मज़े है क्यूंकि मैं रोज़ घर से बाहर निकलती हूँ ,नाना प्रकार के आदमियों के बीच मेरा उठना बैठना है, और उन्हें बस उनके पति का ही चेहरा सुबह - शाम देखने को मिलता है, तब मैं दफ्तर के बारे में सोचने लगती हूँ, जहाँ मेरे सहकर्मी बातों - बातों में तकरीबन रोज़ ही कहते हैं ''आपको क्या कमी है, दो - दो कमाने वाले हैं '' ये सहकर्मी ऑफिस में देरी से आते हैं, जल्दी चले जाते हैं, मनचाही छुट्टियाँ लेते हैं , नहीं मिलने पर महाभारत तक कर डालते हैं मैं बीमार भी पड़ जाऊं तो नाटक समझा जाता है, सबकी नज़र मेरी छुट्टियों पर लगी रहती हैं.
अक्सर बस में खड़ी - खड़ी जाती हूँ, कोई सीट नहीं देता, कंडक्टर तक कहता है ''आजकल की औरतों के बहुत मज़े हैं''
मेरे साथ काम करने वाले एक सहकर्मी के प्रति मेरी कुछ कोमल भावनाएं थीं , वह अक्सर काम - काज में मेरी मदद किया करता था .एक दिन उसकी मोटर साइकल में बैठकर बाज़ार गई तो वह उतरते समय निःसंकोच कहता है ''पांच रूपये खुले दे दीजियेगा .''
बरसात का वह दिन आज भी मेरी रूह कंपा देता है जब उफनते नाले के पास खड़ी होकर मैंने साहब से फोन पर पूछा था, ''सर, बरसाती नाले ने रास्ता रोक रखा है ,आना मुश्किल लग रहा है, आप केजुअल लीव लगा दीजिए. साहब फुंफ्कारे '''केजुअल स्वीकृत नहीं है, नहीं मिल सकती'' कहकर उन्होंने फोन रख दिया. मैंने गुस्से में आकर चप्पलों को हाथ में पकड़ा और दनदनाते हुए वह उफनता नाला पाल कर लिया, जिसमे दस मिनट पहले ही एक आदमी की बहकर मौत हो चुकी थी,
अक्सर रास्ते में हुए सड़क हादसों में मरे हुए लोगों के जहाँ तहां बिखरे हुए शरीर के टुकड़ों को देखती हूँ तो काँप उठती हूँ , और अपने भी इसी प्रकार के अंत की कल्पना मात्र से मेरे रौंगटे खड़े हो जाते हैं .
वह कहती है कि उनके पति को औरतों का नौकरी करना पसंद नहीं है, उनके पति गर्व से मेरे सामने कई बार यह उद्घोष कर चुके हैं ,''इसे क्या ज़रुरत है नौकरी करने की? इतना पैसा तो मैं इसे हर महीने दे सकता हूँ''
मैं भी एक दिन पूछ ही बैठी '' अरे वाह बहिन, तुम्हारे पति कितने अच्छे हैं ,तुम्हें यूँ ही हर महीने इतना पैसा दे दिया करते हैं, अब तक तो आपने लाखों रूपये जोड़ लिए होंगे , वह बगलें झाँकने लगी, और अपने पति का मुँह देखने लगी , पति सकपका गया ''अरे ! इसने तो कभी पैसा माँगा ही नहीं,वर्ना क्या में देता नहीं?,
वह भी सफाई देती है, ''हाँ, मुझे कभी ज़रुरत ही नहीं पड़ी, वर्ना ये क्या देते नहीं', क्यूँ जी"?
''हाँ हाँ क्यूँ नहीं, चलो बहुत देर हो गई'', कहकर पति उठ गया और वे दोनों चलते बने.
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====================================================================कड़वे सच को वयां करती शेफाली की कथा "मजे का अर्थशास्त्र" में छिपे दर्द और संवेदनाओं को महसूस करने के बाद आईये चलते हैं कार्यक्रम स्थल की ओर जहां श्री श्यामल सुमन उपस्थित हैं अपनी दो कविताओं के साथ.....यहाँ किलिक करें
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जारी है उत्सव मिलते हैं एक अल्पविराम के बाद
Sachchhai ke paas le jati rachna.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया व्यंग्य!
जवाब देंहटाएंभारतीय समाज का आइना प्रस्तुत करती पोस्ट / लेकिन एक सवाल है की ,क्या ओरतों के कामकाजी होने से हमारे समाज में बच्चों के परवरिश और संस्कार पर नकारात्मक प्रभाव नहीं परा है ?
जवाब देंहटाएंdhardar vyangya hai yah, badhaayiyaan !
जवाब देंहटाएंनौकरीपेशा, आत्मनिर्भर और पति की कमाई पर निर्भर रहने वाली महिलाओं के भी दर्द को बहुत अच्छी तरह व्यक्त किया है इस व्यंग लेखन में ...!!
जवाब देंहटाएंmeree rachna ko shamil karne ke liye dhanyvaad.....
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा रचना ..
जवाब देंहटाएंभग्वान शेफाली जी की कलम को और बल प्रदान करे ...!!!
----कहीं भी चैन नहीं है, भाई, क्या करें ।
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