मॉल , यानी.....शोखियों में घोला जाये,फूलों का शबाब,
उसमें फिर मिलाई जाये-थोड़ी सी शराब..........
दुनिया कहाँ- से- कहाँ आ गई!मॉल जाने का नशा -सा हो चला है,
लेबल लगे कपड़े,( एक ही प्रिंट के),डब्बा बंद खाना,कटी सब्जियां ,आधी सिंकी रोटी...
किसी भी दिन जाओ,भीड़-ही-भीड़!
फर्श इतना चिकना की बेबी स्टेप्स लेने को बाध्य ....अरे कुछ कुर्सियाँ ही रख दो आराम के लिए!
..........
आम आदमी कई कपड़ों को घूरता है,'इसे कौन पहनेगा?'-जैसे भाव लिए!
पिज़्ज़ा,बर्गर,फ्रेंच फ्राईज़ का स्टाइल है...बर्गर क्या है?डबल रोटी,बीच में हरी पत्ती...मछली के चोखे की टिकिया...फ्रेंच फ्राईज़ उबले आलू का कुरकुरा भुजिया...मॉल स्टाइल ,नाम 'मैकडी'...
नन्हें कपड़े में बच्चे स्टाइल में दौड़ते हैं,मैकडोनाल्ड्स में बैठ कर कुछ इस तरह गोल चेहरा बना कर देखते हैं कि अपने पिछडेपन का एहसास होता है...
और लडकियां!नाभिदर्शना जींस में,हाफ टॉप के साथ "बला" ही नज़र आती हैं...
लड़कों से यूँ चिपक कर चलती हैं कि हवा बेचारी ही कहती है "ज़रा मुझे आने दे"...
अंग्रेजी की किताब और मोबाइल पर अंग्रेजी धुन या फिर मॉल की सीढियों पर कान में तार लगाये आईपॉड से गाने सुनना ...भाई मुझ गंवार को तो एक ही गीत याद आता है -
"जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं?
कहाँ हैं?कहाँ हैं?कहाँ हैं?"


......मॉल संस्कृति पर अपनी इस अभिव्यक्ति के साथ
मैं रश्मि प्रभा
आज फिर उपस्थित हूँ
ब्लोगोत्सव-२०१० के के सत्रहवें  दिन के कार्यक्रम के संयोजन-समन्वयन और संचालन हेतु परिकल्पना पर !
 
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....अपनी बात आगे बढाऊँ उससे पहले परिकल्पना के नाम आई एक चिट्ठी पढ़ कर सुना रही हूँ , यह चिट्ठी लन्दन से आई है ,  इस चिट्ठी के माध्यम से एक छोटी सी कविता ब्लोगोत्सव को भेंट करते हुए शिखा वार्ष्णेय कह रही हैं कि-
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 


" ब्लॉग जगत के आँगन में
न्यारा सा उत्सव आया 
बड़े बड़े कलाकारों ने फिर
श्रम से उसे सजाया  .
हर विधा हर कला का इसमें .
रंग -रूप है महका .
हो कूंची जैसे विन्ची की
परिकल्पना है दमका  .
आरम्भ से आगत तक
एक -एक सुर रसीला 
माँ सरस्वती की वीणा का
हर तार ज्यूँ  है खनका  .
मेरा सौभाग्य बनी पथिक मैं
इस उत्सव में स्थान मिला
.इतने विद्वानों में मुझको भी
थोडा कुछ सम्मान मिला
कोटिश आभार उस टोली को
जिसने स्वप्न ये साकार किया
अपने श्रम से ब्लॉग जगत को
ये स्वर्णिम उपहार दिया"



() शिखा वार्ष्णेय



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शौपिंग मॉल या सुपर मार्केट का चलन इधर कुछ दिनों में ज्यादा बढ़ा है ....हर संस्कृति के दो पक्ष होते हैं सकारात्मक और नकारात्मक . इन्ही दोनों पक्षों पर मैं आज परिचर्चा आयोजित कर रही हूँ और इस परिचर्चा के साथ आपको आज के समस्त कार्यक्रम से मैं रूबरू भी कराती रहूंगी ....थोड़ा धैर्य रखिये....मैं इस परिचर्चा को शुरू करूँ इससे पहले आपको ले चल रही हूँ कार्यक्रम स्थल की ओर जहां बाघों के संरक्षण पर भारतीय समाज के नजरिये  को बयान कर रहे हैं बरिष्ठ पत्रकार श्री देवेन्द्र प्रकाश मिश्र ........यहाँ किलिक करें
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जारी है उत्सव मिलते हैं एक अल्प विराम के बाद

4 comments:

  1. भावपूर्ण और सार्थक सन्दर्भों से युक्त परिचर्चा

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  2. बहुत ही आकर्षक सञ्चालन...!

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  3. रश्मि जी...आपका मंच संचालन बहुत खूबसूरत है.... उत्सव के प्रति मेरी भावनाओं को यहाँ प्रस्तुत करने के लिए आभार

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