पुन: परिकल्पना पर !
विराम से पूर्व मैं बात कर रही थी
मॉल संस्कृति के बारे में !
... हालांकि, सच्चाई यही है कि मौजूदा समय में किराने की दुकानों और शॉपिंग मॉल दोनों में ही अच्छी-खासी खरीदारी हो रही है। चाहे त्योहारी सीजन हो या न हो, किराने की दुकानों और शॉपिंग मॉल में खरीदारों की चहल-पहल काफी बढ़ चुकी है। इससे भी बड़ी बात यह है कि देश में खासकर महानगरों में तेजी से फैल रही मॉल संस्कृति ने लोगों की शामें बदल दी हैं। शॉपिंग मॉल जाने पर बेशक खरीदारों की जेबें ढीली होती हैं, लेकिन तब भी बड़ी संख्या में लोग सप्ताह में कम-से-कम एक दिन तो शाम का वक्त वहीं गुजारने लगे हैं.....मैं बात कर रही थी मॉल संस्कृति के सकारात्मक और नकारात्मक पहलूओं के बारे में .....चलिए आगे बढ़ते हैं और इस सन्दर्भ में आदरणीया सरस्वती प्रसाद जी से पूछते हैं -
===================================================================समय की तेज रफ़्तार ने जीने का तरीका बदल दिया. आचार-विचार , मिलना-जुलना , बातचीत , हाव-भाव सबकुछ !
बीता कल कभी सर उठाकर झांकता है तो आश्चर्य होता है--- कल हम कहाँ थे, आज कहाँ आ गए ! उनदिनों की बातें, जो हमारी साँसों तक में रची बसी थीं , उनकी चर्चा समय के धरातल पर निरर्थक ही नहीं, हास्यास्पद लगती हैं .
अभी कल तक जिन चीजों की उपलब्धि से हम विस्मयविमुग्ध हुआ करते थे, देखते ही देखते वे 'आउट ऑफ़ डेट' हो गईं और उनकी जगह दूसरी चीजों का साम्राज्य छा गया. हम दूसरी अनोखी दुनिया में प्रवेश कर गए-- जो बातें अकल्पनीय थीं, वे सच बनकर हमारी ज़िन्दगी में शामिल हो गईं .
मेरा बचपन एक दूकान से परिचित था , जो गली के मोड़ से कुछ कदम के फासले पर अपनी धाक जमाये था-- रामू काका की दुकान , जहाँ हींग से लेकर हल्दी तक , किरासन तेल से लेकर रामकृष्ण ब्राह्मी आंवला तेल तक मिल जाते थे . ज़रूरत की कोई ऐसी चीज नहीं थी, जो काका की दुकान पर नहीं मिलती. चिरपरिचित उस दूकान से ही नहीं, रामू काका की सहज मुस्कान और मृदु व्यवहार से हम जुड़े थे . स्लेट और कॉपी वाली पेंसिल ,रबर, कटर और लेमनचूस लेकर जब मैं काका को पैसा थमाती तो वे कहते-- "रुक जा " और भीतर जाकर मिसरी की एक डली लाते और मुझे थमा देते . उत्साहित होकर उसे मुंह में डालकर मैं घर की ओर मुड़ जाती . काका की दुकान पर जाना और मिस्री पाकर लौटना एक ऐसा स्थाई चित्र बन गया जो आज भी जेहन और आँखों में ज़िंदा है .
हालाँकि आज के दिनोंदिन बदलते युग में ऐसी दूकान की क्या बिसात ! आज हम मॉल युग में हैं . नए-नए बच्चे-जिन्होंने अभी बोलना सीखा है, कहते हैं - 'मॉल चलो' . मॉल की जगमगाती दुनिया में जाना अपना भी रुतबा बढ़ाता है . घुमो-फिरो , लिफ्ट से पांचवीं मंजिल तक पहुंचकर एक से बढकर एक आधुनिक चीजों का नज़ारा देखो. जो भाये - खरीदो . ज़रूरत की हर चीज मिल जाएगी . छोटे-छोटे बच्चों के मन बहलाव के लिए झुला है, हाथी घोड़ा है , और प्लेन है . बड़ों के मनोरंजन के लिए भी हमेशा कुछ होता रहता है.बरिस्ता में बैठकर कॉफ़ी पियो , सैंडविच खाओ,
कुर्सी पर बैठकर अपनी विशिष्टता का खुद मूल्यांकन करो.
यह मॉल रामू काका की दूकान नहीं, मीना बाज़ार है, जहाँ आँखें चकाचौंध में फंस जाती हैं . आप ज़रूरत की हद से आगे बढकर गैर ज़रूरी चीजें भी खरीद लेते हैं . चमक-दमक के रंगीन लुभावने दृश्य आपकी सोच पर हावी हो जाते हैं और आपका बजट बिगड़ जाता है. मॉल जाकर कुछ खाना पीना तो अनिवार्य सा हो जाता है,वरना मॉल जाने का क्या फायदा ! ये पंक्तियाँ अक्सर याद आती हैं..
"परिवर्तन होता इस जग में
प्रकृति बदलती है
दिन की कनाक्तारी में बैठी
रात मचलती है"
सरस्वती प्रसाद
http://kalpvriksha-amma.blogspot.com/
====================================================================
इस सन्दर्भ में जब मैंने ब्लोगोत्सव के मुख्य कर्ता-धर्ता श्री रवीन्द्र प्रभात जी से उनके विचार जानने की कोशिश की तो उन्होंने अपनी ग़ज़ल की चंद पंक्तियाँ आज के पूरे परिवेश को केन्द्रित करते हुए मेरे सामने कुछ इसप्रकार रखी-
कांच के जज्बात, हिम्मत कांच की
यार ये कैसी है इज्जत कांच की ?
पालते हैं खोखले आदर्श हम-
माँगते हैं लोग मन्नत कांच की
पत्थरों के शहर में महफूज़ है-
देखिये अपनी भी किस्मत कांच की
चुभ गया आँखों में मंजर कांच का-
दब गयी पाने की हसरत कांच की
सोचिये अगली सदी को देंगे क्या
रंगिनिया या कोई जन्नत कांच की ?
रवीन्द्र प्रभात
http://www.parikalpnaa.com/
==================================================================
और अब पुन: एक और चिट्ठी खोलती हूँ जो परिकल्पना ब्लॉग उत्सव के नाम है , यह चिट्ठी भेजी हैं दिल्ली से संगीता स्वरुप जी ने, लीजिये आप भी पढ़िए क्या कह रही हैं संगीता जी ?
ब्लोगोत्सव २०१० की परिकल्पना के बारे में पढ़ा तो लगा कि चलो एक मंच मिलेगा बहुत कुछ एक साथ पढ़ने का...एक जिज्ञासा हुई कि सबके ब्लोग्स की सबसे अच्छी पोस्ट पढ़ पाएंगे...बहुत कुछ नहीं सोचा था...लेकिन जब इस उत्सव का आगाज़ हुआ...अशोक चक्रधर जैसे साहित्यकार से ,इमरोज़ साहब की पेंटिंग से....लगा ये तो कुछ विशेष है...और सच मानिये ये उत्सव सच में ही एक विशेष उत्सव बन कर आया...
गणपति वंदना से इसका आरम्भ हुआ जिसे स्वर दिया स्वप्न मंजूषा जी ने...और शब्द बद्ध किया था सलिल जी ने....आरम्भ ही इतना कर्णप्रिय रहा..और शुरू में लिखा हुआ कि मैं समय हूँ.....सच ही समय की महत्ता को बता गया...
सबसे बड़ी विशेषता रही कि हर विधा को इसमें स्थान मिला...विषय वस्तु सब चुनी हुई...लेख, कहानी , कविताएँ, ग़ज़ल, संस्मरण. साक्षात्कार और विशेष विषय पर लेख और बच्चो की रचनाएँ सब ही तो था यहाँ पढने और जानने के लिए.....एक से एक बढ़ कर सारगर्भित विषय...
इमरोज़ की रचनाओं ने और उन पर लिखी रचनाओं ने मन मोह लिया...
इस उत्सव को इस रूप में प्रस्तुत करना कोई सरल कार्य नहीं था....इसके लिए रविन्द्र प्रभात जी को साधुवाद देना चाहूंगी...और उनकी पूरी टीम को आभार...इतनी मेहनत और लगन से इस ब्लोगोत्सव को हम सबके बीच उपस्थित किया.....इस यात्रा की एक पथिक मैं भी रही इसी की बहुत संतुष्टि है.....रश्मि जी का प्रयास नि:संदेह प्रशंसनीय है...उनकी कर्मठता इस उत्सव में साफ़ झलकती है..
ब्लॉग जगत में ये उत्सव सच ही मील का पत्थर साबित होगा....
शुभकामनायें
संगीता स्वरुप ..
http://gatika-sangeeta.blogspot.com/
=================================================================
=================================================================
====================================================================
जारी है उत्सव मिलती हूँ एक छोटे से विराम के बाद
बहुत सुंदर संचालन, और हाँ रवीन्द्र जी गजल वाकई लाजवाब है।
जवाब देंहटाएंसुंदर संचालन,रवीन्द्र जी की गजल वाकई अच्छी है।
जवाब देंहटाएंसुन्दर संस्मरण सुन्दर पोस्ट
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया संयोजन किया है रश्मि प्रभा जी ने,रवीन्द्र जी की गजल वाकई लाजवाब है। हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंआज के बाजार.....मॉल संस्कृति पर सरस्वती प्रसाद जी के विचार और रविन्द्र जी की ग़ज़ल दोनों ही कबीले तारीफ़ है....अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंमॉल संस्कृति पर सरस्वती प्रसाद जी और रविन्द्र जी के विचार बहुत अच्छे लगे....
जवाब देंहटाएंऔर इस उत्सव के बारे में संगीता जी की बातों से सहमत हूँ
बधाई।
जवाब देंहटाएंएक था कल्लू , उसका था कोल्हू |
जवाब देंहटाएंएक था भेरों, उसका था ठेला |
एक थी चंदा , उसका था भाड़ |
एक था राधे , उसका था पान भंडार |
ये सब बस नाम नहीं , पहचान थे |
अपने फन में माहिर , उस बाज़ार की शान थे |
टूट गया कोल्हू , छूट गया ठेला |
फूट गया भाड़ , गिर गया भंडार |
अब है यहाँ एक शानदार मॉल |
चमचमाता फर्श , जगमाती रोशनी |
टिमटिमाते बल्ब , नकली हँसी |
छुरी- कांटे , थेयेटर, कारों की कतार |
उंची दुकान, फीका पकवान ..........