पिछले पोस्ट में  आपने शेफाली की व्यंग्य कथा : मजे का अर्थशास्त्र पढ़ा . शेफाली जी मूलत: व्यंग्य प्रस्तुति के लिए जानी जाती हैं वे कहती भी हैं कि- "अंग्रेज़ी, अर्थशास्त्र एवं शिक्षा-शास्त्र (एम. एड.) विषयों से स्नातकोत्तर हूँ, लेकिन मेरे प्राण हिंदी में बसते हैं

उत्तराखंड के ग्रामीण अंचल के एक सरकारी विद्यालय में कार्यरत, मैं अंग्रेजी की अध्यापिका हूँ. मेरा निवास-स्थान हल्द्वानी, ज़िला नैनीताल, उत्तराखंड है .अपने आस-पास घटित होने वाली घटनाओं से मुझे लिखने की प्रेरणा मिलती है. बचपन में कविताओं से शुरू हुई मेरी लेखन-यात्रा कहानियों, लघुकथाओं इत्यादि से गुज़रते हुए 'व्यंग्य' नामक पड़ाव पर पहुँच चुकी है. मेरे व्यंग्य-लेखन से यदि किसी को कोई कष्ट या दुःख पहुंचे तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ...!" इनके व्यंग्य बड़े ही धारदार होते हैं , एक बानगी देखिये -

टी . वी . पर रोज़ रोज़ आते
विज्ञापन को देखकर
बेटे से रहा ना गया
बोला .................
पापा , पहली तारीख को
मम्मी क्यूँ नहीं ऐसे
हँसती, खिलखिलाती
नाचती और गाती है ?
क्यूँ नहीं,आपका हाथ पकड़कर
कभी बागों में घूमने
और कभी
सिनेमा देखने जाती है ?
क्या हमारे घर पहली तारीख
कभी नहीं आती है ?
सुनने पर उन्होंने बेटे से कहा
बेटा ! हमारे घर
अनगिनत बीमारियाँ
रिश्तेदारों की तीमारदारियां
बनिए की उधारियाँ
पहाड़ हो चुकी जिम्मेदारियाँ
सहमे हुए बच्चों की
टूटी फूटी फरमाइशें
पत्नी की अधूरी ख्वाहिशें
दोस्तों के ताने
पुराने दर्द भरे गाने
अनसुनी की गयी ज़रूरतें
घरवालों की बैचैन सूरतें
सपने में करोड़ों के प्रश्न
उधारी ले के भी जश्न
माहौल में घुटन
रिश्तों में टूटन
सुरसा सी महंगाई
पड़ोसियों की जगहंसाई
मीलों लम्बे सन्नाटे
कर्जदारों की आहटें
अधूरी अधूरी सी चाहतें
मुट्ठी भर राहतें
राशन के बिल
बैठता हुआ दिल
माँ की लाचारी
गठिया की बीमारी
मरने की मनौतियाँ
खर्चों में कटौतियां
रिटायर्ड बाप की बेबसी
जवान बेटी की
खोखली हंसी
इंटरव्यू के ढेरों लेटर
लिफाफों में फंसता मैटर
बेटे की नौकरी का इंतज़ार
दिन पर दिन
गहराता अन्धकार
घनघोर निराशा
जीवन से हताशा
नुवान की गोलियाँ
सल्फास की शीशियाँ
चोरी छिपे लाई जाती हैं
पहली तारीख के आने से
पहले ही
केलेंडर पर लिखी
देनदारियों पर नज़र टिक जाती है
जहां मीठे बोल बोले
बरसों बीत जाते हैं
मिलने वाले भी
कीडों वाली केडबरी ले के
चले आते हैं
उस घर में बेटे !
जिन्दगी बीत जाती है
लेकिन
पहली तारीख कभी
नहीं आ पाती है ....
() शेफाली पांडे
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इस व्यंग्य कविता के बाद आईये चलते हैं कार्यक्रम स्थल की ओर जहां यशवन्त मेहता "यश" उपस्थित हैं अपनी कविता के साथ......यहाँ किलिक करें
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जारी है उत्सव मिलते हैं एक अल्प विराम के बाद

6 comments:

  1. बहुत से घरों में जिन्दगी बीत जाती है ...टी वी विज्ञापनों जैसी एक तारीख कभी नहीं आती ....
    अच्छी कविता ...!!

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  2. वो तो बाजार है

    जिससे सब जार जार हैं।

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  3. व्यंग्य तो अच्छा है मगर माहौल को बहुत भारी कर दे रहा है
    शेफाली जी ,ज़रा सावधान ......

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  4. व्यंग्य तो अच्छा है मगर माहौल को बहुत भारी कर दे रहा है
    शेफाली जी ,ज़रा सावधान ......

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  5. व्यंग के माध्यम से एक सुलगता हुआ प्रश्न...

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