नमस्कार!
मैं रश्मि प्रभा
एक नयी परिचर्चा के साथ
आज पुन: उपस्थित हूँ परिकल्पना पर
आज उत्सव की यह आखिरी परिचर्चा है
और कल गीतों से भरी आखिरी शाम
फिर न जाने कब हमें एक साथ एक मंच पर
इकत्रित होने का सुयोग प्राप्त होगा......

खैर, विगत डेढ़ महीनों में हम सभी ने खूब मस्ती किये ब्लोगोत्सव के बहाने
खूब नए-नए विषयों को आपके सामने रखा ....और कई नयी प्रतिभाओं को पहली बार इतना बड़ा मंच मिला ! शुक्रिया ब्लोगोत्सव-२०१० की टीम .....शुक्रिया आप सभी पाठकों का , शुभचिंतकों का और समस्त प्रतिभागियों का...शुक्रिया उनका भी जो मंच के नेपथ्य में रहकर कार्यक्रम को गरिमा प्रदान किये ....!
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गीता में श्री कृष्ण ने कहा है-

नैनं छिदंति शस्त्राणि,नैनं दहति पावकः ,
न चैनं क्लेदयांत्यापोह,न शोशियती मारुतः ......................

यानि आत्मा अमर है।

तो प्रश्न उठता है कि इन आत्माओं का स्वरुप क्या होता है, क्या यह फिर किसी नए शरीर में आती है, कर्म काहिसाब चुकाने के लिए क्या आत्मा नए-नए रूपों में जन्म लेती रहती है? हाँ- तो यही है पुनर्जन्म!

जितने लोग उतने विचार...

सामान्य धरातल पर मुझे विश्वास है, आत्मा नए शारीरिक परिधान में पुनः हमारे बीच आती है। अगर सतयुग,द्वापरयुग सत्य है तो यह भी सत्य है कि आत्मा का नाश नही, वह जन्म लेती है। राम ने कृष्ण के रूप में, कौशल्याने यशोदा, कैकेयी ने देवकी, सीता ने राधा के रूप में क्रमशः जन्म लिया...कहानी यही दर्शाती है, तो इन तथ्यों के आधार पर मेरा भी विश्वास इसी में है।

ये हुई मेरी बात - अब इसी सन्दर्भ में और लोगों के विचार क्रम से रखते हुए मैं आपके विचारों से अवगत होना चाहूँगी ।
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श्रीमती सरस्वती प्रसाद ( "नदी पुकारे सागर" काव्यसंग्रह की लेखिका ) के शब्दों में,


" प्रभु के स्वरुप को किसी ने देखा नही है, पर अपनी भावनाओं के धरातल पर प्रभु की प्रतिमा को भिन्न भिन्न रूप देकर स्थापित कर लेते हैं - यही निर्विवाद सत्य है मान कर आस्था कानिराजन अर्पित करते हैं। ठीक इसी प्रकार पुनर्जन्म के प्रश्न पर गीता की सारगर्भित वाणीसामने आती है। छानबीन और तर्कों से परे आत्मा की अमरता पर विश्वास कर के मन कोसुकून मिलता है।

मैंने खोया और वर्षों मेरी आत्मा भटकती रही अचानक एक रात मेरी तीन साल की नतनी,जो मेरे ही पास रहती थी रात १२ बजे अचानक उठी और कहा "अम्मा उठो कविता सुनो" औरउसने अपने ढंग से एक लम्बी कविता सुनायी। कविता की शुरुआत थी

"माँ तुम दुःख को बोल दो, दुःख तुम पास नही आओ

मेरा गुड्डा खोया गुड्डा आ गया अब आ गया....."

क्या सच है क्या झूठ क्या भ्रम...इन सब से परे मन को अच्छा लगता है सोचना वह है यहीं कहीं पास ही....."
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इस अनमोल विचार के बाद आईये चलते हैं  मुम्बई के बसंत आर्य की लघुकथा : खिड़कियाँ  का आनंद लेने के  लिए कार्यक्रम स्थल की ओर .......यहाँ किलिक करें
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जारी है परिचर्चा मिलती हूँ एक अल्प विराम के बाद 

6 comments:

  1. परिकल्पना को इतने सुन्दर और सशक्त रूप में हम सभी के समक्ष रखने के लिए और हम सभी की रचनाओं को परिकल्पना में उचित स्थान देने के लिए रश्मि जी आपको ढेर सी बधाई और शुभ कामनाएं ,आपका स्नेह मिलता रहे .मंजुल भटनागर

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  3. रश्मी जी नमस्कार मै ब्लोगिम्ग मे लौट आयी हूँ.मेरी हाजरी स्वीकार करे

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