बचपन पहाडी झरने सा शुद्ध और निर्मल होता है , जीवन सतरंगी झूले सा लगता है-- कहीं कोई चिंता नहीं, अगर कभी उदास हुए भी तो वह एहसास चिड़िया की तरह फुर्र सा उड़ जाता
था. हर छोटी -सी ख़ुशी बहुत बड़ी लगती थी . जब हमें कोई एक रुपया देता था तो लगता था कि हम स्वामिनी है और विस्तृत नभ हमारी मुठ्ठी में है . हम जो चाहें खरीद सकते हैं , फिर
हमारी एक लम्बी सी फेहरिस्त तैयार तैयार हो जाती --- क्या लें , क्या न लें .. गुल्लक में डालें या पतंग , टॉफी, बॉल, आइसक्रीम , कोई सुनहरी कलम खरीदें या एकसाथ ४ समोसे .
समोसों का चाव आज भी वैसा ही है , पर एक रूपये का आलम बदल गया . एक रूपये में एक भो समोसा नहीं मिलता . आज परिवर्तन के इस दौर में सबकुछ बदल गया...हम बड़े
हो गए , बचपन बहुत पीछे छूट गया . खुशियों के स्वरुप बदल गए , जो एक रुपया कभी मूल्यवान था , वह मूल्यहीन हो गया !
आलमारी पर रखा , फ्रिज पर पड़ा एक रुपया दिनों-महीनों तक वैसा ही पड़ा रहता है , हम उसके बारे में बिल्कुल भूल जाते हैं , पर्स के किसी कोने में पड़ा हमारी एक दरस को तरसता
है . जब नज़र पड़ती है तो भिखारी की ओर बढा देते हैं , पर वह भी उसे लेना नहीं चाहता , हाथ खींच लेता है .
अब हमें यह एक रुपया नगण्य लगता है , अब तो हम सब लाखों-करोड़ों की ख्वाहिश में भाग रहे हैं , एक दूसरे को धोखा दे रहे हैं .... लेकिन इनमें वह ख़ुशी नहीं, जो उन दिनों एक रूपये में थी.
बात शायद एक रूपये की नहीं है, बात तो ये है कि इस बदलते समय में याद आते हैं बचपन के वे दिन , जब यह एक रुपया हमारी भोली आँखों की चमक हुआ करती थी !
रेणु सिन्हा
पटना
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एक का सिक्का जब हथेलियों में धारा जाता था तो क्या होता था पूछते हो तो सुनो ....
सिक्का !यह सिक्का शब्द हमेशा से एक जादुई खनक के साथ सम्पन्नता का बोध करता रहा है. कहानियों में राजा सोने - चांदी के सिक्के दान करता था , नानी-दादी मिट्टी की हांडी में
सिक्के जमकर घर के आँगन में दबा रखती थीं ख़ास दिनों के लिए . नानी-दादी से आगे आकर भी जब कभी अम्मा हमारी हथेली पर एक सिक्का डालती थी तो दिल बल्लियों उछलने
लगता था , मुठ्ठी लाख की हो जाती थी , आँखों में एक मीना बाज़ार लग जाता था ---- रिबन, क्लिप, चूड़ी, बिंदी, मिठाई, दो समोसा और न जाने क्या-क्या ! फिर भी कुछ पैसे कुछ पैसे
अगली मस्ती के लिए शेष बच जाते थे . अम्मा एक सिक्के में एक से डेढ़ शाम की सब्जी माँगा लेती थी .पैसे का हिसाब करते समय अगर एक रूपये का हिसाब नहीं मिला तो पूरे
दिन उसकी फिक्र में हिसाब करती रहती थी . त्योहार पर जब किसी के घर से कोई नौकर प्रसाद लेकर आता तो अम्मा उसे बक्शीश में एक रुपया देती , तब उसके चेहरे की चमक
देखने लायक होती थी . कभी मैं अपना एक सिक्का और अपनी छोटी बहन का एक सिक्का मिलाकर आधा kg पटया मछली माँगा लेते थे (आज पट्ट्या २०० से २५० सौ kg मिलता है ).
समय की रफ़्तार में पता नहीं चला कि कब चलते चलते मुठ्ठियों में दबा यह सिक्का अपनी गर्माहट खोता गया , हथेलियाँ पसीने-पसीने हो गईं , मीना बाज़ार उड़ गया , सपने महंगे
हो गए . आज मुठ्ठी में आए हज़ारों सिक्के भी---- जादू जगाना तो दूर , महीने भर की ज़रूरतें भी पूरी कर पाने में जद्दोजहद करते हैं . जोड़-जोडकर बचाए पैसे बढ़ती महंगाई के आगे
बौने-दर-बौने होते जा रहे हैं . ऐसे में जब सिक्कों की औकात चूक गई तो एक सिक्के की औकात की क्या बात करें . हाल ही में एक माँगनेवाले लड़के को एक सिक्का दिया ,
सिक्का पाकर उसने मुझे घूरकर देखा --- शायद वह मेरी औकात नाप रहा था !!!
मंजुश्री
पटना
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इस परिचर्चा को मैं आगे बढाऊंगी एक अल्प विराम के बाद किन्तु उससे पहले आईये चलते हैं कार्यक्रम स्थल की ओर जहां अपनी कविताओं के साथ उपस्थित हैं श्री प्रवीन पथिक .....यहाँ किलिक करें
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जारी है उत्सव मिलती हूँ एक अल्प विराम के बाद
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उम्दा प्रस्तुती ,आपको अनेक शुभकामनायें /
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