बड़ी अनोखी जादुई दुनिया थी उन दिनों की , जब इकन्नी , , दुअन्नी, और चौअन्नी , अठन्नी का राज था. मेरे स्कूली दिनों की साथी थी इकन्नी !


जो मुझे प्रतिदिन स्कूल जाते समय मिलती थी . टिफिन में मैं अपनी पसंद की चीजें खरीद खा लेती थी,

रुपया तो शहंशाह था . उसकी चमक-दमक खनक सर चढ़कर बोलती थी . वह साक्षात् लक्ष्मी का स्वरुप था, जिसकी पूजा होती थी .

आरा के प्रसिद्ध देवी मंदिर में ख़ास मन्नत मांगने और पूरा होने के बाद देवी मंदिर के प्रांगन में दो सिक्के (कम से कम ) फर्श पर जड्वाए

जाते थे . हमें सिक्कों की महत्ता समझाई जाती थी. सावनी मेला का मुझे इंतज़ार हुआ करता था , क्योंकि यह मुझे अपनी घेरदार फूलों वाले फ्रॉक की तरह ही लुभावना लगता था . उस मेले में साथियों के साथ जाने के लिए कभी एक कभी दो रूपये भी मिल जया करते थे. विक्टोरिया या जॉर्ज वाल्व ये सिक्के, मेरे छोटे से मन को पंख प्रदान करते थे . लगता था , इस से तो हम पूरा मेला खरीद लेंगे. किसी को इनाम , बक्शीश देने के लिए एक रूपये का सिक्का काफी था . माँ को कहते सुना था ---" श्यामू ये एक रुपया ले जा , नुक्कड़ वाले छगन की दूकान से एक पसेरी चावल लेते आना ."

होली , दिवाली जैसे त्यौहार पर हमारे हाथ में आशीर्वाद के तौर पर एक रूपये रखे जाते थे.

ज़माने ने झटके से करवट ली .... रोज रोज ये गाना सुनाई देने लगा -" बदला ज़माना बाबू बदला ज़माना , ६ नए पैसों का पुराना एक आना "

हिसाब समझने में भी देर लगी " बाबू एक पैसा दे दे ..." गानेवाला भिखारी १० पैसे लौटाने लगा और अब ५ के नोट पर भी घूरता है.

अब वो रुपया जो चलता और बोलता था, गायब होकर विशेष बन गया . अब वह सामान्य नहीं धराऊं है, ताड़ी पीकर , हाथ फैलाकर माँ से एक रुपया पानेवाले रामबरन काकू की मस्ती भरी उक्ती आज भी याद आती है ---" माँ मरी जईहों , तोहे ना भान्जयिहों., तोही के देखी देखी जियरा जुड़ईहों "



सरस्वती प्रसाद
http://kalpvriksha-amma.blogspot.com/



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एक बड़े सुपरमार्केट में ५९रुपये का सामान खरीदा .1 रूपया खुदरा वापस करने के बदले दुकानदार ने 1 छोटी सी टौफ़ी मुझे दी .मैं सोचने लगा भगवान् न करे 40 -50 साल बाद मेरे पोते पोतियों को वो दिन न देखना पड़े जब ५९० रुपये खुदरे के बदले एक प्यारी सी टौफ़ी दुकानदार उन्हें वापस करे और वे भी मेरी तरह इसे नोर्मल समझ कर पॉकेट में रख ले और भूल जाये जैसा मेरे साथ हुआ .समय-समय की बात है .


जैसे एक नवजात बच्चे के पैदा होते ही हम घर के अन्य बच्चो को भूल जाते है वैसे इस नए ज़माने में ५००-१००० रुपये की ही बात होती है. बेचारा १रु कही खो गया है.अब तो जमीन पर १रु का सिक्का गिरा मिलता है तो कमर झुका कर उठाना भी उसे एक भारी व्यायाम लगता है. बेकार मूल्यहीन चीज के लिए इतना परिश्रम क्यूँ?

शायद १९५५ की बात होगी .पिताजी ने १ रु का सिक्का दिया जाओ एक गेंद खरीद लो और २ चोकलेट भी खा लेना.और रास्ते में मेरा एक बदमाश दोस्त मिल गया .उसने उस सिक्के को छीनने की कोशिश की और छीन भी लिया .इस लड़ाई में गिर जाने के कारण काफी चोट भी लगी .अब एक रु के सिक्के के कारण कभी भी लड़ाई नहीं हो सकती है.अब तो लगता है कभी भी किसी भी सुबह समाचार पत्र में पढूंगा की एक रु हमारे बीच से सरकार ने गायब कर दिया .और उसके बाद एक रु प्राचीन युग की चीज बन कर रह जायेगा जैसे इकन्नी या दुअन्नी .




अभय कुमार सिन्हा
पटना
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अब  इस  परिचर्चा को मैं आगे बढाऊंगी एक विराम के बाद किन्तु उससे पहले आईये चलते है कार्यक्रम स्थल जहां अपने एक आलेख के साथ उपस्थित हैं डा. श्याम गुप्त ......यहाँ किलिक करें
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जारी है उत्सव मिलती हूँ एक अल्पविराम के बाद

5 comments:

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