और अब रश्मि प्रभा जी स्मृति शेष में दर्ज उन अनुभूतियों से आपको रूबरू कराने जा रही हैं जो उनकी सुनहरी यादों का अनमोल हिस्सा है ....
आज मैं आपको प्रकृति कवि सुमित्रानंदन पन्त जी से मिलवाने समय के उस बिन्दू पर ले चलती हूँ,जहाँ मुझे नहीं पता था कि वे कौन हैं ,उनकी महत्ता क्या है !
नन्हा बचपन,नन्हे पैर,नन्ही तिलस्मी उड़ान सपनों की और नन्ही-नन्ही शैतानियाँ- उम्र के इसी अबोध,मासूमियत भरे दिनों में मैं अपने परिवार के साथ इलाहाबाद गई थी। मेरे पापा,मेरी अम्मा, हम पाँच भाई-बहन -छोटे भाई के फूल संगम में प्रवाहित करने गए थे। उम्र को मौत के मायने नहीं मालूम थे, बस इतना पता था कि वह नहीं है - फूल,संगम .... अर्थ से बहुत परे थे।
आंसुओं में डूबे दर्द के कुछ टुकड़े मेरे पापा,मेरी अम्मा ने संगम को समर्पित किया, पानी की लहरों के साथ लौटती यादों को समेटा और लौट चले वहां , जहाँ हम ठहरे थे। हाँ , संगम का पानी और माँ की आंखों से गिरते टप-टप आंसू याद हैं। और याद है कि हम कवि पन्त के घर गए (जो स्पेनली रोड पर था)। माँ उन्हें 'पिता जी' कहती थीं,कवि ने उनको अपनी पुत्री का दर्जा दिया था, और वे हमारे घर की प्रकृति में सुवासित थे, बाकी मैं अनजान थी।
उस उम्र में भी सौंदर्य और विनम्रता का एक आकर्षण था, शायद इसलिए कि वह हमारे घर की परम्परा में था।
जब हम उनके घर पहुंचे, माथे पर लट गिराए जो व्यक्ति निकला.....उनके बाल मुझे बहुत अच्छे लगे,बिल्कुल रेशम की तरह - मैं बार-बार उनकी कुर्सी के पीछे जाती.....एक बार बाल को छू लेने की ख्वाहिश थी। पर जब भी पीछे जाती, वे मुड़कर हँसते..... और इस तरह मेरी हसरत दिल में ही रह गई।
उनके साथ उनकी बहन 'शांता जोशी' थीं, जो हमारे लिए कुछ बनाने में व्यस्त थीं । मेरे लिए मीठा,नमकीन का लोभ था, सो उनके इर्द-गिर्द मंडराती मैंने न जाने कितनी छोटी-छोटी बेकार की कवितायें उन्हें सुनाईं.....कितना सुनीं,कितनी उबन हुई- पता नहीं, बस रिकॉर्ड-प्लेयर की तरह बजती गई ।
दीदी,भैया ने एक जुगलबंदी बनाई थी -
'सुमित्रानंदन पन्त
जिनके खाने का न अंत', .... मैं फख्र से यह भी सुनानेवाली ही थी कि दीदी,भैया ने आँख दिखाया और मैं बड़ी मायूसी लिए चुप हो गई !
फिर पन्त जी ने अपनी कवितायें गाकर सुनाईं, माँ और दीदी ने भी सुनाया..... मैं कब पीछे रहती -सुनाया,'नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए....'
उसके बाद मैंने सौन्दर्य प्रिय कवि के समक्ष अपने जिज्ञासु प्रश्न रखे - ' नाना जी, पापा हैं तो अम्मा हैं, मामा हैं तो मामी , दादा हैं तो दादी......फिर यहाँ नानी कहाँ हैं?'प्रकृति कवि किसी शून्य में डूब गए, अम्मा, पापा सकपकाए , मैं निडर उत्तर की प्रतीक्षा में थी (बचपन में माँ,पिता की उपस्थिति में किसी से डर भी नहीं लगता)। कुछ देर की खामोशी के बाद कवि ने कहा ,'बेटे, तुमने तो मुझे निरुत्तर कर दिया,इस प्रश्न का जवाब मेरे पास नहीं....' क्या था इन बातों का अर्थ, इससे अनजान मैं अति प्रसन्न थी कि मैंने उनको निरुत्तर कर दिया, यानि हरा दिया।
इसके बाद सुकुमार कवि ने सबका पूरा नाम पूछा - रेणु प्रभा, मंजु प्रभा , नीलम प्रभा , अजय कुमार और मिन्नी !
सबके नाम कुछ पंक्तियाँ लिखते वे रुक गए, सवाल किया - 'मिन्नी? कोई प्रभा नहीं ' - और आँखें बंदकर कुछ सोचने लगे और अचानक कहा - 'कहिये रश्मि प्रभा , क्या हाल है?' अम्मा ,पापा के चेहरे की चमक से अनजान मैंने इतराते हुए कहा -'छिः ! मुझे नहीं रखना ये नाम ,बहुत ख़राब है। एक लडकी-जिसकी नाक बहती है,उसका नाम भी रश्मि है................' पापा ने डांटा -'चुप रहो', पर कवि पन्त ने बड़ी सहजता से कहा, 'कोई बात नहीं , दूसरा नाम रख देता हूँ' - तब मेरे पापा ने कहा - 'अरे इसे क्या मालूम, इसने क्या पाया है....जब बड़ी होगी तब जानेगी और समझेगी ।'
जैसे-जैसे समय गुजरता गया , वह पल और नाम मुझे एक पहचान देते गए ।
वह डायरी अम्मा ने संभालकर रखा है , जिसमें उन्होंने सबके नाम कुछ लिखा था। मेरे नाम के आगे ये पंक्तियाँ थीं,
' अपने उर की सौरभ से
जग का आँगन भर देना'...........
कवि का यह आशीर्वाद मेरी ज़िन्दगी का अहम् हिस्सा बन गया......इस नाम के साथ उन्होंने मुझे पूरी प्रकृति में व्याप्त कर दिया ।
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१३ फरवरी को सीतामढी (बिहार) में जन्मी रश्मि जी को कलम और भावनाओं के साथ रहना अच्छा लगता है। ये मानती हैं कि यह इनका सौभाग्य है कि ये महाकवि पन्त की मानस पुत्री सरस्वती प्रसाद की बेटी हैं और इनका नामकरण भी सुमित्रा नंदन पन्त ने किया था। तथा इनके नाम के साथ अपनी स्व रचित पंक्तियाँ पंत ने इनके नाम की..."सुन्दर जीवन का क्रम रे, सुन्दर-सुन्दर जग-जीवन"। शब्दों की पांडुलिपि इन्हें विरासत में मिली है। इनका मानना है कि अगर ये शब्दों की धनी न होतीं तो इनका मन, इनके विचार इनके अन्दर दम तोड़ देते...इनका मन जहाँ तक जाता है, इनके शब्द उसकी अभिव्यक्ति बन जाते हैं... शैक्षणिक तौर पर इतिहास ऑनर्स में स्नातक रश्मि प्रभा की रचनाएँ "कादम्बिनी", "वांग्मय" और कुछ महत्त्वपूर्ण अखबारों में प्रकाशित हो चुकी हैं।
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रश्मि प्रभा जी के इस संस्मरण के बाद चलिए चलते हैं कार्यक्रम स्थल की ओर जहां अपनी कविताओं के साथ उपस्थित हैं सुनील गज्जानी.....यहाँ किलिक करें
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जारी है उत्सव मिलते हैं एक अल्प विराम के बाद
अपने उर की सौरभ से जग का आँगन भर देना'.........
जवाब देंहटाएंइस अनमोल सौतात को इस तरह संभालना और याद रखना ...
उनका रखा नाम सार्थक ही हुआ ..!!
Are waah, is mahatvapoorn uplabdhi ke liye aapko badhayi.
जवाब देंहटाएंवाह......बाहर सुन्दर संस्मरण
जवाब देंहटाएंअनमोल थाती।
जवाब देंहटाएंरश्मि जी के ब्लॉग पर भी मैं पन्त जी से सम्बंधित संस्मरण पढ़ चुकी हूँ
जवाब देंहटाएंमैंने छुटपन में छिपकर कुछ पैसे बोये थे .................कुछ इतना ही मासूम सा ये संस्मरण लगा
hamne first time padha aur padh kar maza aaya :-)
जवाब देंहटाएंदीदी जी इतना सुन्दर प्यारभरा संस्मरण पढ़कर मन रोमांचित हो उठा.. स्कूल के दिन में पन्त जी कि रचनाएँ पढ़ी लेकिन आज जब भी पढ़ती हूँ तो लगता है कि कितने सौम्य और जनमानस के करीब थे... आपको पढ़कर एक नयी प्रेरणा मिलती है और लगता है आज भी ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं जो अपने घर-परिवार के साथ साथ अपना सामाजिक कर्तव्य बिना शोरगुल के चुपचाप बखूबी निभाते रहते हैं .....
जवाब देंहटाएंमनोरम प्रस्तुति के आपको बहुत बहुत शुभकामनाएँ
इस प्रविष्टि को पढ़ रहा हूँ ! लग रहा है कविवर यहीं कहीं उपस्थित हैं !
जवाब देंहटाएंदुर्लभ चित्र से सजा यह परिकल्पना उत्सव धन्य हो गया है पन्त..पन्त की मानस पुत्री..और रश्मि जी को पाकर !
आभार ।